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इनफ अनटू इटसेल्फ! कर्म कर लिया, बात पूरी हो गई! इसलिए हम जो काम बिना किसी फल की आकांक्षा के करते हैं, उनमें हमारी कुशलता बड़ी श्रेष्ठ होती है। अगर आप शौकिया बागवानी करते हैं, तो आपकी बागवानी में जो कुशलता होगी, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। अगर आप शौकिया चित्र बनाते हैं, तो चित्र बनाने में जो आपकी लीनता होगी, वह ध्यान बन जाएगी। अगर आप शौकिया सितार बजाते हैं-व्यवसायी नहीं, प्रोफेशनल नहीं, वह आपका धंधा नहीं है, आपका आनंद है-तो सितार बजाने में आप उस कुशलता को उपलब्ध हो जाएंगे, जिसकी लाओत्से बात करता है।
इसलिए आपको अपनी हॉबी में जितना आनंद आता है, उतना अपने काम में नहीं आता। क्योंकि काम में आपका कर्ता मौजूद होता है; हॉबी में कर्ता की कोई जरूरत नहीं होती, कोई फल का सवाल नहीं होता, करना ही आनंद होता है।
"और किसी भी आंदोलन के सूत्रपात की श्रेष्ठता उसकी सामयिकता में है।'
कोई भी आंदोलन, कोई भी विचार, कोई भी संगठन, कोई भी धर्म सफल होता है सामयिक होने के कारण। टाइमलीनेस! वह अपने समय की जरूरत पूरा करता है, तो सफल होता है।
लेकिन यही उसका खतरा भी है। क्योंकि सभी आंदोलन समय से बंधे होते हैं; लेकिन समय तो बीत जाता है, आंदोलन छाती पर बैठे रह जाते हैं।
अब दुनिया में तीन सौ धर्म हैं। इनकी कोई जरूरत नहीं है, तीन सौ धर्मों की। आज एक धर्म काफी हो सकता है। लेकिन हो नहीं सकता, क्योंकि ये तीन सौ धर्म तीन सौ अलग-अलग समय में पैदा हुए। समय तो जा चुका, धर्म का ढांचा कायम है। और जो उसको पकड़े हुए हैं, वे कहते हैं कि हम इसको छोड़ेंगे नहीं। हमारे पुरखों ने...। उन्हें पता ही नहीं कि उसकी सफलता ही यही थी कि वह उस समय के उपयुक्त था। आज वही उसकी असफलता बनेगी, क्योंकि आज वह समय के उपयुक्त नहीं है। उसकी उपयुक्तता ही यही थी कि उस दिन के वह काम का था।
बुद्ध ने जो कहा है, वह पच्चीस सौ साल पुराने काम का है। अगर आज उसे ठीक वैसा ही कोई कहे चला जाए, तो उसे जीवन के तर्क का कोई पता नहीं है। महावीर ने जो कहा है, वह पच्चीस सौ साल पहले की भाषा है। वह सफल हुआ इसीलिए कि उन्होंने सामायिक भाषा का उपयोग किया।
यह लाओत्से खुद सफल नहीं हुआ; इसका आंदोलन सफल नहीं हुआ। बिकाज ही स्पोक इन दि लैंग्वेज ऑफ टाइमलेसनेस, इसलिए सफल नहीं हुआ यह आदमी; यह ऐसी भाषा बोला, जो शाश्वत है। जब कोई शाश्वत भाषा बोलेगा तो आंदोलन नहीं चला सकता। आंदोलन चलाना हो तो समय की भाषा बोलनी पड़ती है, उस समय के लिए जो समझ में आ सके। लेकिन लाओत्से जैसे लोग आंदोलन नहीं चला सकते। ठीक वह जानता जरूर है लेकिन कि आंदोलन की सफलता उसकी सामयिकता में है। और लाओत्से भलीभांति जानता है कि उसके वश के बाहर है कोई आंदोलन चलाना। वह जो बोल रहा है, वह शाश्वत है।
इसलिए एक मजे की बात है कि जो आंदोलन सफल होते हैं, वे ही अंत में आदमी के लिए गले पर गांठ बन जाते हैं। लेकिन दूसरी बात भी है, लाओत्से जैसे लोग आदमी के गले पर कभी गांठ नहीं बनते, लेकिन वे कभी सफल ही नहीं होते। लाओत्से जैसे लोग कभी आदमी को गलत जगह नहीं ले जाते, क्योंकि वे सही ले जाने के लिए भी कोई सामयिक भाषा नहीं बोलते हैं। बुद्ध और महावीर और कृष्ण और क्राइस्ट और मोहम्मद सफल हुए। उसका कारण है कि उन्होंने समय की भाषा बोली। लेकिन वही बंधन हो गया। अब चाहिए कि कोई उनकी समय की भाषा को बिखरा दे और समय की भाषा के पीछे छिपा हुआ जो कालातीत तत्व है, उसको उघाड़ कर बाहर रख दे। लेकिन वह अनुयायी मुश्किल करता है। वह कहता है, बोलो तो ठीक कुरान की पूरी आयत; उसको जरा इधर-उधर मत करना।
औरंगजेब ने एक आदमी को सूली दी, सरमद को, सिर्फ एक छोटी सी बात पर। और वह बात इतनी थी कि सरमद एक आयत को पूरा नहीं बोलता था। एक आयत है, मुसलमान जिसको निरंतर दोहराता है, और बड़ी कीमती है: कोई अल्लाह नहीं, सिवाय एक अल्लाह के। कोई अल्लाह नहीं, सिवाय एक अल्लाह के। लेकिन सरमद कहता था सिर्फ इतना ही: कोई अल्लाह नहीं। आधा ही बोलता था: कोई अल्लाह नहीं। पुरोहित परेशान हो गए, औरंगजेब को जाकर कहा। सरमद को बुलाया गया। सरमद से कहा गया कि बोलो, सुना है कि तुम कुछ गलत बातें बोलते हो। उसने कहा, गलत नहीं बोलता; जो वचन है, वही बोलता हूं। सिर्फ आधा बोलता हूं। तो क्यों आधा बोलते हो? वचन पूरा बोलो! क्योंकि पूरे का मतलब और ही है। कोई अल्लाह नहीं है, सिवाय एक अल्लाह के। इसका तो मतलब और ही हुआ कि एक ही अल्लाह है, और कोई अल्लाह नहीं। लेकिन सरमद कहता, मैं आधा ही बोलता हूं, कोई अल्लाह नहीं। इसका तो मतलब हुआ, देयर इज़ नो गॉड, कोई अल्लाह नहीं।
सरमद ने कहा, इतना ही मुझे अभी तक पता चला है; दूसरा हिस्सा मुझे पता नहीं चला। अभी तक मेरे अनुभव ने इतना ही कहा है, कोई अल्लाह नहीं। जिस दिन मुझे पता चलेगा दूसरा हिस्सा भी, कि सिवाय एक अल्लाह के, उस दिन वह भी बोलूंगा। जब तक मुझे पता नहीं, मैं नहीं बोलूंगा।
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