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जिस निर्विचार स्थिति का आपने वर्णन किया है जिसमें कांशसनेस, चेतना का अस्तित्व निष्क्रिय तो होना ही चाहिए। तो अगर कांशस माइंड पूर्ण निर्विचार व निष्क्रिय हो जाए तो इसमें और जड़ अस्तित्व में क्या फर्क होगा? जब कुछ भी करना नहीं, सिर्फ निपट होना ही लक्ष्य हो, तो ऐसी स्थिति में और मृत शांति में कोई फर्क नहीं होता? हमारे लिए चेतना के अस्तित्व का क्या प्रयोजन हो सकता है? लकड़ी की कुर्सी का अस्तित्व और निर्विचार-निष्क्रिय मानवीय अस्तित्व में क्या फर्क है, कृपया समझाएं।
नतो आपने कभी लकड़ी की कुर्सी होकर देखा, और न कभी निर्विचार मनुष्य होकर देखा। दोनों में से कोई भी आपने नहीं देखा है। लेकिन सोचते हैं हम कि दोनों में फर्क होना चाहिए; या सोचते हैं कि शायद दोनों में कोई फर्क न होगा। लकड़ी की कुर्सी कैसा अनुभव करती है, इसका आपको कोई भी पता नहीं है। अनुभव करती भी है, नहीं करती, इसका भी कोई पता नहीं है। निर्विचार मनुष्य कैसा अनुभव करता है, इसका भी कोई पता नहीं है। लेकिन प्रश्न मन में उठता है। प्रश्न बिलकुल स्वाभाविक है। हमारे सभी प्रश्न ऐसे हैं। हमारे सभी प्रश्न ऐसे हैं कि जो हमारे अनुभव के बाहर होता है, उसके संबंध में हम प्रश्न निर्मित कर लेते हैं। उनका कोई भी उत्तर परिणामकारी नहीं होगा। सिर्फ अनुभव ही परिणामकारी हो सकता है। तो पहले तो हम थोड़ा अनुभव को समझें, फिर उत्तर को भी देख लें।
जब व्यक्ति के सारे विचार शांत हो जाते हैं, तो कांशसनेस तो रहती है, सेल्फ कांशसनेस नहीं रहती। चेतना तो रहती है, लेकिन स्वचेतना नहीं रहती। लेकिन हमें बड़ी कठिनाई होगी, क्योंकि हमने सिवाय सेल्फ कांशसनेस के और कोई कांशसनेस कभी जानी नहीं है। जब हम कहते हैं, चेतन हूं मैं, तो उसका मतलब होता है, मैं हूं। हमारे चेतन होने का एक ही मतलब होता है, अपने होने का हमें पता है कि मैं हूं। हालांकि बिलकुल पता नहीं है कि कौन हूँ? क्या हूं? कुछ पता नहीं, बस मैं हूं।
यह जो हमारी स्वचेतना है, सेल्फ कांशसनेस है, यह रोग है, बीमारी है। इसी स्वचेतना के संघट का नाम अहंकार है, ईगो है। इस स्वचेतना को बढ़ाने के लिए हम हजार तरह के उपाय करते हैं। जब आप बहुत अच्छे कपड़े पहन कर निकले हैं, जैसे किसी और के पास नहीं हैं, तो होता क्या है? यह स्वचेतना मजबूत होती है। साधारण कपड़ों में सेल्फ कांशस होना मुश्किल हो जाता है। असाधारण कपड़ों में आप सेल्फ कांशस हो जाते हैं। अगर आप रथ पर बैठ कर चल रहे हैं और बाकी लोग जमीन पर चल रहे हैं, तो आप सेल्फ कांशस हो जाते हैं। आप हाथी पर बैठे हैं, बाकी लोग जमीन पर हैं, तो आप सेल्फ कांशस हो जाते हैं। आप कुछ हैं। यह जो होने का सघन भाव है, यह तो रोग है, बीमारी है। यही चिंता है, यही तनाव है, यही अशांति है।
जिस व्यक्ति के विचार शून्य हो जाएंगे, वह कांशस तो होगा, सेल्फ कांशस नहीं होगा। चैतन्य तो वह पूरा होगा, चेतना तो उसके रोएंरोएं में होगी, चेतना तो उसके चारों ओर प्रवाहित होगी; लेकिन चेतना के बीच में कोई मैं नाम का केंद्र नहीं होगा-सेंटरलेस! कोई केंद्र नहीं होगा मैं नाम का।
पर यह कठिन होगा बिना अनुभव के खयाल में आना। क्योंकि हमारा अनुभव एक ही है, वह मैं नाम का केंद्र जो है, वह घाव की तरह बीच में फड़कता रहता है। उसका ही हमें पता है। इसलिए बेहोशी में अच्छा लगता है; शराब पीकर अच्छा लगता है। क्योंकि उसमें वह जो सेल्फ कांशसनेस है, वह डूब जाती है। वह घाव थोड़ी देर के लिए भूल जाता है। रात गहरी नींद आ जाती है, तो सुबह अच्छा लगता है। क्योंकि उस रात की गहरी नींद में वह जो बीमारी थी, वह थोड़ी देर के लिए छूट जाती है। कहीं संगीत सुन लेते हैं घड़ी भर, भूल जाते हैं, अच्छा लगता है। वह जो मैं नाम की बीमारी थी, वह थोड़ी देर के लिए विसर्जित हो जाती है।
लेकिन चैतन्य को हमने नहीं जाना है कभी। हमने सिर्फ इस कनसनट्रेटेड ईगो को जाना है, इस एकाग्र हो गए अहंकार को जाना है। यह अहंकार चेतना का रोग है।
जब विचार शून्य होते हैं, शांत और निर्विचार होते हैं, तब चेतना पूरी होती है, लेकिन आप नहीं होते, मैं नहीं होता हूं। होता हूं सिर्फ।। अगर हम इस मैं हूं को दो हिस्सों में तोड़ दें, मैं को अलग कर दें, सिर्फ हूं बच जाए, तो हूं होता हूं-एमनेस। नॉट आई एम, एमनेस। मैं हूं ऐसा नहीं; हूं। इस हूं में कहीं कोई मैं का भाव नहीं होता। और चूंकि हूं में मैं का कोई भाव नहीं होता, इसलिए तू का कोई सवाल नहीं होता। इधर गिरता है मैं, उधर तू गिर जाता है।
इसलिए जब हम सेल्फ कांशस होते हैं, तो व्यक्ति होते हैं; और जब हम सिर्फ कांशसनेस होते हैं, तो समष्टि हो जाते हैं। जब होता हूं मैं, तब मैं अलग और सारा जगत अलग। मैं एक द्वीप बन जाता हूं, एक आईलैंड, अलग। और जब सिर्फ हूं, मैं खो गया, तो मैं एक महाद्वीप हो जाता हूं। सब चांदत्तारे मेरे होने के भीतर घूमने लगते हैं। सूरज मेरे भीतर उगने लगता है। फूल मेरे भीतर खिलने लगते हैं। मित्र, शत्रु, वे सब, जो कल की भाषा में जो भी थे, वे सब मेरे भीतर घटित होने लगते हैं। मैं फैल जाता हूं। इसको पुराना जो ढंग है कहने का, वह यह है कि मैं ब्रह्म हो जाता हूं। ब्रह्म का अर्थ, मैं फैल जाता हूं। मैं इतना फैल जाता हूं कि सब मेरे भीतर आ जाता है, कुछ भी मेरे बाहर नहीं रह जाता।
तो जब तक स्वचेतना है, तब तक सब बाहर और आप अलग। और जब सिर्फ चेतना रह जाती है, तो सब भीतर, सब भीतर, बाहर कुछ भी नहीं-देयर इज़ नो आउटसाइड। चैतन्य के लिए कोई बाहर का हिस्सा नहीं है, सब भीतर ही भीतर है-ओनली इनसाइडनेस।
इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज