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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free असल में, अस्तित्व में सिर्फ वर्तमान है; न तो अतीत है कुछ और न भविष्य है कुछ। अस्तित्व सदा वर्तमान है। अस्तित्व सदा है। अतीत और भविष्य कामयुक्त मन की विडंबनाएं हैं। मन अतीत को सम्हाल कर रखता है, क्योंकि अतीत के ही सहारे भविष्य की यात्रा की जा सकती है। इसलिए जिसे हम भविष्य कहते हैं, वह हमारे अतीत का ही पुनरावर्तन है; अतीत का ही प्रतिफलन, उसका ही रिफ्लेक्शन है, या कहें उसका ही प्रोजेक्शन है। जो-जो हमने अतीत में पाया है, उसे ही हम फिर-फिर करके भविष्य में पाना चाहते हैं, थोड़े हेर-फेर से। तो हम अपने अतीत को सम्हाल कर रखते हैं, ताकि हम अपने भविष्य को निर्मित कर सकें। लेकिन अतीत केवल स्मृति है, अस्तित्व नहीं। और भविष्य केवल कल्पना है, अस्तित्व नहीं। भविष्य केवल स्वप्न है, जो अभी घटा नहीं; और अतीत वह स्वप्न है, जो घट गया। और जो है सदा, वह न तो अतीत है और न भविष्य है। वह वर्तमान है। शायद उसे वर्तमान कहना भी एकदम ठीक नहीं है। ठीक इसलिए नहीं है कि वर्तमान हम कहते उसे हैं, जो अतीत और भविष्य के बीच में होता है। लेकिन अगर अतीत भी झूठ है और भविष्य भी झूठ है, तो उन दोनों के बीच में कोई सत्य नहीं हो सकता। दो झूठों के बीच में सत्य के अस्तित्व का कोई उपाय नहीं है। इसलिए अगर और ठीक से हम कहें, तो वर्तमान भी नहीं है, अस्तित्व इटरनिटी है, शाश्वतता है, सनातनता है। न वहां कभी कुछ मिटता है और न कभी वहां कुछ होता है, वहां सब है। सारी स्थिति है की है। और इस है में जो प्रवेश करे, इस इज़नेस में, वह जीवन की अतल गहराइयों को छू पाएगा। कामयुक्त मन तो दौड़ता रहेगा परिधि पर। अतीत से लेगा रस, भविष्य में फैलाएगा स्वप्न; अतीत में डालेगा जड़ें, भविष्य में फैलाएगा शाखाएं-उन फूलों के लिए जो कभी आएं। और अस्तित्व? अस्तित्व अभी बीता जा रहा है। वह अभी है। इसी क्षण है, यहीं है। तीसरी बात, जीवन है निकटतम। निकटतम कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि हम स्वयं जीवन हैं। निकटतम भी हो, तो भी हमसे थोड़ा दूर हो गया। जीवन हम स्वयं हैं। और कामयुक्त मन सदा दूर की तलाश है, दि फार अवे। कामयुक्त मन सदा दूर की तलाश है। और जीवन है निकटतम, निकटतम से भी निकट। और कामयुक्त मन है दूर से भी दूर। इन दोनों का कहीं मिलन नहीं होता। जीवन का और मन का कहीं भी मिलन नहीं होता। किप्लिंग ने कहीं गीत गाया है कि पूरब और पश्चिम कहीं नहीं मिलते। वे शायद कहीं मिल भी सकते हों, लेकिन मन और जीवन कहीं नहीं मिलते। हैरानी की लगेगी बात कि मन और जीवन कहीं नहीं मिलते। इसलिए जो मन से भरा है, वह जीवन से रिक्त हो जाता है। और जो मन से खाली होता है, वह जीवन से भर जाता है। लेकिन कठिनाई मालुम पड़ेगी, क्योंकि हम तो मन से ही भरे हैं। तो हमें जीवन का कोई पता चला या नहीं चला? नहीं, हमें जीवन का कोई पता नहीं चला है। हमने मन को ही जीवन समझा है। और मन को जीवन समझ लेना ऐसे ही है, जैसे कंकड़-पत्थरों को कोई हीरा समझ ले। या वृक्ष से गिरते हुए सूखे पत्तों को कोई फूल समझ ले और कभी आंख उठा कर ही न देखे कि ऊपर फूल भी खिलते हैं। सूखे पत्ते जो वृक्ष से गिर जाते हैं, वर्जित, फेंक दिए जाते हैं, निष्कासित, उनको बीनता रहे और समझे कि फूल हैं, उनके ढेर लगा ले और तिजोरियां भर ले। मन केवल राख है अतीत की। जैसे रास्ते से कोई राहगीर गुजरे तो कपड़ों पर धूल जम जाए, ऐसा अस्तित्व से गुजर कर जो राख हम पर इकट्ठी हो जाती है मार्गों की, उसका संग्रह है मन। उसी संग्रह से हम भविष्य के संबंध में सोचते चले जाते हैं। लाओत्से उसकी जड़ को काट डालना चाहता है। इसलिए लाओत्से कहता है, काम से मुक्त। क्योंकि काम जहां नहीं है, वहां मन ठहर नहीं सकता। काम जड़ है। अगर बुद्ध से जाकर पूछेगे, तो बुद्ध कहेंगे, तृष्णा! बस तृष्णा न हो तो सब मिल जाएगा तुम्हें। ठीक शब्द है तृष्णा। जिसको लाओत्से कह रहा है डिजायरिंग, कामना, पैशन, वासना, उसे बुद्ध कह रहे हैं तृष्णा। महावीर उसे कहते हैं प्रमाद। अलग-अलग शब्द लोगों ने उपयोग किए हैं। पर एक, मन को काटने की जो जड़ है, वह एक ही है। जिसने कुछ चाहा, वह मन के बाहर न हो सकेगा। जिसने कुछ भी न चाहा, वह इसी क्षण मन के बाहर है, इसी क्षण! उसे कल तक रुकने की जरूरत नहीं है। अगर इसी क्षण बैठ कर आप इतना साहस जुटा पाएं कि अब मैं नहीं कुछ चाह रहा हूं, तो इसी क्षण आप जन्मों-जन्मों की अंधी स्थिति के बाहर हो सकते हैं। इसी क्षण! लेकिन धोखा होगा। और धोखा इसलिए नहीं होता कि बाहर होना असंभव है। धोखा इसलिए होता है कि आप पूरे मन के राज को नहीं समझ पाते हैं। मेरी बात सुनेंगे तो आपके मन में होगा, अगर हो सकते हैं बाहर तो क्यों न हो जाएं? अभी हो जाएं। हो जाना चाहिए। अगर आपने हो जाने की चाह निर्मित की और आपने इसलिए आंख बंद की कि अच्छा है, मुक्त हो जाएं झंझट से, शांत हो जाएंगे, परम आनंद बरस पड़ेगा, यह तृष्णा को तोड़ ही दें, तो द्वार खुल जाएंगे जीवन के रहस्य के, अगर आपने इसको भी चाह का रूप दिया, तो आप फिर छटक गए, फिर भटक गए। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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