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से वापस उतरना नहीं होता। अब वह उस प्रतिष्ठा को खोज रहा है, जिसका कोई अंत नहीं है। लेकिन खोज जारी है। नाम उसने अपनी खोज का ईश्वर रखा है।
ध्यान रहे, ईश्वर को कोई भी वासना का विषय, आब्जेक्ट नहीं बना सकता है। और बनाएगा तो वहां ईश्वर को न पाएगा, अपनी ही पुरानी वासनाओं को नए रूप में स्थापित पाएगा। मोक्ष को कोई वासना का विषय नहीं बना सकता है, आब्जेक्ट नहीं बना सकता। और अगर बनाएगा तो मोक्ष केवल एक नया कारागृह-सुंदर, स्वर्ण से निर्मित, फूलों से सजा, पर एक नया कारागृह ही सिद्ध होगा। असल में, वासना हमें कभी भी कारागृह के बाहर नहीं ले जा सकती। जहां तक चाह है, वहां तक बंधन है।
लाओत्से कहता है, उखाड़ डालो, हटा डालो, एक-एक पर्त को तोड़ दो कामवासना की। क्यों? क्योंकि तभी जीवन में जो छिपा हुआ अतल रहस्य है, उस अतल रहस्य की गहराइयों को मापना हो, तो इसके लिए निष्काम हो जाना ही उपयोगी है। निष्काम का अर्थ है, समस्त कामनाओं से शून्य।
शांति की कामना मन में रह जाती है, ध्यान की कामना मन में रह जाती है, समाधि की कामना मन में रह जाती है। और मन बहुत चालाक है। मन कहता है, कोई हर्ज नहीं, अब तुम्हें पद नहीं चाहिए, ध्यान तो चाहिए; अब तुम्हें धन नहीं चाहिए, शांति तो चाहिए। और मन जीता है न धन में, न ध्यान में, न शांति में, न स्वर्ग में। मन जीता है चाह में, चाहने में, वह डिजायरिंग में। इसलिए मन कहता है, कोई भी विषय काम दे देगा, कोई हर्ज नहीं। पर कुछ तो चाहिए। निष्काम का अर्थ है, कुछ भी नहीं चाहिए। और ध्यान रहे, मन की चालाकी बहुत गहरी है। यहां तक वह चालाकी कर सकता है कि कहे कि कुछ भी नहीं चाहिए, यही मेरी चाह है। निष्काम होना है, यही मेरी कामना है। लेकिन मन फिर पीछे खड़ा ही रहेगा।
रवींद्रनाथ ने गीतांजलि में कहीं एक पंक्ति में प्रभु से गाया है, प्रभु से प्रार्थना की है: तुझसे कुछ और नहीं चाहता, इतनी ही चाह है कि मेरे मन में कोई चाह न रह जाए!
पर कोई फर्क नहीं पड़ता, कोई भी फर्क नहीं पड़ता है। और अगर कोई गहराई से देखे, तो जो मांगता है कि मुझे दस हजार रुपए मिल जाएं, जो मांगता है कि मुझे एक बड़ा मकान मिल जाए, उसकी चाह इतनी बड़ी नहीं, जितनी रवींद्रनाथ की है। वह बेचारा बहुत दीन है। वह मांग ही क्या रहा है? उसकी मांग का मूल्य ही क्या है? रवींद्रनाथ कहते हैं, कुछ और नहीं चाहिए सिवाय इसके कि अचाह मिल जाए, चाह के बाहर हो जाऊं। पर यह चाह है-अंतिम, आखिरी, अति सूक्ष्म।
और लाओत्से कहता है, निष्काम! उखाड़ डालो, आखिरी दम तक उखाड़ डालो।
लाओत्से के पास कोई मिलने आया है, एक युवक। और लाओत्से से कहता है, मुझे शांति चाहिए। लाओत्से कहता है, कभी न मिलेगी। वह युवक कहता है, ऐसी मुझमें आपको क्या कठिनाई मालूम पड़ती है? ऐसा मैंने क्या पाप किया है कि मुझे शांति कभी न मिलेगी? लाओत्से कहता है, जब तक तू चाहेगा शांति को, तब तक नहीं मिलेगी। हमने भी चाह कर देखा बहुत दिन तक। और आखिर में पाया कि शांति की चाह जितनी बड़ी अशांति बन जाती है, उतनी जगत में कोई अशांति नहीं है। इस शांति को चाहना छोड़ कर आ।
एक और घटना मुझे याद आती है। लिंची के पास कोई एक साधक आया है और लिंची से कहता है, सब मैंने छोड़ दिया। लिंची कहता है, कृपा कर, इसे भी छोड़ कर आ! वह युवक कहता है, लेकिन मैंने सब ही छोड़ दिया। लिंची कहता है, इतना भी बचाने की कोई जरूरत नहीं।
इतना सूक्ष्म है निष्काम का भाव!
वह युवक कह रहा है कि मैं सब छोड़ दिया। लिंची कहता है, इसे भी छोड़ आ। इतने से को क्यों बचा रहा है? नहीं, वह कहता है, मेरे पास कुछ बचा ही नहीं है। लिंची कहता है, इसे भी मत बचा।
वासना, कामना, चाह, बहुत घूम-घूम कर अनेक-अनेक द्वारों से हमें पकड़ती है।
निष्काम होने का अर्थ है: मैं जैसा हूं, वैसा राजी हूं। अशांत हूं तो अशांत; बेचैन हूं तो बेचैन; बंधन में हूं तो बंधन में; दुखी हूं तो दुखी। मैं जैसा हूं, टोटल एक्सेप्टबिलिटी, इसकी समग्र स्वीकृति। नहीं, मुझे इंच भर भी अन्यथा होने का सवाल नहीं है। जो हूं, हूं।
तो फिर कोई गति नहीं, फिर कोई मोटिवेशन नहीं। फिर कोई यात्रा कैसे शुरू होगी? फिर मन कैसे कहेगा, वहां चलो, वह पा लो। मैं जो
ताओ का सार अंश तथाता है-स्वीकृति। जहां समग्र स्वीकृति है, वहां निष्कामता है। और जहां जरा सी भी अस्वीकृति है, वहीं चाह का जन्म है। जरा सी अस्वीकृति, और पैदा हुई चाह, और काम आया, वासना ने पकड़ा, दौड़ शुरू हुई। खयाल किया आपने, अस्वीकृति से चाह का जन्म होता है। हम सब चाहों में जीए हैं, जीते हैं। अपनी एक-एक चाह को खोज कर देखेंगे, तो फौरन पता चल जाएगा कि
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