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लेकिन शब्द ही तो हमारी बुद्धि है। शब्द का जोड़ ही तो हमारी संपत्ति है। पश्चिम में तो हर चीज स्टैटिस्टिक्स हो गई है। तो पश्चिम के अंकविद कहते हैं कि जितना बड़ा सफल आदमी है, उसके पास उतनी ही शब्द की संपदा होती है। वे कहते हैं कि आदमी के पास कितनी शब्द की संपदा है, उससे हम पता लगा सकते हैं कि जीवन में उसने सफलता के कितने सोपान पार किए होंगे। वह कितनी पायरियां सफलता की चढ़ गया होगा, उसके शब्द की सामर्थ्य पर तय होता है।
वे ठीक कहते हैं एक लिहाज से राजनीतिज्ञ की सामर्थ्य क्या है? राजनीतिज्ञ की सामर्थ्य है कि वह कुछ शब्दों से खेल सकता है। धर्मगुरु की सामर्थ्य क्या है? कि वह कुछ और शब्दों से खेल सकता है। साहित्यकार की सामर्थ्य क्या है? कि वह कुछ और शब्दों से खेल सकता है। हम जिन्हें सफल कहते हैं, वे कौन लोग हैं? राजनीतिज्ञ हैं, धर्मगुरु हैं, साहित्यकार हैं। कौन लोग हैं? शब्द ! शब्द पर जो जितना ज्यादा बाहुल्य, शक्ति रखता है, वह हमारी दुनिया में उतना सफल हो जाता है। इसलिए हम शब्द को सिखाने के लिए पागल होते हैं। और हमारी सारी शिक्षा शब्द को सिखाने की शिक्षा है। जितना ज्यादा शब्द आ जाए आदमी को, उतनी आशा है कि वह सफलता पा लेगा ।
लेकिन लाओत्से कहता है, शब्द- बाहुल्य बुद्धि को क्षीण करता है। जितने शब्द भीतर बढ़ जाते हैं, उतनी ज्यादा बुद्धि कमजोर हो जाती है।
उलटी बात कहता है। हमारी सारी चेष्टा यही होती है कि शब्द कैसे बढ़ जाएं। एक भाषा आदमी जानता हो, तो दूसरी सीखता है, तीसरी सीखता है, चौथी सीखता है। हम बड़ी प्रशंसा में कहते हैं कि फलां आदमी दस भाषाएं जानता है। एक आदमी पंडित है, हम कहते हैं, उसे वेद कंठस्थ हैं, उपनिषद मुखाग्र हैं, गीता पूरी दोहरा सकता है। क्यों? शब्द की संपत्ति है उसके पास ।
लेकिन शब्द का कोई मूल्य है बड़ा? शब्द का कोई अर्थ है बड़ा? शब्द में कुछ सब्सटेंस है, शब्द में कुछ सार है? इतना ही सार है, जैसे प्यास लगी हो और शब्द पानी से कोई प्यास को बुझाने की कोशिश करे। इतना ही सार है कि भूख लगी हो और शब्द भोजन से कोई पेट को भरने की कोशिश करे। इतना सार है। थोड़ी-बहुत देर अपने को भुलावा लेकिन दिया जा सकता है। अगर आपको प्यास लगी है और मैं इतना भी कहूं कि बैठिए पानी आता है, तो थोड़ी सी प्यास को राहत मिलती है। ऐसा नहीं कि नहीं मिलती। पानी का भरोसा भी काफी राहत लाता है। भूख लगी है। मकान के भीतर किचन में बर्तनों की आवाज आने लगती है, तो भी पेट को कुछ सहारा मिलता है। रात सपने में भूख लगी है, तो सपने में भोजन कर लेता है आदमी तो कम से कम नींद नहीं टूटती । सुबह तक गुजर जाता है समय ।
शब्द सहारे देते हैं। धोखा भी देते हैं। अगर यहां जोर से अभी कोई आवाज लगा दे कि आग लग गई, तो हम पर परिणाम वही होगा, जो आग लगने पर होता है। शब्द ! जल नहीं सकेंगे; भाग सकेंगे, दौड़ सकेंगे। गिर सकते हैं, चोट खा सकते हैं। आग लग गई है, इस शब्द का वही परिणाम होगा, जो आग लग गई होती तो होता-भागने, दौड़ने, चिल्लाने चीखने में जल नहीं सकेंगे, क्योंकि शब्द आग आग नहीं है। लेकिन एक बात तय है कि आदमी पर शब्द का प्रभाव भारी है। और अगर दस-पांच दफे इस तरह चिल्लाया जाए कि आग लग गई, आग लग गई, और फिर आग लग जाए और कोई चिल्लाए आग लग गई, तो हम पर फिर असर नहीं होगा।
एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक बहुत धन कमा लिया, तो सोचा उसने कि अब विश्राम करें। तो एक छोटे गांव में उसने जमीन ले ली - शौकिया। खेती-बाड़ी करके कुछ कमाने का सवाल न था । कमाई पूरी हो चुकी थी। जरूरत से ज्यादा हो चुकी थी। इस समय सबसे बड़ी कमाई उनकी ही हो सकती है, जो लोगों के पागलपन को राहत देते हैं। क्योंकि जमीन पर आज सर्वाधिक पागल लोग हैं। इस वक्त सबसे बड़ी कमाई की जो संभावना है, वह हीरे की खदानों में नहीं है, आदमी की खोपड़ी में है। आदमी पागल हुआ जा रहा है। और मनोवैज्ञानिक कुछ पागलों को ठीक कर पाते हों, ऐसा प्रमाण अब तक मिला नहीं। हां, इतना हो पाता है कि पागल को आश्वस्त कर पाते हैं। अगर दो साल किसी साइकियाट्रिस्ट के पास कोई पागल जाए, तो ऐसा नहीं कि दो साल बाद वह ठीक हो जाता है, बल्कि ऐसा कि दो साल बाद वह कहने लगता है, यह पागलपन स्वाभाविक है।
काफी धन कमा लिया था। अब कमाने की कोई जरूरत न थी। फसल बोने का मौका आ गया था। जमीन लेकर उसने फसल बोनी शुरू की। खड़े होकर जमीन पर उसने जमीन खुदवा डाली, बक्खर चलवा दिए, दाने फेंके। लेकिन सारे गांव के कौवे आकर उसके खेत के दाने चुनने लगे। एक दिन दाने फेंके, कौवे चुन गए। दूसरे दिन दाने फेंके, कौवे चुन गए। तीसरे दिन दाने फेंके...। फिर उस मनोवैज्ञानिक को संकोच भी लगा, किसी से पूछे; संकोच भी लगा, साधारण बुद्धिहीन किसान, उनसे पूछे कि क्या है राज! कोई उपाय न देख कर पड़ोस के एक किसान से, जो रोज उसको देखता था और हंसता था, उसने पूछा कि बात क्या है?
वह किसान आया। उसने दाने फेंकने का इशारा किया। जैसे दाने फेंके, ऐसे उसने हाथ घुमाए; लेकिन फेंका कुछ नहीं। कौवे आए, बड़े नाराज हुए। चीखे-चिल्लाए, वापस उड़ गए। दूसरे दिन उसने फिर मुद्रा की दाने फेंकने की। कौवे फिर आए, आज थोड़े कम आए । नाराज हुए, आज थोड़े कम नाराज हुए। चले गए। तीसरे दिन उसने फिर वही किया। चौथे दिन उसने दाने फेंके। कौवे नहीं आए। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, अदभुत! राज क्या है? उस किसान ने कहा, जस्ट प्लेन साइकोलॉजी । एवर हर्ड ? छोटा सा मनोविज्ञान । कभी सुना है नाम मनोविज्ञान का? खाली हाथ तीन दिन, कौवे भी समझ गए कि खाली हाथ है।
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