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थोड़ा सोचें कि कृष्ण मर गए होते पहले ही इस महाभारत के युद्ध के, तो हमारी कल्पना में कभी खयाल ही न आता कि कृष्ण भी युद्ध करवा सकते हैं। आता? कभी खयाल न आता। जरा और इस तरह सोचें कि बुद्ध और जीए होते बीस वर्ष और महाभारत जैसी स्थिति आ गई होती, तो हमारी कल्पना में भी नहीं आता कि बुद्ध भी युद्ध के लिए हां कह सकते थे। हमारे देखने के पर्सपेक्टिव सीमित होते हैं। जो हो गया, वही हम देखते हैं। जो हो सकता था, वह हम नहीं देखते हैं। अगर कृष्ण मर जाते दस साल पहले महाभारत के, तो हमें कभी भी खयाल न आता कि यह आदमी, जो बांसुरी बजाता था, जो प्रेम के गीत गाता था, जो इतना माधुर्य से भरा था, यह युद्ध के लिए गीता जैसा संदेश दे सकता है!
मेरी दृष्टि में गीता से ज्यादा युद्ध के लिए प्रेरणा देने वाली और कोई धर्म-पुस्तक जगत में नहीं है।
लेकिन इसका कारण यह नहीं है कि ये पुरुष-चित हैं। इसका कारण, इसका कारण यह है कि चित्त तो बिलकुल स्त्रैण हैं, बहुत रिसेप्टिव हैं, बहुत ग्राहक हैं, लेकिन जिस स्थिति में ये खड़े हैं, उस स्थिति में इनका ग्रहणशील चित्त परमात्मा को पूरी तरह ग्रहण करके जो कहता है, उसी को करने में ये संलग्न हो जाते हैं।
यह मोहम्मद की तलवार परमात्मा के लिए उठी तलवार है। एग्रेसिव मोहम्मद बिलकुल नहीं हैं, आक्रामक बिलकुल नहीं हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मोहम्मद के पीछे आक्रामक लोग इकट्ठे नहीं हुए। लेकिन पीछे इकट्ठे होने वालों की जिम्मेवारी मोहम्मद पर नहीं जाती, किसी पर भी नहीं जाती।
महावीर जितना साहस का आदमी खोजना मुश्किल है। लेकिन कोई सोच भी नहीं सकता था कि महावीर के पीछे कमजोर और कायर इकट्ठे हो जाएंगे। वे इकट्ठे हुए। क्योंकि उनको आड़ मिल गई। जीवन बड़ा अजीब है। महावीर ने अहिंसा की बात की और महावीर ने कहा, अहिंसा को वही उपलब्ध हो सकता है, जिसके चित्त में भय बिलकुल नहीं रहा। लेकिन भयभीत आदमी ने सोचा कि अहिंसा अच्छा धर्म है, इसमें कोई किसी को मारता-पीटता नहीं। न हम किसी को मारेंगे, न कोई हमें मारेगा। वह जो भयभीत आदमी था, उसको अहिंसा परम धर्म मालूम पड़ा। इसलिए नहीं कि अहिंसा परम धर्म था, बल्कि इसलिए कि उसके भय को लगा कि अगर सारी दुनिया अहिंसा मान ले, तो बड़ी निर्भयता से रहने का मजा आ जाए। तो जितने भयभीत आदमी थे, वे महावीर के पीछे इकट्ठे हो गए।
इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि महावीर के पीछे जो वर्ग इकटठा हआ, वह एकदम इंपोटेंट, एकदम नपंसक है। उसने जिंदगी में सब तरफ से अपने को सिकोड़ लिया। वह सिर्फ केवल बनिए के धंधे को पकड़ कर जी रहा है पच्चीस सौ साल से। क्या कारण है? उसको कोई धंधा नहीं समझ में आया; क्योंकि सब धंधे में खतरा लगा। सिर्फ एक धंधा उसको लगा कि यह ठीक है। इसमें ज्यादा झंझट नहीं, झगड़ा नहीं। और न कुछ पैदा करता है, न कहीं जाता है। बीच के मध्यस्थ का काम करता है, दलाल का काम कर रहा है। कोई सोच ही नहीं सकता कि महावीर जैसे हिम्मतवर आदमी के पीछे इतने गैर-हिम्मतवर लोग इकट्ठे होंगे, जो कुछ न कर सकें सिवाय दलाली के। दलाली भी कोई धंधा है? दलाली से भी कोई इनर पोटेंशियल, जो भीतर छिपी हुई शक्तियां हैं, वे जग सकती हैं? लेकिन यह सब से ज्यादा विधापूर्ण मालूम पड़ा भयभीत आदमी को। अजीब बात है, महावीर के पीछे कायर लोग इकट्ठे हो गए।
मोहम्मद अत्यंत दयाल व्यक्ति हैं। और दया के कारण ही तलवार उठाई। अगर दया थोड़ी भी कम होती, तो यह आदमी तलवार नहीं उठाता। लेकिन उनके पीछे खूखार और जंगली आदमी इकट्ठे हो गए। क्योंकि तलवार दिखी, उन्होंने कहा, बड़े मजे की बात है, धर्म
और तलवार दोनों का जोड़ हो गया, सोने में सुगंध आ गई। अब हमसे कोई यह भी नहीं कह सकता कि तुम मार रहे हो। अब हम धर्म के नाम पर मारेंगे और काटेंगे। तो मध्य एशिया की जितनी बर्बर कौमें थीं, तातार थे, हूण थे, तुर्क थे, वे सब इसलाम में सम्मिलित हो गए। क्योंकि तलवार को पहली दफा अपराधी के जगह से हटा कर मंदिर का रुतबा मिला। वे सब पीछे खड़े हो गए तलवार लेकर। उन्होंने सारी दुनिया रौंद डाली। आज जो दुनिया में इसलाम का इतना प्रभाव है, यह मोहम्मद की वजह से नहीं है; यह जो इतनी संख्या है, मोहम्मद की वजह से नहीं है। यह इन दुष्टों की वजह से है, जो पीछे इकट्ठे हो गए। इन्होंने रौंद डाली सारी दुनिया। लेकिन इसलाम मार डाला इन्होंने। शांति का धर्म सबसे ज्यादा अशांति का धर्म बन गया।
लेकिन मोहम्मद जिम्मेवार नहीं हैं। मोहम्मद क्या कर सकते हैं? महावीर क्या कर सकते हैं? महावीर सोच ही नहीं सकते कि मेरे पीछे वणिकों की एक कतार खड़ी हो जाएगी। कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन जीवन के तर्क बड़े अजीब हैं, बहुत अजीब हैं। कुछ कहा नहीं जा सकता। और एक तर्क, जो कि लाओत्से को समझने में भी उपयोगी होगा, वह यह है कि अक्सर आप विरोधी आदमी से प्रभावित होते हैं, दि अपोजिट। जैसा सेक्स में होता है, वैसा ही सब चीजों में होता है। आप अपने से विपरीत आदमी से प्रभावित होते हैं। यह बड़ी खतरनाक बात है; लेकिन यह होता है। महावीर बहादुर से बहादुर हैं। इसीलिए उनको महावीर नाम मिला। यह उनका नाम तो नहीं है। नाम तो उनका वधमान है। महावीर का नाम दिया, क्योंकि उनकी वीरता का कोई मुकाबला ही नहीं है। सच में नहीं है। ये महावीर के पीछे जो लोग प्रभावित हुए, वे कायर होंगे, यह सोचा भी नहीं जा सकता।
लेकिन हमेशा ऐसा होता है। वीरता से कायर ही प्रभावित होते हैं, वीर प्रभावित नहीं होते। वीर क्या प्रभावित होंगे! कि होओगे वीर, तो ठीक है, अपने घर के होओगे। लेकिन कायर एकदम प्रभावित हो जाता है कि यह रहा महावीर! इसके चरणों में सिर रखें! यह है आदमी असल में! क्यों? क्योंकि यह कायर भी सोचता रहा है, कभी हम भी ऐसे हो जाएं। हो तो नहीं सकते। यह आइडियल है, यह
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