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ताओ उपनिषाद (भाग -1) प्रवचन--16
निष्पक्ष हैं तीनों स्वर्ग, पृथ्वी और संत-(प्रवचन- सौहलवां )
अध्याय 5: सूत्र 1 प्रकृति
स्वर्ग और पृथ्वी को सदय होने की कामना उत्प्रेरित नहीं करती;
वे सभी प्राणियों के साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं, जैसे कोई घास निर्मित कुत्तों से व्यवहार करता है।
तत्वविद (संत) भी सदय नहीं होते।
वे सभी मनुष्यों के साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं, जैसा घास निर्मित कुत्तों से किया जाता है।
पृथ्वी पर जितने जानने वाले लोग हुए हैं, उन सब में लाओत्से बहुत अद्वितीय है।
कृष्ण की गीता में कोई साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी कुछ जोड़ना चाहे तो जोड़ सकता है। महावीर के वचनों में या बुद्ध और क्राइस्ट के वक्तव्यों में कुछ भी मिश्रित किया जा सकता है। और पता लगाना बहुत कठिन होगा। क्योंकि उनके वक्तव्य ऐसे हैं कि साधारण मनुष्य की नीति और समझ के प्रतिकूल नहीं पड़ते। और इसलिए दुनिया के सभी शास्त्र प्रक्षिप्त हो जाते हैं; इंटरपोलेशन हो
उन शास्त्रों को शुद्ध रखना असंभव है।
जाता है। दूसरी पीढ़ियां उनमें बहुत कुछ जोड़ देती हैं। लेकिन लाओत्से की किताब जमीन पर बचने वाली उन थोड़ी सी किताबों में से एक है, जो पूरी तरह शुद्ध है। इसमें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता। न जोड़ने का कारण यह है कि जो लाओत्से कहता है, लाओत्से की हैसियत का व्यक्ति ही उसमें कुछ जोड़ सकता है। क्योंकि लाओत्से जो कहता है, वह साधारण समझ से इतनी प्रतिकूल बातें हैं, सो मच अपोज्ड टु दि कामन सेंस, कि साधारण आदमी उसमें कुछ भी जोड़ नहीं सकता। किसी को कुछ जोड़ना हो, तो लाओत्से होना पड़े। और लाओत्से होकर जोड़ने में फिर कोई हर्ज नहीं है।
यह वक्तव्य भी ऐसा ही वक्तव्य है। यह आपने कभी भी न सुना होगा कि संत दयावान नहीं होते हैं। संतों के संबंध में जो भी आपने सुना होगा, जरूर ही जाना होगा कि वे परम दयालु होते हैं। और लाओत्से कहता है कि संत सदय नहीं होते। इस वक्तव्य में जोड़ना बहुत मुश्किल है। लाओत्से कहता है कि जैसे घास निर्मित कुत्तों के साथ हम व्यवहार करते हैं, संत ऐसा ही व्यवहार हमारे साथ करते हैं। बहुत अजीब सी बात मालूम पड़ती है; इसलिए समझने जैसी भी है। और लाओत्से जितनी भलीभांति संतों को जानता है, शायद ही कोई और जानता हो। असल में, हम संतों के संबंध में जो कहते हैं, वह हमारी समझ है। और लाओत्से जो संतों के संबंध में कह रहा है, वह संतों की समझ है।
इस सूत्र को शुरू से समझें।
“स्वर्ग और पृथ्वी को सदय होने की कामना उत्प्रेरित नहीं करती । '
प्रकृति बिलकुल ही दया-शून्य है। चाहे वह प्रकृति पृथ्वी पर प्रकट होती हो और चाहे स्वर्ग-आकाश में, चाहे वह शरीर के तल पर प्रकट होती हो और चाहे आत्मा के तल पर, प्रकृति सदय नहीं है। इसका यह अर्थ आप न लेना कि प्रकृति कठोर है। साधारणतः ऐसा ही समझ में आएगा कि जो दयावान नहीं है, वह क्रूर होगा, कठोर होगा।
नहीं, जो कठोर हो सकता है, वह दयावान भी हो सकता है। जो दयावान होता है, वह कठोर भी हो सकता है। लेकिन प्रकृति दोनों नहीं है। न तो वह किसी पर दया करती है और न किसी पर कठोर होती है। असल में, प्रकृति आपकी चिंता ही नहीं लेती। आप हैं भी, आपका अस्तित्व भी है, प्रकृति को इससे भी प्रयोजन नहीं है। कल आप नहीं होंगे, तो आकाश रोएगा नहीं और पृथ्वी आंसू नहीं गिराएगी। और कल आप नहीं थे, तो पृथ्वी को आपके न होने का कोई पता नहीं था । और आज आप हैं, तो प्रकृति को आपके होने का कोई पता नहीं है।
आपके होने और न होने से कोई भी फर्क नहीं पड़ता है। वर्षा इसी तरह होती रहेगी, सूरज इसी तरह निकलता रहेगा, फूल ऐसे ही खिलेंगे। जिस दिन आप मरे होंगे, उस दिन भी फूल ऐसे ही खिलेंगे, जैसे वे सदा खिलते रहे हैं। चांद ऐसे ही निकलेगा और उसकी चांदनी की शीतलता में जरा भी कमी न होगी। और आकाश में दौड़ती हुई बदलियां वैसी ही दौड़ती रहेंगी; उनकी उत्फुल्लता में कोई अंतर न पड़ेगा। आपका होना और न होना इररेलेवेंट है, असंगत है। प्रकृति को पता ही नहीं कि आप हैं।
लेकिन हम ऐसी प्रकृति को नहीं जानते। हम तो जिस प्रकृति को जानते हैं, वह भी हमारा खयाल है। अगर मैं दुखी हूं, तो चांदनी मुझे उदास मालूम पड़ने लगती है। चांदनी उदास नहीं होती; क्योंकि उसी रात में कोई अपने प्रेमी को मिल गया होगा और गीत गा रहा होगा। वही चांदनी किसी के लिए आनंद होगी और वही चांदनी मेरे लिए उदास है। हो सकता है, दीवार के इस तरफ चांदनी में मुझे आंसू मालूम पड़ते हैं और दीवार के ठीक उस पार चांदनी में फूल खिलते हों।
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