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आखिरी सवाल एक छोटा सा, एक मित्र ने पूछा है कि क्या निरहंकारिता की क्षमता साधारण आदमी को भी मिल सकती है?
उनके प्रश्न से ऐसा लगता है कि बेचारे साधारण आदमी को कैसे मिलेगी? जब कि सच्चाई यह है कि असाधारण को मिलनी बहुत कठिन है। क्योंकि असाधारण का मतलब ही अहंकारी होता है। साधारण को ही मिल सकती है। लेकिन साधारण साधारण को नहीं; एक्स्ट्राआर्डिनरिली आर्डिनरी, असाधारण रूप से जो साधारण होता है। साधारण साधारण मैं किसको कहता हूं? साधारण साधारण उसको कहता हूं, जिसको सब तो साधारण कहते हैं, लेकिन वह खुद साधारण नहीं मानता। असाधारण रूप से साधारण मैं उसको कहता हूं, जिसको दुनिया चाहे असाधारण कहती हो, लेकिन वह अपने को साधारण मानता है।
मैं दस-बारह वर्ष पूरे मुल्क में घूमा। लाखों लोग मुझे मिले। सैकड़ों लोगों ने मुझसे आकर कहा कि आप जो बातें कहते हैं, वह साधारण आदमी की समझ में कैसे आएंगी?
मैंने उनसे पूछा, आपकी समझ में आती हैं?
उन्होंने कहा, मेरी तो समझ में आती हैं; लेकिन साधारण आदमी की समझ में कैसे आएंगी?
मैंने कहा, मुझे घूमते बारह साल हो गए, लाखों लोग मैंने देखे, सैकड़ों लोगों ने यह सवाल मुझसे किया, अब तक मुझे साधारण आदमी नहीं मिला, जिसने कहा हो कि मैं साधारण आदमी हं, मेरी समझ में यह कैसे आएगा। तो मैंने उनसे कहा कि वह साधारण आदमी कहां है? मुझे उससे मिला दो, एक दफा उसके दर्शन करने जैसे हैं।
कोई आदमी अपने को साधारण नहीं मानता। सभी आदमी अपने को असाधारण मानते हैं। यही अहंकार है। और आदमी अपने को साधारण जान ले और मान ले, तो अहंकार विदा हो गया। और सभी आदमी साधारण हैं। सभी आदमी साधारण हैं। असाधारण कोई भी नहीं है। सिर्फ एक ही आदमी को असाधारण हम कह सकते हैं, जो इस साधारणता को जान ले बस। और किसी को असाधारण नहीं कह सकते।
मन हमारा करता नहीं यह मानने को कि मैं और साधारण! कितने-कितने उपाय से हम समझाते हैं कि मेरा जैसा आदमी कभी नहीं हुआ, कभी नहीं होगा। हालांकि कभी इस पर सोचते नहीं कि ऐसा कहने का क्या कारण है? क्या ऐसी विशेषता है? क्या ऐसी खूबी है? कुछ भी ऐसी खूबी नहीं, कुछ भी ऐसी विशेषता नहीं। लेकिन मन यह मानने को नहीं करता कि मैं साधारण हूं। क्योंकि जैसे ही हम यह मानें कि मैं साधारण है, वैसे ही ऊपर चढ़ने की यात्रा बंद होती है।
असल में, असाधारण मानने का कारण है। जब मैं मानता हूं कि मैं असाधारण हूं, तो मैं जहां भी हूं, वह जगह मेरे योग्य नहीं रहती। मेरे योग्य जगह तो ऊपर है, जहां मैं नहीं हूं। दुनिया को पता नहीं है और दुनिया बाधाएं डाल रही है। अन्यथा मैं ठीक जगह पर अपनी पहुंच जाऊं। पहुंच कर मैं रहूंगा। ठीक जगह मेरी सदा मुझ से ऊपर है। जहां मैं हूं, वह मेरे योग्य जगह नहीं है। इसलिए मैं अपने को असाधारण मानता हूं कि मैं अपनी ठीक जगह को पा लूं। वह ठीक जगह मुझे कभी नहीं मिलेगी, क्योंकि जहां मैं पहुंच जाऊंगा, वह जगह साधारण हो जाएगी; और मेरी असाधारण जगह और ऊपर उठ जाएगी। अहंकार अगर चढ़ता है ऊपर, तो तभी चढ़ पाता है, जब वह मानता है कि ऊपर ही मेरी जगह है, नीचे मेरी जगह नहीं है। यह अहंकार की दौड़ की कीमिया है, केमिस्ट्री है।
लाओत्से कहता है कि अगर तुम जान लो कि तुम साधारण हो, नोबडी हो, ना-कुछ हो, तो फिर ऊपर न चढ़ सकोगे। साधारण का खयाल आते ही तुम्हें लगेगा कि शायद जिस जगह मैं खड़ा हूं, यह भी तो अनधिकार चेष्टा नहीं है। शायद यह भी मेरी योग्यता न हो। तुम और पीछे हट जाओगे। तुम एक दिन वहां हट जाओगे, जहां और आगे हटने को कोई जगह नहीं बचती। तुम एक दिन वहां हट जाओगे, जहां हटने को कोई भी राजी नहीं होता। तुम एक दिन वहां हट जाओगे, जहां कोई प्रतिस्पर्धा नहीं करता कि यहां से हटो। लाओत्से कहता है, उसी दिन तुम असाधारण जीवन को उपलब्ध हो जाओगे। क्योंकि इतना जो विनम हो गया, अगर उसको भी परमात्मा नहीं मिलता, तो फिर परमात्मा की सारी बातचीत बकवास है। इतना जो शून्य हो गया, अगर उसको भी पूर्ण का साक्षात्कार नहीं होता, तो फिर पूर्ण का साक्षात्कार होता ही नहीं होगा।
यह जो साधारण हो जाने की अपनी तरफ से चेष्टा है-समझ, साधना, जो भी हम कहें-ऐसा मत सोचें कि साधारण आदमी यह कैसे करेगा? प्रत्येक आदमी साधारण है और प्रत्येक यह कर सकता है। लेकिन प्रत्येक को वहम है कि वह असाधारण है। उस वहम को तोड़ना जरूरी है।
लाओत्से यह नहीं कहता कि आप तोड़िए ही। वह यह कहता है कि अगर नहीं तोड़िएगा, तो दुख पाइएगा। और दुख आप पाना नहीं चाहते। लेकिन जिस चीज से दुख पाते हैं, उसको सम्हाल कर चलते हैं। करीब-करीब ऐसा मामला है कि हम अपनी बीमारियों को सम्हाल कर चलते हैं, कहीं बीमारी छूट न जाए। और दुख पाते हैं। और शोरगुल मचाते रहते हैं कि बहुत दुख है, बहुत दुख है। लेकिन जिस चीज से दुख मिल रहा है, उसे हम छोड़ना नहीं चाहते। अहंकार की गांठ हमारे सब दुखों की जड़ है। और अपने को साधारण जान लेना सब दुखों की औषधि है।
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