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लेकिन चांदनी में न फूल खिलते हैं और न चांदनी उदास होती है। चांदनी को न मेरा पता है, न किसी और का पता है। हम न भी होते, तो भी चांदनी ऐसी ही होती। हम नहीं होंगे, तब भी ऐसी ही होगी।
जब लाओत्से कहता है कि प्रकृति सदय नहीं है, तो वह यह कह रहा है कि व्यर्थ दया की भीख मांगने मत जाना। न जमीन पर दया मिल सकती है और न आकाश में। हाथ मत जोड़ना किसी मंदिर और मस्जिद के सामने। किसी परमात्मा की प्रार्थना इसलिए मत करना कि प्रार्थना से कुछ भेद पड़ जाएगा। नहीं, प्रशंसा से कोई भेद न पड़ेगा परमात्मा की तरफ से; स्तुति कुछ फर्क न ला सकेगी, क्योंकि गालियां भी कोई अंतर नहीं लाती हैं। स्तुति वहीं सार्थक होती है, जहां गालियां भी सार्थक हो सकती हैं। अगर परमात्मा को दी गई मेरी गाली बेचैन करती हो, तो मेरी स्तुति भी सार्थक हो सकती है। और परमात्मा, अगर मैं प्रार्थना न करूं, और नाराज और कठोर हो जाए, तो मेरी स्तुति उसे पिघला सकती है, परसुएड कर सकती है, फुसला सकती है और राजी कर सकती है। अगर परमात्मा को मैं दयावान होने के लिए राजी कर सकता हूं, तो फिर परमात्मा को कठोर होने के लिए भी राजी किया जा सकता है। उस हालत में परमात्मा परमात्मा नहीं रह जाता, हमारे हाथ की कठपुतली हो जाता है।
लाओत्से कहता है, उलटी है बात; हम उसके हाथ की कठपुतलियां हैं, वह हमारे हाथ की कठपुतली नहीं है। अगर वह सदय हो, तो हम उसके साथ भी खेल कर सकते हैं। इसलिए लाओत्से कहता है, प्रकृति सदय नहीं है। कठोर है, ऐसा नहीं कहता। कठोर से कठोर आदमी भी दयावान होता है। कितना ही कठोर आदमी हो, चाहे वह तैमूर हो, चाहे वह चंगेज हो, चाहे वह हिटलर हो, कठोर से कठोर आदमी भी दयावान होता है। उसके हृदय के भी कमजोर कोने होते हैं। किसी को वह प्यार भी करता है और किसी की पीड़ा से दुखी भी होता है। मात्रा के फर्क होंगे। कठोर आदमी की दया की सीमा छोटी होगी, कठोरता की ज्यादा होगी। और दयावान आदमी की दया की सीमा बड़ी होगी और कठोरता की छोटी होगी। लेकिन दयावान से दयावान आदमी भी कठोर होता है। उसकी भी कठोरता की सीमा होती है। इसलिए बड़े से बड़े दयालु आदमी के पास जाकर भी आप पाएंगे कि कुछ हिस्सा बहुत कठोर है; कहीं, कहीं पत्थर भी है हृदय में!
यह अनिवार्य है। क्योंकि इस जीवन में जो भी हम जानते हैं, वह वंद्व है, डुएल है, दोहरे में बंटा हुआ है। जो आदमी प्रेम करेगा, वह घृणा भी करेगा ही। और जो आदमी क्रोध करेगा, वह क्षमा भी करेगा ही। और जैसे सुबह होती है और सांझ होती है, ठीक ऐसे ही आदमी के मन पर वंद्व का आना और जाना होता है।
लाओत्से कहता है, प्रकृति निर्दवंद्व है। लाओत्से यह कहता है कि वहां एक-रस नियम है। उस एक-रस नियम में कोई फर्क नहीं पड़ सकता। न तो वह दया करेगा, और न वह कठोर होगा। न तो वह बुरे के लिए गर्दन काट देगा और न भले के लिए सिंहासन का इंतजाम करेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि जो भी हम करते हैं और जो भी हम पाते हैं, वह अपना ही किया हुआ और अपना ही पाया हुआ है। उसमें प्रकृति कोई हाथ नहीं बंटाती।
अगर मेरे पैर में कांटे गड़ जाते हैं, तो इसलिए नहीं कि प्रकृति मेरे पैर में कांटे गड़ाने को उत्सुक है; बल्कि इसलिए कि मैं उन रास्तों पर चलने के लिए उत्सुक हूं, जहां कांटे हैं। और अगर मेरे सिर पर फूलों की वर्षा हो जाती है, तो इसलिए नहीं कि आकाश के देवता मेरे ऊपर फूल बरसाने को आतुर हैं, बल्कि सिर्फ इसलिए कि मैं उन वृक्षों की खोज कर लिया हूं, जिनके नीचे बैठने से फूल बरस जाते हैं। यह संयोग है। यह मेरी ही खोज है, चाहे वह कांटे की हो और चाहे फूल की, और चाहे मुझे गालियां मिलें और चाहे मुझे प्रेम मिले, और चाहे मैं नर्क में सडूं और चाहे स्वर्ग का संगीत मेरे चारों ओर गूंजने लगे, यह मेरी ही खोज है।
लेकिन प्रकृति निरपेक्ष है। नहीं, प्रकृति जरा भी उत्सुक नहीं है। होनी भी नहीं चाहिए; क्योंकि अगर प्रकृति इसमें उत्सुक हो, तो अव्यवस्था हो जाए।
लाओत्से कहता है, यही प्रकृति की व्यवस्था है कि वह आप में बिलकुल उत्सुक नहीं है। आप में उत्सुकता हो, तो आप प्रकृति के नियमों का दुरुपयोग शुरू कर दें। आप में उत्सुकता हो, तो आप प्रकृति को आदमी के हाथ के भीतर रख दें।
लेकिन प्रकृति आप में उत्सुक नहीं है; इसलिए सदा आपके हाथ के बाहर है। और कभी अगर आपकी प्रार्थनाएं पूरी हो जाती हैं, तो इसलिए नहीं कि किसी ने उन्हें सुना, बल्कि इसलिए कि आपने उन प्रार्थनाओं को पूरा करने के लिए कुछ और भी किया। अगर आपकी प्रार्थनाएं पूरी नहीं होती, तो इसलिए नहीं कि परमात्मा नाराज है, बल्कि इसलिए कि आप बिलकुल कोरी प्रार्थनाएं कर रहे हैं और उनके पीछे कुछ भी नहीं है। अगर प्रार्थनाओं से बल भी आता है, तो आप में ही आता है और आपका ही आता है। अगर मंदिर के सामने हाथ जोड़ कर आपने प्रार्थना की है और लौटते वक्त पाया है कि प्राणों में ताकत ज्यादा है, संकल्प ज्यादा सजग है, पैर ज्यादा मजबूत हैं, तो यह कहीं और से आ गई ताकत नहीं है; यह मंदिर के सामने खड़े होकर प्रार्थना करने के खयाल का परिणाम है। यह आपका अपना है। और ऐसे मंदिर के बाहर भी हो सकता है, जहां मंदिर में कुछ भी न हो।
और इसलिए कई बार ऐसा हो जाता है कि पत्थर भी आपकी प्रार्थनाओं को पूरा करने में सफल हो जाते हैं। और कई बार ऐसा हो जाता है कि बुद्ध और महावीर और लाओत्से की हैसियत का आदमी सामने खड़ा हो और आपकी प्रार्थना अधूरी की अधूरी रह जाती
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