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आदर्श है। लेकिन इसके चरणों में सिर तो रख सकते हैं। इसका यशगान तो कर सकते हैं! इसकी जय-जयकार तो बोल सकते हैं। यह उनका आदर्श बन जाता है; क्योंकि भीतर इससे विपरीत उनके आदमी छिपा है। वे इकट्ठे हो जाते हैं। वे अड़चन डाल देते हैं।
सदा ऐसा होता है कि हम अपने से विपरीत से आकर्षित हो जाते हैं। और तब बड़ी कठिनाई होती है। हम जिस वजह से आकर्षित होते हैं, हम उससे उलटे होते हैं। और फिर ये आकर्षित हुए लोग ही पीछे संप्रदाय निर्मित करेंगे, संस्था चलाएंगे, संगठन बनाएंगे। संप्रदाय होगा, वह इनके हाथ में होगा। फिर ये सारी व्याख्या बदलेंगे, फिर ये रि-इंटरप्रीट करेंगे, नई व्याख्याएं करेंगे। और सारी चीज और ही हो जाएगी। सारी चीज और ही हो जाएगी।
अगर इतिहास का यह ढंग हमारे खयाल में आ जाए, तो शायद भविष्य में हम आदमी को सचेत कर सकें कि तुम जरा सोच-समझ कर...। अभी मनसविद कहते हैं कि जब भी कोई पुरुष किसी स्त्री से प्रभावित होता है, तो वह उन गुणों से प्रभावित होता है, जो उसमें नहीं हैं। स्त्री उन गुणों से प्रभावित होती है, जो उसमें नहीं हैं। जो हममें नहीं है, उससे हम प्रभावित होते हैं। जो हममें है, उससे हम कभी प्रभावित नहीं होते। क्योंकि वह तो हममें है ही। उससे प्रभावित होने का कोई कारण नहीं है। चूंकि विपरीत गुणों से लोग प्रभावित होते हैं, और विपरीत जितने गुण होते हैं, उतना ज्यादा रोमांच, उतना ज्यादा रोमांस, उतना प्रेम पैदा होता है। लेकिन फिर विवाह में वे ही विपरीत गुण कलह का कारण भी बनते हैं। अब यह मुश्किल है।
इसलिए मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जितने बड़े प्रेम से विवाह होगा, उतने ही खतरे में ले जा सकता है। क्योंकि प्रेम का मतलब यह होता है कि बड़ा ही विपरीत आकर्षण था। जो बहुत कठोर आदमी है, वह नाजुक से प्रभावित होगा। लेकिन जब दोनों साथ रहेंगे, तो नाजुक और कठोर में कोई तालमेल पड़ेगा नहीं। झंझट रोज आएगी। अगर कोई बहुत इंटलेक्चुअल, बहुत बुद्धिमान आदमी है, तो वह बुद्धिमान स्त्री से प्रभावित नहीं होगा, कभी नहीं होगा। वह एक ऐसी स्त्री खोजेगा, जिसमें बुद्धि नाम मात्र को न हो। वह उससे प्रभावित होगा। लेकिन फिर अड़चन आएगी। क्योंकि जब दोनों साथ रहेंगे, तो वह पाएगा, कहां की जड़बुद्धि से पाला पड़ गया।
अब इसमें किसी का कसूर नहीं है। यह सिर्फ जीवन का विपरीत का तर्क दिक्कत डालता है। विपरीत से हम प्रभावित होते हैं, लेकिन विपरीत के साथ रह नहीं सकते। इसलिए हमारी आखिरी दिक्कत यह होती है कि जिससे हम प्रभावित होते हैं, उसके साथ रह नहीं सकते; और जिसके साथ हम रह सकते हैं, उससे हम कभी प्रभावित नहीं होते।
इसलिए पुराने लोग ज्यादा होशियार थे, या कहें, चालाक थे। तो वे कहते थे, विवाह किसी और से करना और प्रेम किसी और से करना। ये दोनों काम कभी एक साथ मत करना। विवाह उससे करना, जिसके साथ रह सको। और प्रेम उससे करना, जिससे प्रभावित हो। और इनको कभी घोल-मेल मत करना, इनको कभी एक साथ मत लाना।
अभी अमरीका के जो श्रेष्ठतम चिंतनशील लोग हैं, वे कहते हैं कि अमरीका को अगर बचाना है, तो हमें यह पुरानी चालाकी वापस लौटानी पड़ेगी। क्योंकि अमरीका ने एक गलती कर ली है-गलती अब लगती है-कि वे कहते हैं कि जिससे प्रेम हो, उससे ही विवाह करना। वह है तो बात बहुत अदभुत, लेकिन वह घट नहीं पाती। क्योंकि प्रेम उससे हो जाता है, जो विपरीत है। फिर उसके साथ रहने में मुसीबत खड़ी हो जाती है। जिन-जिन चीजों ने प्रभावित किया था, वे ही कलह का कारण बन जाएंगी। क्योंकि उनसे आपका तालमेल तो बैठ नहीं सकता।
ठीक जैसा पति-पत्नी के बीच घटता है, वैसा ही गुरु-शिष्य के बीच घटता है। यह गुरु-शिष्य का भी बड़ा रोमांस है! विपरीत से प्रभावित होकर लोग चले आते हैं; फिर साथ रहना भी मुश्किल हो जाता है। इसलिए जिंदा गुरु के साथ रहना बहुत कठिन पड़ता है; मरे गुरु के साथ दिक्कत नहीं आती। क्योंकि दूसरा मौजूद ही नहीं होता; आपकी जो मर्जी हो, माने चले जाओ।
अब जीसस ने तो कहा है कि जो तुम्हारे गाल पर चांटा मारे, दूसरा गाल उसके सामने कर देना। और ईसाइयत ने इतनी हत्याएं की हैं, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। यह क्या बात है? यह जीसस जैसे आदमी के पास ये लोग कैसे इकट्ठे हो गए? ये प्रभावित हुए, यह दुष्ट वर्ग प्रभावित हुआ एकदम। इसने कहा कि बात तो यही सच है। हम नहीं कर पाते, कोई हर्ज नहीं। लेकिन कम से कम हम जय-जय जीसस की तो कर ही सकते हैं, जयकार तो कर ही सकते हैं। वह इकट्ठा हो गया। उसने लोगों की गर्दनें काट दीं, यह शिक्षा समझाने के लिए कि जो तुम्हारे गाल पर एक चांटा मारे, दूसरा उसके सामने कर देना। उसने लाखों लोगों की गर्दनें काट दीं। क्योंकि यह सिद्धांत समझाना बिलकुल जरूरी है, इस सिद्धांत के बिना दुनिया का हित नहीं होगा।
ऐसा विपरीत हो जाता है। इसलिए मोहम्मद आक्रामक नहीं हैं, न कृष्ण आक्रामक हैं। और मोहम्मद या कृष्ण के पास जैसे ही अनुभूति का सागर खुलता है, वैसे ही स्त्रैण-चित्त के द्वार खुल जाते हैं। स्त्रैण-चित्त से अर्थ केवल इतना ही है कि उस क्षण में आदमी जीवन के प्रति आक्रामक न होकर, जीवन की धाराओं के प्रति ग्राहक हो जाता है। वह एक गर्भ बन जाता है और जीवन को अपने भीतर समा लेने को तैयार हो जाता है। वह स्वीकार करने लगता है, अस्वीकार करना बंद कर देता है। उसकी स्थिति टोटल एक्सेप्टबिलिटी की, तथाता की हो जाती है। वह राजी हो जाता है। यह राजीपन, परिपूर्ण राजीपन ही स्त्रैण-चित्त का लक्षण है।
एक आखिरी सवाल।
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