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ताओ उपनिषाद (भाग -1) प्रवचन- 21
जल का स्वभाव ताओ के निकट है- ( प्रवचन - इक्कीसवां )
अध्याय 8: सूत्र 1, 2 व 3
जल
1. सर्वोत्कृष्टता जल के सदृश होती है। जल की महानता पर - हितैषणा में निहित होती है,
और उस विनम्रता में होती है, जिसके कारण वह अनायास ही ऐसे निम्नतम स्थान ग्रहण करती है, जिनकी हम निंदा करते हैं। इसीलिए तो जल का स्वभाव ताओ के निकट है।
2. आवास की श्रेष्ठता स्थान की उपयुक्तता में होती है, मन की श्रेष्ठता उसकी अतल निस्तब्धता में, संसर्ग की श्रेष्ठता पुण्यात्माओं के साथ रहने में, शासन की श्रेष्ठता अमन-चैन की स्थापना में, कार्य-पद्धति की श्रेष्ठता कर्म की कुशलता में,
और किसी आंदोलन के सूत्रपात की श्रेष्ठता उसकी सामयिकता में है।
3. और जब तक कोई श्रेष्ठ व्यक्ति अपनी निम्न स्थिति के संबंध में कोई वितंडा खड़ा नहीं करता, तब तक वह समाहत होता है।
श्रेष्ठता का आवास कहां है?
साधारणतः जब भी हम सोचते हैं, कोई व्यक्ति श्रेष्ठ है, तो हम सोचते हैं उसके पद के कारण, उसके धन के कारण, उसके यश के कारण। लेकिन सदा ही हमारे कारण उस व्यक्ति के बाहर होते हैं। यदि पद छिन जाए, धन छिन जाए, यश छिन जाए, तो उस व्यक्ति की श्रेष्ठता भी छिन जाती है।
लाओत्से कहता है, जो श्रेष्ठता छिन सके, उसे हम श्रेष्ठता न कहेंगे। और जो श्रेष्ठता किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर करती हो, वह उस वस्तु की श्रेष्ठता होगी, व्यक्ति की नहीं। अगर मेरे पास धन है, इसलिए श्रेष्ठ हूं, तो वह श्रेष्ठता धन की है, मेरी नहीं। मेरे पास पद है; वह श्रेष्ठता पद की है, मेरी नहीं। मेरे पास ऐसा कुछ भी हो जिसके कारण मैं श्रेष्ठ हूं, तो वह मेरी श्रेष्ठता नहीं है। अकारण ही अगर मैं श्रेष्ठ हूं, तो ही मैं श्रेष्ठ हूं।
लाओत्से यह कहता है कि श्रेष्ठता व्यक्ति की निजता में होती है। उसकी उपलब्धियों में नहीं, उसके स्वभाव में क्या उसके पास है, इसमें नहीं; क्या वह है, इसमें। उसके पजेशंस में नहीं, उसकी संपदाओं में नहीं; स्वयं उसमें ही श्रेष्ठता निवास करती है। लेकिन इस श्रेष्ठता को नापने का हमारे पास क्या होगा उपाय? धन को हम नाप सकते हैं, कितना है। पद की ऊंचाई नापी जा सकती है। त्याग कितना किया, नापा जा सकता है। ज्ञान कितना है, प्रमाणपत्र हो सकते हैं। सम्मान कितना है, लोगों से पूछा जा सकता है। आदमी भला है या बुरा है, गवाह खोजे जा सकते हैं। लेकिन निजता की श्रेष्ठता के लिए क्या होगा प्रमाण ?
अगर कोई बाह्य कारण से व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं होता... और नहीं होता है, लाओत्से ठीक कहता है। सच तो यह है कि जो लोग भी बाहर श्रेष्ठता खोजते हैं, वे निकृष्ट लोग होते हैं। जब कोई व्यक्ति धन में अपनी श्रेष्ठता खोजता है, तो एक बात तो तय हो जाती है कि स्वयं में श्रेष्ठता उसे नहीं मिलती है। जब कोई राजनीतिक पद में खोजता है, तो एक बात तय हो जाती है कि निज की मनुष्यता में उसे श्रेष्ठता नहीं मिलती है। श्रेष्ठता जब भी कोई बाहर खोजता है, तो भीतर उसे श्रेष्ठता से विपरीत अनुभव हो रहा है, इसकी खबर देता है।
पश्चिम के एक बहुत बड़े मनस्विद एडलर ने इस सदी में ठीक लाओत्से को परिपूर्ण करने वाला, सब्स्टीटयूट करने वाला सिद्धांत पश्चिम को दिया है। और वह यह है: जो लोग भी सुपीरियर होने की चेष्टा करते हैं, वे भीतर से इनफीरियर होते हैं। जो लोग भी श्रेष्ठता की खोज करते हैं, वे भीतर से हीनता से पीड़ित होते हैं। और इसलिए एक बहुत मजे की बात घटती है कि अक्सर जिन लोगों को हीनता का भाव बहुत गहन होता है, इनफीरियारिटी कांप्लेक्स भारी होती है, वे कोई न कोई पद, कोई न कोई धन, कोई न कोई यश उपलब्ध करके ही मानते हैं। क्योंकि वे बिना सिद्ध किए नहीं मान सकते कि वे अश्रेष्ठ नहीं हैं, वे भी श्रेष्ठ हैं और उनके पास एक ही उपाय है, आपकी आंखों में जो दिखाई पड़ सके।
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