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जो सीढ़ीवादी हैं, जो ग्रेजुएल प्रोग्रेस की धारणा रखते हैं, जैसा कि आमतौर से नाम-स्मरण वाले साधक और संत हुए हैं। जैसे मीरा है या चैतन्य हैं, ये भी वहीं पहुंच जाते हैं जहां लाओत्से पहुंचता है। लेकिन वे कहते हैं, छोड़ना है जरूर, लेकिन धीरे-धीरे छोड़ना है। एकएक सीढ़ी छोड़ते चलेंगे।
तो अब जैसे नानक हुए हैं। वे सब सीढ़ी...| तो नानक कहते हैं, पहले जाप शुरू करो, नाम-स्मरण शुरू करो। और कहे चले जाते हैं कि उसका कोई नाम नहीं है; उसका कोई नाम नहीं है। वह जो अलख निरंजन है, उसका कोई नाम नहीं है; वह जो अकाल है, वह समय के बाहर है। पर नाम-स्मरण करो। पहले ओंठ से नाम-स्मरण करो-यह पहली सीढ़ी। फिर ओंठ को बंद कर लो, फिर कंठ से नाम-स्मरण करो-यह दूसरी सीढ़ी। फिर कंठ से भी छोड़ दो, फिर हृदय से स्मरण करो-यह तीसरी सीढ़ी। फिर हृदय से भी छोड़ दो, फिर अजपा जाप हो जाए। तुम मत करो, जाप को होने दो। तुम मत करो। और ऐसा हो जाता है। ओंठ से; फिर कंठ से; फिर कंठ से भी नहीं, फिर सिर्फ हृदय से; और जब हृदय से होने लगता है, तो छोड़ दो-फिर पूरे शरीर के रोएं-रोएं में, पूरे अस्तित्व में नाम गूंजने लगता है। पर यह भी मंजिल नहीं है, अभी सीढ़ी ही चल रहे हैं। फिर इसको भी छोड़ दो। फिर अजपा; अब जाप ही नहीं। पर यह चार सीढ़ियों में छोड़ा गया। अजपा आएगा, अनाम आएगा, लेकिन चार सीढ़ियों में छोड़ा गया।
लाओत्से कहता है, जिसे छोड़ना ही है, उसे इतने धीरे-धीरे क्या छोड़ना? लाओत्से कहता है कि अगर छोड़ते हो इतने धीरे-धीरे, तो इसका मतलब है, छोड़ने का तुम्हारा मन नहीं है। पकड़े रखना चाहते हो, इसलिए पोस्टपोन करते हो। कहते हो कि जरा अभी ओंठ से कर लें, फिर ओंठ का छोड़ देंगे। फिर कंठ से कर लेंगे, फिर कंठ से छोड़ देंगे। जब अजपा में ही जाना है, तो लाओत्से कहता है, अभी और यहीं! समय को खोने की जरूरत क्या है? छोड़ दो। छलांग, जंप।
लेकिन जरूरी नहीं है कि लाओत्से जैसा कहता है, वैसा सभी को सुगम हो। कभी-कभी तो छुड़ाने के लिए धीरे-धीरे ही छुड़ाना पड़ता है। लोग हैं, टाइप हैं, बड़े भिन्न-भिन्न तरह के लोग हैं।
अगर किसी को हम कहें कि छलांग के सिवा कोई रास्ता ही नहीं है, सीढ़ियों से उतरने का उपाय ही नहीं है, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह छलांग लगाएगा। अगर वह छलांग लगाने वाला नहीं है, तो सीढ़ियां भी नहीं उतरेगा, बस इतना ही होगा। वह बैठ कर ही रह जाएगा। वह कहेगा, यह बात ही अपने काम की नहीं है। पर उसके लिए भी परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग तो होना ही चाहिए। उसे कोई कहता है, सीढ़ियों से आ जाओ।
लाओत्से जो कह रहा है, वह उसके अपने टाइप की बात कह रहा है। इसे सदा ध्यान में रखना, नहीं तो मेरी बात में आपको निरंतर कठिनाई होगी। मेरा अपना, खुद का, निजी जो स्वभाव है, वह ऐसा है कि जब मैं लाओत्से पर बोल रहा हूं, तो मैं लाओत्से होकर ही बोल रहा हूं। फिर मैं भूल जाऊंगा कि कोई चैतन्य कभी हुए, कि कोई मीरा कभी हुई, कि कोई कृष्ण ने कभी कोई गीता कही। वह मेरे नहीं बीच में आएगी। वह बात खतम हो गई।
तो अच्छा होगा कि जब लाओत्से पर बोल रहा हूं, तो दूसरे सवाल बीच में मत उठाएंगे। उससे समझने में फायदा नहीं होगा, नुकसान ही पड़ेगा। जब कृष्ण पर बोलता हूं, तब पूछ लेना; तब लाओत्से को बीच में मत लाना। क्योंकि जब कृष्ण पर बोलता हूं, तो कृष्ण ही होकर बोलना है। फिर बीच में दूसरे को लाना नहीं है। और मेरा अपना कोई लगाव नहीं है; इसीलिए मैं किसी के भी साथ पूरा हो सकता हूं। मेरा अपना कोई लगाव नहीं है। अगर मेरा अपना कोई लगाव हो, तो मैं किसी के साथ पूरा नहीं हो सकता। अगर मेरा लगाव हो कि नाम-स्मरण से ही पहुंचा जा सकता है, तो फिर लाओत्से को मैं आपको न समझा पाऊंगा। अन्याय हो जाएगा।
नहीं! मैं कहता हूं, लाओत्से बिलकुल ही ठीक कहता है, एकदम ठीक कहता है। और फिर भी जब मैं चैतन्य पर बोलूंगा, तो कहूंगा कि चैतन्य बिलकुल ठीक कहते हैं। सीढ़ियों से भी पहुंचा जा सकता है। लेकिन अभी उसे मत उठाएं। क्योंकि उसे उठाने से लाओत्से को समझने में कोई सुगमता न होगी। उसे भूल जाएं, उसे बिलकुल ही भूल जाएं। लाओत्से को समझने बैठे हैं तो छलांग की बात ही पूरी समझ लें।
नहीं तो हमारा मन ऐसा करता है, जब मैं छलांग की बात समझाने बैठता हूं तब आप सीढ़ियों की बात उठाते हैं और जब मैं सीढ़ियों की बात समझाने बैठता हूं तब आप छलांग की बात उठाते हैं। आप चूकते हैं। बेईमानी है वह मन की। क्योंकि जब मैं कहता हूं, कीर्तन करो, तब आप कहते हैं कीर्तन से क्या होगा? और जब मैं कहता हूं, सब फेंक दो, नाम वगैरह जला दो, तब आप कहते हैं कि यह आप तो कह रहे थे कि कीर्तन से होगा। न आपने वह किया, न आप यह करेंगे। आप अपना बचाव खोजते चले जाएंगे।
आप से जो बन पड़े, वह कर लो। लेकिन इतना तो कर ही लो कम से कम कि जो मैं समझा रहा है, उसे पूरा का पूरा, प्रामाणिक समझ लो। उसमें दूसरे को डालो ही मत। वह सब फारेन है। जैसे लाओत्से के बीच में नाम की बात ही मत लाना। संकीर्तन, कीर्तन का सवाल ही मत उठाना। वह बिलकुल कचरा है। लाओत्से की व्यवस्था में उसका कोई भी उपयोग नहीं है। वह वैसा ही है, जैसे कि एक बैलगाड़ी के चाक को उठा कर और कार में लगाने की कोशिश में कोई लग जाए। ऐसा नहीं कि बैलगाड़ी नहीं चलती है; बैलगाड़ी बराबर चलती है। उलटा भी नहीं होगा। कार के चक्के को भी बैलगाड़ी में लगाने मत चले जाना। ऐसा नहीं कि वह नहीं चलता है; वह भी चलता है। एक सिस्टम अपने भीतर गतिमान होती है, अपने बाहर व्यर्थ हो जाती है।
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