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वह नीचे रहा, तो निकृष्ट समझा जाएगा। वह खुद भी अपने को निकृष्ट समझेगा। ऊपर पहुंच जाए, तो दूसरे भी उसे श्रेष्ठ समझेंगे।
और दूसरों की आवाज सुन कर वह भी अपने को श्रेष्ठ समझने की व्यवस्था बना पाएगा। भीतर जो निकृष्टता का भाव है, वह ऊपर की तरफ जाने की प्रेरणा देता है। भीतर अगर श्रेष्ठता हो, तो आदमी पीछे, नीचे गड्ढे में समा जाना चाहता है। क्यों? आखिर यह गड्ढे में अनायास उतर जाने की भी बात क्यों? यह इसलिए कि वहां कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, वहां कोई संघर्ष नहीं है, वहां जाने को कोई राजी ही नहीं है।
सुना है मैंने कि एक नए आदमी ने नसरुद्दीन से उसके गांव में निवास के लिए पूछा और कहा कि मैं तुम्हारे गांव में आकर बहुत ईमानदारी से धंधा करना चाहता हूं। नसरुद्दीन ने कहा, तुम बिलकुल आ जाओ, देयर इज़ नो काम्पिटीशन। अगर ईमानदारी से धंधा करना है, तो बिलकुल आ जाओ, कोई काम्पिटीशन ही नहीं है। क्योंकि सभी धंधे वाले बेईमान हैं। तुम मजे से आ जाओ, कोई झगड़ा नहीं है। हम सभी खुश होंगे। कोई प्रतिस्पर्धा ही नहीं है।
लाओत्से कहता है कि वह जो श्रेष्ठता है आंतरिक, वह उस जगह खड़ी हो जाती है, जहां कोई संघर्ष नहीं है। और संघर्ष अंतिम स्थिति पर भर नहीं है। बाकी सब स्थितियों पर है। इसलिए श्रेष्ठता अंतिम को खोज लेती है। वह उसकी सुरक्षा का कवच है।
लाओत्से के पीछे चीन का सम्राट वर्षों तक पड़ा रहा कि वह वजीर हो जाए। उस जैसा ज्ञानी आदमी खोजना मुश्किल था। सिर्फ उसके वजीर होने की स्वीकृति से सम्राट की प्रतिष्ठा में हजार चांद जुड़ जाते। लाओत्से के पीछे उसके वजीर घूमते रहे। जहां-जहां लाओत्से को पता चले कि उसे पता लगाते लोग आ रहे हैं, वह उस गांव से विदा हो जाए। गांव में जब वजीर पहुंचें, वे पूछे, तो वे कहें कि रात ही लाओत्से यहां से चल पड़ा।
बामुश्किल लाओत्से को पकड़ पाए। एक नदी के किनारे वह बैठा था और मछलियां मार रहा था। वजीर ने हाथ-पैर जोड़े और कहा कि तुम पागल हो, तुम हमसे बचते फिर रहे हो और तुम्हें पता नहीं कि हम तुम्हें किसलिए खोज रहे हैं। सम्राट ने आदेश दिया है कि तुम्हें परम सम्मान के पद पर बिठा दिया जाए। तुम राष्ट्र के बड़े वजीर हो जाओ! लाओत्से चुपचाप बैठा रहा। उस वजीर ने समझा कि शायद उसने सुना नहीं। उसने उसे हिलाया और कहा कि हम तुमसे क्या कह रहे हैं, तुमने सुना?
पास में ही एक गड्ढे में कीचड़ में कोई लोट रहा है। लाओत्से ने कहा, देखो उस गड्ढे को, उसमें तुम्हें क्या दिखाई पड़ता है? कीचड़ है, गड्ढे में कोई हलन-चलन है। वजीर और उनके साथी गड्ढे के पास गए। देखा, एक कछुआ कीचड़ में लोटता है। उन्होंने कहा, एक कछुआ कीचड़ में लोट रहा है।
लाओत्से ने कहा, मैंने सुना है कि तुम्हारे राजमहल में एक सोने से मढ़ा हुआ कछुआ है। वह चीन का, उस समय के सम्राट का राज्यचिह्न था। और मैंने सुना है कि हर वर्ष, वर्ष के प्रथम दिन पर उसकी पूजा होती है। और लाखों रुपए खर्च होते हैं। उन्होंने कहा, तुमने ठीक सुना है।
लाओत्से ने कहा, मैं तुमसे यह पूछता हूं, अगर तुम इस कीचड़ में लोटते हुए प्राणी से कहो, कछुए से कहो कि चल, हम तुझे राजमहल में बिठा कर सोने से मढ़ कर रख देंगे और हर वर्ष तेरी पूजा होगी, तो यह राजमहल जाना पसंद करेगा? या इसी गड्ढे में कीचड़ में लोटना पसंद करेगा?
उस वजीर ने कहा कि अगर यह पागल होगा, तो राजमहल में सोने में मढ़ने को राजी होगा; क्योंकि वह मौत है। वह पूजा तो मिलेगी, लेकिन मर कर मिलेगी। सोना तो मढ़ जाएगा, लेकिन भीतर से प्राण उड़ जाएंगे। अगर इस कछुए में थोड़ी भी समझ है, तो यह अपनी कीचड़ में ही लोटना पसंद करेगा।
लाओत्से ने कहा, मुझमें कम से कम इस कछुए के बराबर समझ तो है। तुम जाओ! मेरी कीचड़ भली। सोने में मुझे मत मढ़ो। क्योंकि मढ़ कर तुम मुझे मार डालोगे।
असल में, सोने से मढ़ना और मरना एक ही बराबर है। बिना मरे कोई सोने से मढ़ा नहीं जा सकता। जितने बड़े पद पर जाना हो, उतना मुर्दा होना पड़ता है। जितने बड़े धन के ढेर पर बैठना हो, उतना मुर्दा हो जाना पड़ता है। मरे बिना ऊपर चढ़ना मुश्किल है। वह चढ़ने में ही प्राण कट जाते हैं। सब चढ़ाव आत्मघात हैं, सुसाइडल हैं।
इसलिए लाओत्से कहता है, परम श्रेष्ठता तो वह है, जो अनायास, जल के सदृश, उन स्थानों को खोज लेती है, जिन स्थानों में जाने के लिए हम कभी भी राजी न हों, जिनकी हमारे मन में बड़ी निंदा है।
"जल की महानता हितैषणा में निहित है और उस विनम्रता में, जिसके कारण वह अनायास ऐसे निम्नतम स्थान ग्रहण करता है, जिनकी हम निंदा करते हैं। इसलिए तो जल का स्वभाव ताओ के निकट है।'
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