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बनता चला जाता है। अगर एक वीणा के छेड़े गए तार के साथ आप अपने मन के तार को बिठा कर बैठ जाएं और जैसे-जैसे तार की छेड़ी हुई ध्वनि शून्य में गिरने लगे, आप भी उसके साथ उतने ही मौन में गिरने लगें, तो थोड़ी ही देर में आप पाएंगे कि ध्वनि के सहारे आप निर्ध्वनि में पहुंच गए हैं, शब्द के सहारे आप निःशब्द में पहुंच गए हैं।
इस आशा में ही लाओत्से या बुद्ध या महावीर या कृष्ण या क्राइस्ट बोलते हैं। इस आशा में ही कि शायद उनके शब्द के सहारे से आपको वे धीरे से निःशब्द में ले जा सकें। एक उपाय की भांति।
बुद्ध निरंतर कहते थे कि मैं जो भी बोलता हूं, वह उसे कहने के लिए नहीं जो है, तुम्हें वहां तक पहुंचाने के लिए। उसे कहने के लिए नहीं जो है, क्योंकि वह तो नहीं कहा जा सकता। लेकिन तुम्हें वहां तक पहुंचाया जा सकता है, जहां वह है। शायद मेरे शब्दों की आवाज सुन कर तुम उस तरफ की यात्रा पर निकल जाओ। उस आयाम में, उस दिशा में तुम्हारा मुंह फिर जाए, तो शायद किसी दिन तुम उस महागढ में, उस एबिस में गिर जाओ, उस अतल में गिर जाओ, जहां उस परम का साक्षात्कार है।
लेकिन द्वैत तो सभी की भाषा में आ जाएगा। बुद्ध संसार और निर्वाण की बात करते हैं, द्वैत हो गया। महावीर पदार्थ और आत्मा की बात करते हैं, वैत हो गया। यह तो खैर, लेकिन महावीर तो कहते हैं कि ठीक है, वैत को मैं मान कर चलता है। शंकर तो द्वैत को मान कर नहीं चलते; लेकिन माया और ब्रह्म की बात किए बिना काम नहीं चलता है। शंकर तो कहते हैं, दो नहीं हैं, फिर भी माया की बात और ब्रह्म की बात तो करनी ही पड़ती है। क्योंकि अगर दो नहीं हैं, तो शंकर लोगों से क्या कह रहे हैं फिर? किस चीज से छूटना है, अगर दो नहीं हैं? किस चीज से मुक्त होना है, अगर दो नहीं हैं? अगर ब्रह्म ही है, तो हम सब ब्रह्म हैं ही। अब जाना कहां? अब पहुंचना कहां है? अब करना क्या है? तो शंकर को भी कहीं से तो छुड़ाना पड़ता है। कुछ है जो छोड़ने जैसा है-अज्ञान है, माया है, अविद्या है। फिर दो खड़े हो जाते हैं। शंकर बड़ी मुश्किल में पड़े रहे, क्या करें?
महावीर ने इसलिए सुस्पष्ट कहा कि दो हैं, मान कर चलें। क्योंकि जब दो मिट जाएंगे, तब तुम खुद ही जान लोगे कि एक है; उसकी चर्चा हम न करें। हम दो की ही चर्चा करें, हम दो की ही चर्चा में से वहां ले चलें, जहां दोनों गिर जाते हैं। शंकर ने कहा, हम उसकी ही चर्चा करेंगे, जो एक है। लेकिन कठिनाई में पड़ गए और दो की चर्चा करनी पड़ी। जिन्होंने दो की चर्चा की है, उनको भी एक का इशारा करना पड़ा है।
बुद्ध इतना कहते हैं-संसार छोड़ो, निर्वाण पाओ। और आखिरी वचन में कहते हैं, संसार और निर्वाण एक ही है। बहुत चौंका गए। बुद्ध का यह वचन दो हजार साल तक बेचैनी का कारण रहा है बौद्ध भिक्षु और साधक के लिए। संसार ही निर्वाण है! इससे ज्यादा, इससे ज्यादा कठिन बात और क्या होगी? अगर संसार ही निर्वाण है, तो फिर जाना कहां है? फिर छोड़ना क्या है? फिर पाना क्या है? तो कुछ तो बुद्ध के पंथ हैं जो इनकार करते हैं कि यह वचन बुद्ध का न होगा। क्योंकि बुद्ध तो कहते हैं, छोड़ो संसार और पाओ निर्वाण। यह दोनों को एक वह कैसे कहेंगे? इनकार ही करते हैं कि यह वचन बद्ध का नहीं होगा।
लेकिन जो जानते हैं, वे कहते हैं, यही वचन बुद्ध का है; बाकी और छोड़े भी जा सकते हैं। जब बुद्ध ने जाना होगा, तब संसार और निर्वाण में कोई भी फर्क नहीं रह जाता है। तब शरीर और आत्मा में भेद नहीं। तब माया और ब्रह्म एक हैं। और तब बंधन और स्वतंत्रता एक ही चीज के दो रूप हैं-बंधन और स्वतंत्रता! पर यह अनुभव; अभिव्यक्ति तो तत्काल दो बन जाएगी।
अभिव्यक्ति देने के लिए लाओत्से कहता है: पृथ्वी और स्वर्ग, पदार्थ और चेतना।
प्रश्न:
भगवान श्री, कल कहा गया है कि जिसे नाम दिया जा सके, वह सनातन व अविकारी सत्य न होगा। लेकिन परम सत्य को दिए गए नाम कामचलाऊ हैं और नाम-सुमिरण की साधना से भी लोग अनाम को उपलब्ध हुए हैं। कृपया समझाएं कि विकारी नाम से यात्रा प्रारंभ करके अविकारी अनाम को उपलब्ध क्यों नहीं किया जा सकता?
लाओत्से छलांग को पसंद करता है, सीढ़ियों को नहीं। ऐसे तो सीढ़ी भी छोटी छलांग है। जब आप सीढ़ी भी चढ़ते हैं, तब भी सीढ़ी क्या चढ़ते हैं, छोटी-छोटी छलांग लेते हैं। बीस हिस्सों में बांट देते हैं। कोई आदमी बीस हिस्सों की सीढ़ी को इकट्ठी छलांग लेता है, एक छलांग में ही बीस सीढ़ियों वाले हिस्से को कूद जाता है। अगर हम कहना चाहें तो यह भी कह सकते हैं कि वह आदमी बड़ी सीढ़ी बनाता है। छलांग न कहना चाहें तो कोई अड़चन नहीं है, हम कह सकते हैं कि वह आदमी बीस सीढ़ी की एक ही सीढ़ी बनाता है। एक आदमी उसी हिस्से को बीस टुकड़ों में तोड़ कर सीढ़ी पर चढ़ता है। हम ऐसा भी कह सकते हैं कि वह आदमी बीस छलांग लेता है। आदमी-आदमी पर निर्भर है; साहस-साहस पर निर्भर है। लाओत्से छलांगवादी है। वह कहता है कि जिसे छोड़ना ही है, उसे पकड़ना ही क्यों! विकारी से निर्विकारी तक जाना है-छोड़ कर ही जाया जा सकता है। छोड़ दो और पहुंच जाओ।
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