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अपनी कुर्सी से टिक जाते हैं। कुर्सी से टिक कर आप यह कह रहे हैं कि ठीक, हम सो चुके, हमसे अब कुछ लेना-देना नहीं, बात समाप्त हो गई।
आदमी बाहर से भी अपने भीतर चलने वाले शब्दों की खबर देता रहता है। बाहर से भी! आपका चेहरा कहता है कि आप हां कह रहे हैं भीतर, कि न कह रहे हैं भीतर। दूकान पर सेल्समैन आपके चेहरे को देखता रहता है। अगर आप टाई खरीद रहे हैं, पच्चीस टाई
आपके सामने खड़ी हैं, तो जो सेल्समैन समझदार है वह टाई नहीं देखता-टाई तो आपको देखने देता है-वह आपका चेहरा देखता है। किस टाई पर ज्यादा देर आपकी आंख रुकती है, उसकी कीमत बढ़ जाती है। बढ़ जानी चाहिए।
आपकी आंख हर जगह ज्यादा देर नहीं रुकती। आंख के रुकने की सीमाएं हैं। अगर आप किसी आदमी को जरा ही ज्यादा देर घर कर देखें, तो झगड़ा शुरू हो जाएगा। क्योंकि इस आंख की सीमा है। जब आप सिर्फ देखते हैं, जस्ट लुकिंग, एक फिंकती हुई नजर, उसका कोई मतलब नहीं होता। लेकिन जब आप रुक कर देखते हैं, उसका मतलब होता है, पसंदगी शुरू हो गई। दूसरा आदमी बेचैन हो जाता है।
आप जब भीतर बोल रहे हैं, आपके भीतर जब यंत्र चल रहा है शब्दों का, तब बाहर भी आपके शरीर, आपकी आंख, सब तरफ से प्रकट होता रहता है। लेकिन जब आप भीतर शून्य हो जाते हैं, तो बाहर शरीर भी शून्य हो जाता है। बुद्ध की प्रतिमा देखी या महावीर की प्रतिमा देखी? यह प्रतिमा बाहर से बिलकुल शून्य है। यह बाहर से इसीलिए शून्य है कि भीतर सब शून्य हो गया है। इसमें कोई हलन-चलन नहीं है। सब ठहर गया है। जैसे पानी बिना तरंग के हो गया हो! जैसे हवा न चलती हो कमरे में और दीए की लौ ठहर जाए! ऐसे जब आप शून्य होते हैं, तब केंद्र पर पहुंचते हैं।
और लाओत्से कहता है, अपने केंद्र में स्थापित होना ही श्रेयस्कर है। शब्दों में भटकना नहीं, शून्य में ठहर जाना ही श्रेयस्कर है।
आज इतना ही। शेष हम कल। लेकिन अभी जाएंगे नहीं। एक पांच मिनट, कीर्तन शायद आपको शून्य में पहुंचा दे। शायद आपको परिधि से धका दे और अपने केंद्र पर पहुंचा दे।
इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज