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ताओ उपनिषाद (भाग -1) प्रवचन- 3
ताओ की निष्काम गहराइयों में प्रवचन - तीसरा अध्याय 1: सूत्र 3
इसलिए यदि जीवन के रहस्य की अतुल गहराइयों को मापना हो तो निष्काम जीवन ही उपयोगी है। कामयुक्त मन को इसकी बाह्य परिधि ही दिखती है।
नहीं; जिस सत्य की निर्वचना हो सके, वह सत्य नहीं । वस्तुओं की जननी ।
जिस पथ पर विचरण किया जा सके, वह पथ अनाम है अस्तित्व का जन्मदाता और नाम है
ऐसे दो सूत्रों के बाद लाओत्से का तीसरा सूत्र है: देयरफोर, इसलिए तो सबसे पहले तो इस इसलिए को समझ लेना जरूरी है, फिर हम सूत्र को समझ पाएंगे। आश्चर्यजनक लगता है एकदम से, क्योंकि पहली दो बातों से तीसरे सूत्र का ऐसा कोई संबंध नहीं है, जिसे देयरफोर से जोड़ा जा सके।
सत्य नहीं कहा जा सकता। ऐसा मार्ग नहीं, जिस पर चला जा सके। अनाम है अस्तित्व, वस्तुओं का जगत नाम का जगत है। इसलिए, जो चित्त काम से जड़ा है, वह जीवन की अतल गहराइयों को, जीवन के रहस्य को नहीं जान पाएगा; जान पाएगा केवल जीवन की बाह्य परिधि को ।
देयरफोर, इसलिए तो तभी जोड़ा जाता है, जब नीचे आने वाली बात ऊपर गई बातों से निर्गमित होती हो, निकलती हो, निःसृत होती हो। पहली दो बातों से ही तीसरी बात निकलती हो, तभी उसे इसलिए से जोड़ा जा सकता है। लेकिन काम से भरे हुए मन का शब्द से भरे हुए मन से क्या संबंध है? ऐसा पथ जिस पर चला न जा सके, ऐसे पथ का कामवासना से भरे हुए मन से क्या संबंध है? ऐसे अस्तित्व को जिसे कोई नाम न दिया जा सके, उसका कामवासना से भरे हुए चित्त से क्या संबंध है?
प्रकट दिखाई नहीं पड़ता, अप्रकट है। इसलिए लाओत्से के इस इसलिए शब्द को, इस देयरफोर को समझने में बड़ी कठिनाई पड़ती रही है। पहले संबंध को थोड़ा देख लें।
असल में, जो वासना से भरा है, वही कहीं पहुंचना चाहता है। कहीं पहुंचने की इच्छा ही वासना है। मैं जो हूं, अगर मैं वही होने से राजी हूं, तो मेरे लिए सब पथ बेकार हुए, मेरे लिए कोई मार्ग न रहा। जब मुझे कहीं जाना ही नहीं है, जब मुझे कहीं पहुंचना ही नहीं है, तब मेरे लिए किसी भी मार्ग का कोई भी प्रयोजन न रहा। मुझे कहीं पहुंचना है, मुझे कहीं जाना है, मुझे कुछ होना है, मुझे कुछ पाना है, तो फिर रास्ते अनिवार्य हो जाते हैं। यात्रा ही न करनी हो, तो पथों का क्या प्रयोजन है? लेकिन यात्रा करनी हो, तो पथ का प्रयोजन है। हम जितने पथों का निर्माण करते हैं, वे सभी वासना के पथ हैं। कोई भी मार्ग बिना कामना के निर्मित नहीं होता। यद्यपि कामना का मार्ग से कोई संबंध नहीं है, कामना का संबंध है मंजिल से। पर कोई भी मंजिल बिना मार्ग के नहीं पहुंची जा सकती। और कोई भी वासना बिना मार्ग के पूरी नहीं की जा सकती। और कोई भी इच्छा को पूरा करना हो तो साधन जरूरी हैं ।
वासना तो कहीं पहुंचने की आकांक्षा है। कोई दूर का तारा वासना से भरे चित्त में चमकता रहता है और कहता है: यहां आ जाओ तो शांति मिलेगी, यहां आ जाओ तो सुख मिलेगा, यहां आ जाओ तो आनंद पाओगे। जहां तुम खड़े हो, वहां आनंद नहीं है। यहां, जहां यह वासना चमकाती है किसी तारे को, वहां आनंद है। और हममें और उस तारे में बड़ा फासला है। उसे जोड़ने के लिए रास्ता बनाना पड़ता है। फिर वह रास्ता चाहे हम धन से बनाएं, वह रास्ता चाहे हम धर्म से बनाएं, वह रास्ता चाहे हम बाहर यात्रा करें, वह रास्ता चाहे हम भीतर जाएं, उस रास्ते से चाहे हम जगत की कोई वस्तु पाना चाहें और चाहे मोक्ष और चाहे परमात्मा का द्वार खोलना चाहें! लेकिन अगर हमारी मंजिल कहीं दूर है, तो बीच में हमें और उस मंजिल को जोड़ने के लिए मार्ग अनिवार्य हो जाता है।
और लाओत्से कहता है, जिस मार्ग पर चला जा सके, वह असली मार्ग नहीं है। पर वासना से भरा हुआ चित्त तो मार्गों पर चलेगा ही। इसका अर्थ यह हुआ कि वासना से भरा हुआ चित्त जिन मार्गों पर भी चलता है, वे कोई भी असली मार्ग नहीं हैं। चलना ही गलत मार्ग पर होता है; चलना होता ही नहीं असली मार्ग पर असल में, कहीं भी जाने की आकांक्षा गलत जाने की आकांक्षा है-कहीं भी; बेशर्त। ऐसा नहीं कि धन पाने की आकांक्षा गलत है; और ऐसा भी नहीं कि सारे जगत को जीत लेने की आकांक्षा गलत है। नहीं, मोक्ष को पाने की आकांक्षा भी इतनी ही गलत है। असल में, जहां पाने का सवाल है, वहीं चित्त तनाव से भर जाता है और अशांत हो जाता
है।
कामवासना से भरा हुआ चित जहां है, वहां कभी नहीं होता; और जहां नहीं है, सदा वहीं डोलता रहता है। यह बड़ी असंभव स्थिति है। मैं जहां होता हूं, वहां नहीं होता; और जहां नहीं होता हूं, वहां सदा डोलता रहता हूं। स्वभावतः परिणाम में संताप, एंग्विश पैदा होता है, खिंचाव पैदा होता है। क्योंकि मैं जहां हूं, वहीं हो सकता हूं आराम से। जहां मैं नहीं हूं, वहां आराम से नहीं हो सकता। पर जहां मैं हूं, वहीं होने के लिए जरूरी है कि मेरे जाने का मन ही न हो कहीं; चित्त कोई यात्रा ही न करता हो ।
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