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ताओ उपनिषाद (भाग-1) प्रवचन-22 लाओत्से सर्वाधिक सार्थक-वर्तमान विश्व-स्थिति में-(प्रवचन-बाईसवां)
प्रश्न-सार लाओत्से पर बोलने के पीछे प्रेरणा क्या है?
लाओत्से ऊर्ध्वगमन के विपरीत निम्नगमन की बात क्यों करते हैं?
अहंकार भी यदि प्राकृतिक है तो उसे हटाएं क्यों?
कोई स्त्री अब तक धर्म-प्रणेता क्यों नहीं हुई?
यदि ज्ञानी स्त्रैण-चित्त हैं तो मोहम्मद और कृष्ण युद्ध में क्यों गए?
क्या साधारण आदमी भी निरहंकार को प्राप्त हो सकता है?
प्रश्न:
एक मित्र पूछते हैं: भगवान श्री, वे क्या आशाएं व दूर-दृष्टियां हैं, जिनके कारण लाओत्से की पच्चीस सौ वर्ष पुरानी धर्मशिक्षाओं को
आज पुनर्जीवित करने की प्रेरणा आपको हुई है?
दूसरे मित्र ने पूछा है: पच्चीस सौ वर्ष पहले दी गई लाओत्से की प्रकृतिवादी, सहज, सरल जीवन में लागू होने वाली साधना-पद्धति का
उपयोग आज के जटिल और असहज हो गए व्यक्ति के लिए किन दिशाओं में उपयोगी होगा, इस पर कृपया प्रकाश डालें।
एक और मित्र ने पूछा है कि सदा ही सभी साधकों की ऊर्ध्वगमन की अभीप्सा रही है। लेकिन लाओत्से ने साधना के लिए अधोगमन के प्रतीक जल को आदर्श कहा है। और धर्म है जीवन का ऊर्ध्व विकास। इसलिए जल के प्रतीक से होने वाले आध्यात्मिक ऊर्ध्वगमन
को अधिक स्पष्ट करने की कृपा करें।
एक चौथा प्रश्न है: प्रथम दिन के प्रवचन में आपने कहा है कि मनुष्य का अहंकार एक रोग है और प्रकृति तथा संत हमारे अहंकार से घास के कुते जैसा व्यवहार करते हैं। कृपया समझाएं कि अहंकार भी तो प्रकृति का ही हिस्सा है। फिर अस्तित्व तथा संत उसके साथ
घास के कुत्ते जैसा, अस्तित्व से भिन्न जैसा व्यवहार क्यों करते हैं?
लाओत्से ने जो भी कहा है, वह पच्चीस सौ साल पुराना जरूर है, लेकिन एक अर्थों में इतना ही नया है, जैसे सुबह की ओस की बूंद नई होती है। नया इसलिए है कि उस पर अब तक प्रयोग नहीं हुआ। नया इसलिए है कि मनुष्य की आत्मा उस रास्ते पर एक कदम भी अभी नहीं चली। रास्ता बिलकुल अछूता और कुंवारा है। पुराना इसलिए है कि पच्चीस सौ साल पहले लाओत्से ने उसके संबंध में खबर दी। लेकिन नया इसलिए है कि उस खबर को अब तक सुना नहीं गया है। और आज उस खबर को सुनने की सर्वाधिक जरूरत आ गई है, जितनी कि कभी भी नहीं थी। क्योंकि मनुष्य ने पुरुष-चित्त का प्रयोग करके देख लिया है। यह पच्चीस सौ वर्ष का पिछला इतिहास पुरुष-चित्त के प्रयोग का इतिहास है-तर्क का, संघर्ष का, हिंसा का, आक्रमण का, विजय की आकांक्षा का। यह पच्चीस सौ वर्ष में हमने प्रयोग करके देखा है। आदमी रोज-रोज ज्यादा से ज्यादा दुखी हुआ है। जो हम पाना चाहते थे, वह मिला नहीं; जो हमारे पास था, वह भी खो गया है। यह पुरुष-चित्त के आधार पर हमने प्रयोग करके देख लिया, और हम असफल हो गए हैं।
लाओत्से ने जब कहा था, तब पुरुष-चित्त पर इतनी बड़ी असफलता नहीं हुई थी। इसलिए लाओत्से को सुना नहीं गया। अच्छा हो कि हम ऐसा कहें कि लाओत्से अपने समय के पच्चीस सौ वर्ष पहले पैदा हो गया। यह उसकी भूल थी। उसे आज पैदा होना चाहिए था। आज उसकी बात सुनी जा सकती थी।
ऐसा समझें कि जैसे बीमारी पैदा न हुई हो और चिकित्सक पैदा हो गया हो। और उसने औषधि की बात की हो, लेकिन किसी ने ध्यान न दिया हो! क्योंकि अभी वह बीमारी ही पैदा नहीं हुई है, जिसके लिए वह औषधि बता रहा है। लेकिन पच्चीस सौ साल में हमने वह बीमारी पैदा कर ली है, जिसकी औषधि लाओत्से है। पुरुष-चित का प्रयोग असफल हो गया। उसने लेकर हमें पहुंचा दिया है टोटल वार पर, पूर्ण युद्ध पर। और उसके आगे कोई गति दिखाई नहीं पड़ती। उसके आगे कोई मार्ग नहीं है। या तो मनुष्य-जाति समाप्त हो और या मनुष्य-जाति किसी नए मार्ग पर चलना शुरू करे। इसलिए आज लाओत्से की बात करने की सार्थकता है। आज लाओत्से चुना जा सकता है; चुनना ही पड़ेगा। अगर आदमी को बचना है, तो स्त्रैण-चित की जो खूबियां हैं, उनको स्थापित किए बिना बचने का अब कोई उपाय नहीं है।
पुरुष हार चुका यह कोशिश करके कि हम सिर्फ पुरुष के आधार पर दुनिया को निर्मित कर लें। लेकिन पुरुष से ज्यादा गहरा तत्व स्त्री है; और उसे हम काट कर जीवन को निर्मित नहीं कर पाए। हमने सारी जमीन को एक पागलखाना जरूर बना लिया है; हम उसे
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