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पर उसका अनुभव न हो तो खयाल में न आए। कैसे खयाल में आए? क्योंकि हम तो सोच ही नहीं सकते कि कोई ऐसी इनसाइड हो सकती है, जिसमें आउटसाइड न हो। जहां भी इनसाइड होती है, आउटसाइड होती है। हमारा सारा अनुभव यह कहता है कि घर का भीतर होगा, तो बाहर भी तो होगा। क्योंकि हमें उस घर का तो पता नहीं है, जो यह पूरा विराट एक ही घर है, इसके बाहर कुछ भी नहीं है। जब सिर्फ चेतना रह जाती है और विचार खो जाते हैं, तो सब भीतर आ जाता है।
तब सवाल है कि फिर जड़ और चेतन में वहां क्या फर्क होगा? वह पूछते हैं आप कि कुर्सी में और हममें क्या फर्क होगा?
यह अभी सवाल उठता है, क्योंकि अभी आपको कुर्सी में और अपने में फर्क दिखाई पड़ता है। उस विराट चैतन्य की स्थिति में कुर्सी भी आपके भीतर होगी, आपका हिस्सा होगी। इतनी ही चैतन्य होगी, जितने चैतन्य आप हैं। कुर्सी भी जीवंत होगी; इतनी ही जीवंत होगी, जितने जीवंत आप हैं। कुर्सी अभी भी जीवंत है, लेकिन उसके जीवंत होने की जो डायमेंशन है, वह इतनी भिन्न है कि आप उससे परिचित नहीं हो सकते। कोई भी चीज चेतना के बाहर नहीं है; सब चेतना के भीतर है। और कोई भी चीज ऐसी नहीं है, जिसके बाहर चेतना हो, सब चीजों के भीतर चैतन्य का वास है। लेकिन बहुत-बहुत ढंगों से। ढंग को थोड़ा हम समझ लें तो हमारे खयाल में आए।
एक पत्थर उठा कर मैं फेंकू दीवार के पार, तो वह दीवार के पार नहीं जाता, दीवार के इसी पार गिर जाता है। लेकिन हवा में से फेंकता हूं, तो हवा के पार चला जाता है। दीवार का ढंग और है, हवा का ढंग और है। दीवार का ढंग और है, हवा का ढंग और है। लेकिन ऐसी चीजें हैं, जो दीवार के पार चली जाती हैं; जैसे एक्सरे है, वह दीवार के पार चली जाती है। उसके लिए दीवार हवा की तरह ही व्यवहार करती है। एक्सरे के लिए दीवार दीवार का व्यवहार नहीं करती, हवा का ही व्यवहार करती है। एक्सरे को पता ही नहीं चलेगा कि दीवार पड़ी बीच में, या हवा पड़ी बीच में या दीवार पड़ी, पत्थर था कि हवा थी, कुछ पता नहीं चलेगा। एक्सरे दोनों को पार कर जाती है। एक्सरे के लिए दीवार हवा जैसी है, पर पत्थर के लिए हवा जैसी नहीं है। पत्थर कहेगा, दीवार अलग है, हवा अलग है।
मैं आपको यह कह रहा हूं कि हमारी जो चेतना होती है, उसके ऊपर निर्भर करता है कि हमें चीजें कैसी दिखाई पड़ती हैं। अगर हम सेल्फसेंट्रिक हैं, तो कुर्सी अलग है, मैं अलग हूं। और अगर सेल्फ टूट गया, तो जैसे दीवार और हवा एक्सरे के लिए एक ही हो जाती हैं, ऐसे ही उस चेतना के लिए दोनों एक हो जाते हैं, कोई भेद नहीं रह जाता।
पर उसका हमें पता हो तभी। उसका हमें पता न हो तो? तो जब तक एक्सरे का कोई पता नहीं था, कोई मानने को राजी नहीं हो सकता था कि आपके पेट की अंतड़ियों की तस्वीर बाहर से ली जा सकेगी। कोई कैसे मानने को राजी होता? यह हो ही कैसे सकता है? फोटोग्राफर कहता कि पागल हो गए हैं आप! तस्वीर लेंगे तो आपकी चमड़ी की आएगी, आपके भीतर की हडियों की कैसे आएगी? वह भी किरणों का उपयोग करता है, लेकिन साधारण किरणों का उपयोग करता है। पर ऐसी किरण भी है, जो चमड़ी को पार करके हड्डी पर पहुंच जाती है। उस किरण का जब हमें पता चला, तब हमने जाना कि यह हो सकता है।
असल में, चैतन्य के भी आयाम हैं। जिस चेतना में हम जीते हैं, उसका फैलाव बिलकुल नहीं है। अपने में सिकुड़े हुए रहते हैं। कुर्सी भी अलग है, पड़ोसी भी अलग है; सब चीजें अलग हैं, हम अलग हैं। अलगाव हमारी चेतना का स्वभाव है, जैसी चेतना अभी है। और जैसे ही चेतना का रूप बदलता है-विचारों के हटते ही गुणात्मक अंतर होता है-वैसे ही चीजों में पृथकत्व गिर जाता है, बीच के फासले गिर जाते हैं। सारी चीजें एक मालूम होने लगती हैं। और प्रत्येक चीज नए ढंग से जीवंत मालूम होने लगती है।
अल्डुअस हक्सले ने पहली दफा जब एल एस डी लिया तो-भाग्य की बात कि आपके सवाल से मेल खाता है-वह जहां बैठा था, सामने ही एक कुर्सी रखी थी। और जब उसने एल एस डी लिया, तो थोड़ी देर में ही वह बहुत हैरान हो गया! कुर्सी से जैसे किरणें निकलने लगीं! कुर्सी, जो साधारण सी, मुर्दा सी कुर्सी थी, उससे किरणें निकलने लगीं। उसमें अनूठे रंग दिखाई पड़ने लगे। वह बहुत हैरान हो गया। उसने कुर्सी में ऐसे सौंदर्य और ऐसी महिमा का कभी दर्शन ही नहीं किया था। जब उसने अपनी किताब लिखी, जिसमें उसने यह वर्णन किया, तो उसने कहा, मैं चकित हो गया! उस दिन मुझे पहली दफे पता चला, हक्सले ने लिखा, कि कुर्सी ऐसी भी हो सकती है! पर वह तो, वह यह कुर्सी न थी, वह तो कोई और ही रूप था। इतने सुंदर रंग थे उसमें, कि किसी हीरे से कैसे निकलें! इतनी जीवंत थी, कि उस पर बैठा न जा सके! इतनी सुंदर थी, कि मैंने कोई सूर्य और चांद और तारे इतने सुंदर नहीं देखे!
तब अल्डुअस हक्सले ने लिखा कि उस दिन मुझे खयाल में आया...। एल एस डी से तो कुछ नहीं हुआ था, एल एस डी से तो थोड़ी सी चेतना फैलती है; वह थोड़ा कांशसनेस एक्सपैंडिंग ड्रग है। थोड़ी सी आपकी चेतना थोड़ी सी फैल जाती है, कुछ क्षणों के लिए। पर इतने से फैलाव में कुर्सी जीवंत हो गई! तो अल्डुअस हक्सले ने लिखा कि अब मैं मान सकता हूं उन लोगों को, जिन्होंने पत्थर को देख कर भगवान जैसा प्रणाम किया हो। उनकी चेतना का कोई फैलाव और रहा होगा। तो अल्डुअस हक्सले ने लिखा कि अब मैं मान सकता हूं वानगॉग जैसे चित्रकार को, जिसने कुर्सी का चित्र बनाया। क्योंकि कुर्सी का कोई चित्र किसलिए बनाए? आप सोच सकते हैं कि पेंट करने बैठे तो कुर्सी का चित्र बनाइएगा? और वानगॉग जैसा अनूठा चित्रकार कुर्सी का चित्र बनाए, महीनों मेहनत करे, पागल होगा? कुर्सी भी कोई बनाने जैसी चीज है? लेकिन हक्सले ने कहा कि तब तक मैं कभी नहीं समझ पाया था कि वानगॉग ने क्यों कुर्सी का चित्र बनाया। तब मैं समझा कि वानगॉग ने किसी और चेतना के क्षण में इस कुर्सी को देखा होगा, जिसको उसने रंगा है।
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