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मैंने एक मजाक सुना है। सना है कि एडलर को मानने वाला एक बड़ा मनोवैज्ञानिक एक राजधानी में व्याख्यान करता है। वह कहता है कि जो लोग भीतर से दरिद्र होते हैं, वे लोग धन की खोज करते हैं और धनी हो जाते हैं। जो लोग भीतर से कमजोर होते हैं, भयभीत होते हैं, डरपोक होते हैं, वे अक्सर बहादुरी की खोज करते हैं और बड़े बहादुर भी हो जाते हैं। जो लोग हीन होते हैं, वे श्रेष्ठता की खोज करते हैं।
नसरुद्दीन भी उस सभा में मौजूद था। उसने खड़े होकर पूछा कि मैं यह जानना चाहता हूं, क्या वे लोग, जो मनोवैज्ञानिक हैं, मानसिक रूप से कमजोर होते हैं? दोज हू आर साइकोलॉजिस्ट्स, आर दे मेंटली इनफीरियर? जो लोग मन पर ही अपनी सारी प्रतिष्ठा को निर्भर कर देते हैं, क्या वे मानसिक रूप से कमजोर होते हैं?
इस बात की भी संभावना है। यह मजाक ही नहीं, इस बात की संभावना भी है। इस बात की संभावना है कि जो लोग दूसरों के मनों के संबंध में जानने को बहुत आतुर होते हैं, भीतर इनके मन में भी कोई पीड़ा और ग्लानि का भाव बहुत होता है। असल में, हम जो भी बाहर करने जाते हैं, उसके कारण कहीं हमारे भीतर ही होते हैं।
लाओत्से कहता है, श्रेष्ठता निजता में होती है, स्वयं में होती है, स्वभाव में होती है।
पर उस श्रेष्ठता को हम जानेंगे कैसे? उसकी पहचान क्या है? क्योंकि यह जिसको हम अब तक श्रेष्ठता कहते रहे हैं, इसकी तो पहचान है। लेकिन वह पहचान लाओत्से की दृष्टि से सिर्फ इस व्यक्ति को भीतर हीन सिद्ध करती है, श्रेष्ठ सिद्ध नहीं करती।
लाओत्से कहता है, उसकी पहचान है: “दि हाईएस्ट एक्सीलेंस इज़ लाइक दैट ऑफ वाटर!'
यह उसकी पहचान है कि वह जो परम श्रेष्ठता है, वह पानी के स्वभाव जैसी होती है।
पानी का स्वभाव यह है कि वह बिना किसी प्रयास के निम्नतम स्थान में प्रवेश कर जाता है। बिना किसी प्रयास के, अनायास ही, स्वभाव ही उसका ऐसा है कि वह नीचे की तरफ बहता है। आप पहाड़ पर छोड़ दें, थोड़े ही दिन में आप उसे घाटी में पाएंगे। इस घाटी तक पहुंचने के लिए उसे कोई सायास चेष्टा नहीं करनी पड़ती। इसके लिए वह सोचता भी नहीं, इसके लिए वह अपने को समझाता भी नहीं। इसके लिए वह साधना भी नहीं करता, तप भी नहीं करता, अपने मन को भी नहीं मारता। बस यह उसका स्वभाव है कि जहां गड्ढा हो, नीचा हो स्थान, वहीं वह प्रवेश कर जाता है। अगर उस गड्ढे से भी नीचा गढा उसे मिल जाए, तो वह तत्काल उसमें प्रवेश कर जाता है।
लाओत्से कहता है कि जो परम श्रेष्ठता है, वह जल के सदृश होती है।
श्रेष्ठतम व्यक्ति गड्ढे खोज लेता है, शिखर नहीं खोजता। क्यों? यह लक्षण बहुत अजीब मालूम पड़ता है! और इससे बेहतर लक्षण ढाई हजार साल में फिर नहीं बताया जा सका। लाओत्से ने जो लक्षण बताया है, वह परम रेखा हो गई, अल्टीमेट। उसके बाद फिर कोई लक्षण नहीं खोजा जा सका इससे बेहतर। क्या बात है?
इसे अगर हम दूसरी तरफ से देखें, तो समझ में आ जाएगा।
हीन आदमी प्रयास करता है ऊंचे स्थान की तरफ जाने का। हीन आदमी को मौका मिले ऊपर चढ़ने का, तो वह छोड़ेगा नहीं। मौका न भी मिले, तो भी जद्दोजहद करता है। उसका पूरा जीवन एक ही कोशिश में होता है: और ऊपर, और ऊपर, और ऊपर। वह आयाम कोई भी हो-धन का, यश का, पद का, ज्ञान का, त्याग का-इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, और ऊपर! वह आयाम अंत में यह भी हो सकता है कि निकृष्ट और हीन आदमी यह कहे कि मैं बिना ईश्वर को पाए तृप्त नहीं होऊंगा। जब तक मैं घोषणा न करूं अहं ब्रह्मास्मि की, तब तक मेरी तृप्ति नहीं है।
लाओत्से के हिसाब से अपने को ईश्वर की अंतिम स्थिति तक पहुंचाने की जो आकांक्षा है, वह आकांक्षा विपरीत है जल के स्वभाव के। उसे हम ऐसा समझ लें कि वह अग्नि का स्वभाव है, उदाहरण के लिए। अग्नि ऊपर की तरफ भागती है। उसे कितना ही दबाओ, वह छूटते ही ऊपर की तरफ भागती है। अग्नि नीचे की तरफ नहीं जाती। अगर हम दीए को उलटा भी कर दें, तो दीया उलटा हो जाता है, लेकिन ज्योति उलटी होकर ऊपर की तरफ भागने लगती है। बुझ जाए भला, लेकिन ज्योति नीचे की तरफ जाने को राजी नहीं होती। उसे अगर नीचे की तरफ ले जाना हो, तो बड़े प्रयास की जरूरत है। उसे बहुत दबाना पड़ेगा। अगर अहंकार को नीचे की तरफ ले जाना हो, तो बड़े प्रयास की जरूरत है। लेकिन जल नीचे की तरफ सहज जाता है। अगर उसे ऊपर की तरफ ले जाना हो, तो बड़े प्रयास की जरूरत है। कुछ पंपिंग का इंतजाम करना पड़े, मशीनें लगानी पड़ें, तब हम उसे ऊपर चढ़ा सकते हैं। फिर भी मौका पाते ही पानी नीचे भाग आएगा।
यह नीचे की तरफ जाने की बात को लाओत्से श्रेष्ठता का परम लक्षण कहता है। क्योंकि नीचे जाने को वही राजी हो सकता है, जिसकी श्रेष्ठता इतनी सुनिश्चित है कि नीचे जाने से नष्ट नहीं होती है। ऊपर वही जाने को उत्सुक होता है, जिसे पता है कि अगर
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