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ताओ उपनिषाद (भाग-1) प्रवचन-19 स्त्रैण-चित्त के अन्य आयाम: श्रद्धा, स्वीकार और समर्पण-(प्रवचन-उन्नीसवां)
प्रश्न-सार अस्तित्व के स्त्रैण रहस्य पर कुछ और विस्तार से प्रकाश डालने की कृपा करें। प्रश्न: भगवान श्री, कल आपने अस्तित्व के स्त्रैण रहस्य पर चर्चा की है। इस विषय में कुछ और विस्तार से प्रकाश डालने की कृपा
करें।
अस्तित्व के सभी आयाम स्त्रैण और पुरुष में बांटे जा सकते हैं। स्त्री और पुरुष का विभाजन केवल यौन-विभाजन, सेक्स डिवीजन नहीं है। लाओत्से के हिसाब से स्त्री और पुरुष का विभाजन जीवन की डाइलेक्टिक्स है, जीवन का जो वंद्वात्मक विकास है, जो डाइलेक्टिकल एवोल्यूशन है, उसका अनिवार्य हिस्सा है। शरीर के तल पर ही नहीं, स्त्री और पुरुष मन के तल पर भी भिन्न हैं। अस्तित्व जिन-जिन अभिव्यक्तियों में प्रकट होता है, वहां-वहां स्त्री और पुरुष का भेद होगा। लेकिन जो बात ध्यान रखने जैसी है लाओत्से को समझते समय, वह यह है कि पुरुष अस्तित्व का क्षणिक रूप है और स्त्री अस्तित्व का शाश्वत रूप है। जैसे सागर में लहर उठती है। लहर का उठना क्षणिक है। लहर नहीं थी, तब भी सागर था; और लहर नहीं होगी, तब भी सागर होगा। स्त्रैणता अस्तित्व का सागर है। पुरुष का अस्तित्व क्षणिक है।
इसलिए यहूदी परंपराओं ने जो मनुष्य के विकास की कथा लिखी है, वह लाओत्से के हिसाब से बिलकुल ही गलत है। यहूदी धारणा है कि परमात्मा ने पुरुष को पहले बनाया और फिर पुरुष की ही हड्डी को निकाल कर स्त्री का निर्माण किया। लाओत्से इससे बिलकुल ही उलटा सोचता है। लाओत्से मानता है, स्त्रैण अस्तित्व प्राथमिक है। पुरुष उससे जन्मता है और उसी में खो जाता है। और लाओत्से की बात में गहराई मालूम पड़ती है।
पहली बात, स्त्री बिना पुरुष के संभव है। उसकी बेचैनी पुरुष के लिए इतनी प्रगाढ़ नहीं है। इसलिए कोई स्त्री चाहे तो जीवन भर कुंवारी रह सकती है; कुंवारापन भारी नहीं पड़ेगा। लेकिन पुरुष को कुंवारा रखना करीब-करीब असंभव जैसा है। और पुरुष को कुंवारा रखना बहुत आयोजना से हो सकता है। सरल बात नहीं है, सुगम बात नहीं है।
इधर मैं देख कर हैरान हुआ हूं। साधु मुझे मिलते हैं, तो साधुओं की आंतरिक परेशानी कामवासना है; लेकिन साध्वियां मुझे मिलती हैं, तो उनकी आंतरिक परेशानी कामवासना नहीं है। सैकड़ों साध्वियों से मिल कर मुझे हैरानी का खयाल हुआ कि जो स्त्रियां साधना के जगत में प्रवेश करती हैं, उनकी परेशानी कामवासना नहीं है। लेकिन जो पुरुष साधना के जगत में प्रवेश करते हैं, उनकी परेशानी कामवासना है। असल में, पुरुष की कामवासना इतनी सक्रिय, इतनी क्षणिक है कि प्रतिपल उसे पीड़ित करती है और परेशान करती है। स्त्री की कामवासना इतनी क्षणिक नहीं है, बहुत थिर और बहुत स्थायी है।
यह जान कर आपको आश्चर्य होगा कि सारे पशुओं की कामवासना पीरियाडिकल है, वर्ष के किन्हीं महीनों में पशुओं को कामवासना परेशान करती है; बाकी समय में पशु कामवासना को भूल जाते हैं, जैसे वह थी ही नहीं। सिर्फ मनुष्य अकेला प्राणी है, जिसकी कामवासना चौबीस घंटे और वर्ष भर मौजूद होती है। उसका कोई पीरियड नहीं होता। लेकिन अगर मनुष्य में भी हम स्त्री और पुरुष का खयाल करें, तो बहुत हैरानी होती है। स्त्री की वासना, मनुष्य में भी, पीरियाडिकल होती है। महीने के सभी दिनों में उसमें कामवासना नहीं होती। लेकिन पुरुष को सभी दिनों में होती है। अगर स्त्री पर हम छोड़ दें, तो स्त्री फिर भी पीरियाडिकल है। एक क्षण है, तब उसके मन में कामवासना होती है; बाकी उसके मन में कामवासना नहीं होती। और उस क्षण में भी, मनोवैज्ञानिक कहते हैं, अगर पुरुष स्त्री की कामवासना को न जगाए, तो स्त्री बिना कामवासना के जी सकती है। उसका अस्तित्व ज्यादा थिर है। पुरुष का अस्तित्व ज्यादा बेचैन है।
और इसलिए पुरुष, किसी गहरे अर्थ में, स्त्री के आस-पास ही घूमता रहता है। चाहे वह कितने ही प्रयास करे यह दिखलाने के कि स्त्री उसके आस-पास घूम रही है, पुरुष ही स्त्री के आस-पास घूमता रहता है। वह चाहे बचपन में अपनी मां के पास भटक रहा हो और चाहे युवावस्था में अपनी पत्नी के आस-पास भटक रहा हो; उसका भटकाव स्त्री के आस-पास है। स्त्री के बिना पुरुष एकदम अधूरा है। स्त्री में एक तरह की पूर्णता है। यह मैं उदाहरण के लिए कह रहा हूं, ताकि स्त्रैण अस्तित्व को समझा जा सके। स्त्रैण अस्तित्व बहुत पूर्ण है, सुडौल है। वर्तुल पूरा है।
लाओत्से कहता है, जितनी ज्यादा पूर्णता हो, उतनी स्थायी होती है। और जितनी ज्यादा अपूर्णता हो, उतनी अस्थायी होती है। इसलिए वह कहता है कि हम जीवन के परम रहस्य को स्त्रैण रहस्य का नाम देते हैं।
मन के संबंध में भी, जैसे शरीर के संबंध में स्त्री और पुरुष के बुनियादी भेद है, वैसे ही मन के संबंध में भी हैं। पुरुष के चिंतन का ढंग तर्क है। इसे ठीक से समझ लेना जरूरी होगा, क्योंकि लाओत्से के सारे विचार का आधार इस पर है। पुरुष के सोचने का ढंग तर्क है, उसका मेथड तर्क है। स्त्री के सोचने का ढंग तर्क नहीं है। उसके सोचने का ढंग बहुत इल्लॉजिकल है, बहुत अतार्किक है। उसे हम अंतर्दृष्टि कहें, इंटयूशन कहें, कोई और नाम दें, लेकिन स्त्री के सोचने के ढंग को तर्क नहीं कहा जा सकता। तर्क की अपनी व्यवस्था
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