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निश्चित ही, यह आदमी काफिर है। नास्तिक है। इससे और ज्यादा नास्तिक क्या होगा? गर्दन कटवा दी गई। बड़ी मीठी कथा है। चश्मदीद गवाह थे हजारों उस घटना के। इसलिए कथा न भी कहें, तो भी चलेगा; ऐतिहासिक तथ्य भी है। जिस दिन दिल्ली की मस्जिद के सामने सरमद का गला काटा गया, उसकी गर्दन कट कर गिरी सीढ़ी पर, लहू की धारा बही और आवाज निकली: कोई अल्लाह नहीं, सिवाय एक अल्लाह के। कटी हुई गर्दन से!
सरमद को प्रेम करने वाले कहते हैं, जब तक कोई अपनी गर्दन न कटाए, तब तक उस अल्लाह का कोई पता नहीं चलता है, जो एक है। लेकिन कुरान की भाषा को पकड़ेंगे, तो सरमद नास्तिक मालूम होगा। लेकिन सरमद ही आस्तिक है। और औरंगजेब जब मरा, तो उसके मन में जो सबसे बड़ी पीड़ा थी आखिरी मरते क्षण तक, वह सरमद को मरवा देने की थी। आखिरी जो प्रार्थना थी औरंगजेब की, वह यह थी कि मैंने कितने ही पाप किए हों, उनकी मुझे फिक्र नहीं है; लेकिन इस एक सरमद को मार कर जो मैंने किया है, यह काफी है। इससे ज्यादा और कोई पाप की जरूरत नहीं है। यह काफी पाप हो गया है। अगर यह मेरा माफ हो जाए, तो सब माफ। अगर यह मेरा माफ न हो, तो मेरे लिए कोई उपाय नहीं है।
स्वभावतः लेकिन सब आंदोलन, सब भाषाएं, सब अभिव्यक्तियां सामयिक होती हैं। वही उनकी सफलता है। वही उनकी अंत में असफलता भी बनती है। इसलिए बुद्धिमान जगत रोज-रोज समय की राख को झाड़ देता है और समय के अतीत, ट्रांसेंडेंटल जो है, कालातीत जो है, उसे उघाड़ कर निखारता चलता है। लेकिन इतनी बुद्धिमानी अनुयायियों में कभी भी नहीं होती। अन्यथा वे अनुयायी ही न होते। इतनी बुद्धिमानी जिस दिन इस जगत में होगी, उस दिन हम किसी भी बहुमूल्य पदार्थ को, किसी भी बहुमूल्य सत्य को कभी भी खोएंगे नहीं।
अंतिम बात: “और जब तक कोई सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति अपनी निम्न स्थिति के संबंध में कोई वितंडा खड़ा नहीं करता, तब तक ही वह समादृत होता है।'
यह आखिरी शर्त लाओत्से जोड़ देता है कि यह भी हो सकता है कि आप अंत में खड़े हो जाएं और फिर लोगों से कहते फिरें कि देखो, पापी तो आगे खड़े हैं और पुण्यात्मा पीछे खड़ा है! और दुष्ट तो देखो सफल हुए जा रहे हैं और सीधा-सरल आदमी हारता जा रहा है! देखो, बेईमान अखबारों में हैं और मुझ ईमानदार की कोई भी खबर नहीं! चारों तरफ ऐसे लोग हैं, चारों तरफ, जो यही कह रहे हैं कि देखो, फलां आदमी ने बेईमानी की और सफल हो गए। यह कैसा न्याय है? यह परमात्मा के जगत में यह कैसा न्याय है कि चोर सफल हो जाते हैं और हम अचोर हैं और असफल हुए जा रहे हैं!
लाओत्से कहता है, अगर कभी भी तुमने अपनी आखिरी स्थिति के संबंध में वितंडा किया, तो जानना कि तुम श्रेष्ठ व्यक्ति नहीं हो। तुम्हारा समादर उसी क्षण समाप्त हो जाएगा। तुम्हारी श्रेष्ठता इसी में है कि तुम्हें जो भी उपलब्ध हो, वह तुम्हें परम भाव से स्वीकार है, अहोभाव से स्वीकार है। अगर तुम्हें पीछे खड़े होने से असफलता मिले, तो वही तुम्हारी सफलता है; अनादर मिले, वही तुम्हारा समादर है; अपमान मिले, वही तुम्हारा सम्मान है; गालियां तुम पर बरसें, वही तुम्हारे ऊपर फूलों की वर्षा है। लेकिन तुम वितंडा खड़ा मत करना। एक जरा सा वितंडा का शब्द, और सब नष्ट हो जाता है। जरा सी शिकायत, और श्रेष्ठता खो जाती है।
असल में, श्रेष्ठ व्यक्ति कभी भी शिकायत नहीं करता-कभी भी! उसकी कोई शिकायत ही नहीं है। क्योंकि जो भी उसे मिलता है, वह उसके लिए ही परमात्मा का अनुगृहीत है।
शेष हम कल बात करेंगे। एक पांच मिनट कीर्तन में डूबें। आप में भी जिनको खड़े होने की मौज आ जाती है, वे बीच की खाली जगह में खड़े हो जाएं। बीच में भी मौज आ जाए, तो दूसरों की फिक्र छोड़ दें और नाच में सम्मिलित हो जाएं।
इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज