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लेकिन आदमी बहुत अदभुत है। जन्म-जन्म तक शब्दों में जीता है। जस्ट प्लेन साइकोलॉजी, कि शब्द खाली हैं, समझ में नहीं आता। शब्द के भीतर कुछ भी नहीं है, समझ में नहीं आता। कोई आपसे कह देता है, नमस्कार! मन मान लेता है कि श्रद्धा मिली है।
श्रद्धा इतनी आसान चीज नहीं है, नमस्कारों से मिल जाए। अक्सर तो यह होता है कि श्रद्धा को छिपाने का ढंग है नमस्कार। कहीं चेहरे का असली भाव पता न चल जाए, आदमी हाथ जोड़ कर नमस्कार कर लेता है। या हाथ जोड़ने में वह दूसरा आदमी चूक जाता है असली आदमी को देखने से कि असली आदमी क्या सोच रहा था। मन में सोच रहा था, इस दुष्ट की शक्ल सुबह-सुबह कहां दिखाई पड़ गई! नमस्कार करने में उस आदमी को धोखा हो जाता है, नमस्कार देख कर अपने रास्ते पर चला जाता है।
आप रास्ते पर रोज निकलते हैं और एक आदमी आपको प्रीतिकर लगता है। जब भी आप कहते हैं हलो, वह भी जोर से हलो करके जवाब देता है। आज सुबह उसने जवाब नहीं दिया। पता है, आपको क्या होगा? आपका सब रुख बदल जाएगा। आपने कहा हलो, उस आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया; वह चला गया। आप उस आदमी का इतिहास फिर से लिखेंगे अपने भीतर कि अच्छा, तो एक मकान खरीद लिया तो अकड़ आ गई! यह मकान बहुत पहले खरीद चुका है। इसका आपको कभी खयाल न आया था। गाड़ी खरीद ली, तो पर लग गए! मरते वक्त कीड़ियों को पर आ जाते हैं। अब इस आदमी को आप, फिर से इसका जीवन-चरित्र आप निर्मित करेंगे। आपको उसका पुराना जीवन-चरित्र हटाना पड़ेगा। वह एक हलो कह देता, तो पुराना जीवन-चरित्र चलता, काम देता। एक छोटा सा हलो इतना फर्क लाता है! शब्द इतना मूल्यवान है आदमी को!
हम शब्द से ही जीते हैं, शब्द ही खाते हैं, शब्द में ही सोते हैं। इसको पश्चिम में लोग समझ गए हैं। तो वे कहते हैं कि चाहे उचित हो या न उचित हो, आदमी कुछ करे या न करे, तुम बैंक यू तो उसे कह ही देना। यह कोई सवाल नहीं है। हम अपने मुल्क में अभी शब्द के बाबत इतने समझदार नहीं हैं। अगर पत्नी पति के लिए चाय ले आती है, तो पति धन्यवाद या शुक्रिया नहीं करता। करना चाहिए। क्योंकि सब इतिहास बदल जाता है भीतर शुक्रिया से। बिलकुल करना चाहिए। बिना शक्कर की चाय मीठी मालूम पड़ती है शुक्रिया से। कड़वी हो जाती है, शक्कर कितनी ही पड़ी हो, शुक्रिया पीछे न हुआ एकदम कड़वी हो जाती है। सब बात ही बदल जाती
आप सोचते होंगे, पत्नी तीस साल से मेरे साथ है, इसे भी क्या शुक्रिया की जरूरत है? आप गलती में हैं, इसे ज्यादा जरूरत है। यह तीस साल में आपको इतना जान चुकी है कि इसे ज्यादा जरूरत है, हालांकि यह कहेगी कि क्या जरूरत है! नहीं, मत कहिए, शुक्रिया की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन आप इस पर भरोसा मत कर लेना। यह सिर्फ इसीलिए कहा जा रहा है कि आप दुबारा भी कहो। यह सुखद है, यह सुखद है।
शब्द हमारा जीवन बन गया है। वही कोई कह देता है, बहुत प्रेम करता हूं आपको। सब कुछ बदल जाता है भीतर! अंधेरी रात एकदम पूर्णमासी हो जाती है। किसी ने कह दिया, बहुत प्रेम करता हूं आपको! और हो सकता है, वे किसी फिल्म का डायलाग ही दोहराते हों!
क्या, शब्द के साथ हमारा इतना अंतर्संबंध क्यों है? हमारा अंतर्संबंध इसीलिए है कि हमारे पास शब्द के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हमारे पास सत्व जैसा कुछ भी नहीं है। हम बिलकुल खाली हैं। खाली लाओत्से के अर्थों में नहीं, शून्य के अर्थों में नहीं, खाली दरिद्र
और दीन के अर्थों में। खाली उस अखंड शक्ति के अर्थों में नहीं, खाली उस अर्थों में, जिनके हाथ में कुछ भी नहीं है, शून्य भी जिनके हाथ में नहीं है। इस तरह हम खाली हैं, शब्द से ही जीते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक सड़क पर गिर पड़ा है। धूप है तेज। भीड़ इकट्ठी हो गई। नसरुद्दीन दम साधे पड़ा है। किसी ने कहा कि भागो, दौड़ो, एक प्याली अगर शराब मिल जाए तो काम हो जाए। नसरुद्दीन ने एक आंख खोली और कहा, एक प्याली! कम से कम दो प्याली तो कर दो। पर लोगों ने कहा, मत जाओ, कोई जरूरत नहीं, नसरुद्दीन होश में आ गया है। शराब शब्द ने ही काम कर दिया है, शराब नहीं लानी पड़ी।
नसरुद्दीन को अनुभव था यह। फर्स्ट एड की ट्रेनिंग ले रहा था। तो जब ट्रेनिंग उसकी पूरी हो गई तो उसके शिक्षक ने पूछा कि अगर रास्ते पर कोई अचानक गिर जाए तो तुम क्या करोगे? तो उसने कहा, एक प्याली शराब बुलाऊंगा। लेकिन उस अधिकारी ने पूछा कि अगर शराब न मिल सके, तो तुम क्या करोगे? तो उसने कहा, मैं कान में, आई विल प्रामिस, उसके कान में प्रामिस करूंगा कि पीछे पिलाऊंगा, फिलहाल उठ आ। क्योंकि ऐसा एक दफे मेरे साथ हो चुका है। सिर्फ शब्द सुन कर मुझे होश आ गया था।
शब्द से हम जी रहे हैं। इन शब्दों को कहता है लाओत्से कि केवल हमारी बुद्धि क्षीण होती है। यद्यपि लाओत्से को भी कहना पड़ता है, तो शब्दों से ही कहना पड़ता है। लाओत्से भी बोलता है, तो शब्द से ही बोलता है। इससे एक बड़ी भांति होती है। वह भ्रांति यह होती है कि लाओत्से भी तो शब्द से ही बोलता है और शब्द के खिलाफ बोलता है।
निश्चित ही, अगर हमें दूसरे से कुछ कहना है, तो शब्द का उपयोग है। लेकिन हम इतने पागल हो गए हैं कि हमें अपने से भी कुछ कहना है, तो भी हम शब्द का ही उपयोग करते हैं। अपने से कहने के लिए तो शब्द की कोई भी जरूरत नहीं है। हम भीतर अपने से ही बोलते रहते हैं। चौबीस घंटे आदमी बोल रहा है। जब दूसरे से बोल रहा है, तब तो बोल ही रहा है; जब किसी से नहीं बोल रहा है, तो अपने से ही बोल रहा है। अपने को ही बांट कर बोलता रहता है। यह चौबीस घंटे बोलना भीतर जंग पैदा कर देता है। और चौबीस
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