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फैलती तो होंगी, लेकिन रुकती न होंगी। तब आपको ऐसा न लगेगा कि कोई आपके पड़ोस में बैठा है। क्योंकि ऐसा लगने के लिए भाषा जरूरी है। तब कोई पड़ोसी है, ऐसा भी न लगेगा। क्योंकि ऐसा लगने के लिए भाषा जरूरी है। तब कोई मित्र है, ऐसा भी नहीं लगेगा; कोई शत्रु है, ऐसा भी नहीं लगेगा। तब तो एक विराट अस्तित्व रह जाएगा।
उस अस्तित्व में दो प्रतीतियां प्रतीतियां, नाम नहीं - उस अस्तित्व में दो प्रतीतियां रहेंगी, जिनको लाओत्से कहता है: हेवन एंड अर्थ, स्वर्ग और पृथ्वी। या ज्यादा आज की भाषा में होगा कहना ठीकः पदार्थ और चैतन्य । दो विस्तार रह जाएंगे पदार्थ का और चैतन्य का। यह प्रतीति होगी, यह भी नाम नहीं होगा। यह प्रतीति होगी। शेष सारे नाम वस्तुओं के हैं। वस्तु पदार्थ भी हो सकती है, वस्तु
व्यक्ति भी हो सकता है। अगर हम व्यक्ति को नाम देंगे, तो वह भी वस्तु हो जाता है। अगर हम पदार्थ को नाम देंगे, तो वह भी वस्तु हो जाता है। अगर मैंने कहा यह कुर्सी, तो वह भी वस्तु हो गई। और मैंने कहा पत्नी, पति, बेटा, वे भी वस्तु हो गए। बेटे को भी पजेस किया जा सकता है, कुर्सी को भी पजेस किया जा सकता है। बेटे की भी मालकियत हो सकती है, कुर्सी की भी मालकियत हो सकती है।
लेकिन जीवन की कोई मालकियत नहीं हो सकती। और न पदार्थ की कोई मालकियत हो सकती है। क्योंकि आपको पता नहीं कि जब आप नहीं थे, तब भी यह कुर्सी थी; और आप जब नहीं होंगे, तब भी यह होगी और आप जिसको कह रहे हैं मेरा बेटा, कल उसकी श्वास बंद हो जाएगी, तो आप उसको मरघट में जाकर जला आएंगे और जब उसकी श्वास बंद हो रही होगी, तब आप आकाश से यह
कह सकेंगे कि मेरा बेटा, मेरी बिना आज्ञा के उसकी श्वास कैसे बंद हो रही है? तब आप अपने बेटे से यह न कह सकेंगे कि तू बड़ा अनुशासनहीन है, उच्छृंखल है, मुझसे पूछा भी नहीं और तूने श्वास बंद कर ली। मरते वक्त मुझसे तो पूछ लेना था। मैं तेरा बाप हूं! मैंने तुझे जन्म दिया है!
लेकिन मरते वक्त न बेटा पूछ सकेगा, न बाप की आज्ञा की जरूरत पड़ेगी । अस्तित्व किसी की मालकियत नहीं मानता। जन्म के समय भी आपको भ्रम ही हुआ है कि आपने जन्म दिया है। अस्तित्व किसी की मालकियत नहीं मानता, न वस्तुएं किसी की मालकियत मानती हैं। लेकिन नाम के साथ मालकियत पैदा होती है; और नाम के साथ वस्तु बनती है। वस्तु का दूसरा छोर है मालकियत। जहां भी मालकियत है, वहां वस्तु होगी। वह व्यक्ति की है कि पदार्थ की है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जहां किसी ने कहा, मेरा! वहां मालकियत खड़ी हो जाएगी; वहीं चीजें अस्तित्व को खो देंगी और वस्तुएं बन जाएंगी। हम रहते हैं वस्तुओं से घिरे हुए। इन सारी वस्तुओं का जन्मदाता, लाओत्से कहता है, नाम देने की प्रक्रिया है - दि नेमिंग! यह जो हम नाम दिए चले जाते हैं, यही।
मैं सदा लाओत्से के संबंध में कहता रहा हूं। एक मित्र के साथ लाओत्से सुबह घूमने निकलता है। वर्षों से साथी है। मित्र जानता है कि लाओत्से सदा चुप रहता है। तो मित्र के घर कोई मेहमान आया है और वह उसको भी घुमाने ले आया है। रास्ते में उस मेहमान ने बड़ी परेशानी अनुभव की है। वह बहुत रेस्टलेस हो गया है। क्योंकि न लाओत्से बोलता है, न उसका मेजबान बोलता है। वह मित्र बहुत परेशान हो गया। आखिर उसके वश के बाहर हो गया, तो उसने कहा कि सुबह बहुत सुंदर है, देखते हैं! लेकिन न मित्र ने देखा न जवाब दिया, न लाओत्से ने देखा न जवाब दिया। तब और बेचैनी उसकी बढ़ गई। इससे तो चुप ही रहता तो अच्छा था।
लौट आए। लौटने के बाद लाओत्से ने मित्र के कान में कहा कि अपने साथी को दुबारा मत लाना, बहुत बातूनी मालूम पड़ता है-टू मच टाकेटिव। मित्र भी थोड़ा दंग हुआ, क्योंकि इतनी ज्यादा बात तो नहीं की थी। कोई डेढ़ घंटे की अवधि में एक ही तो बात बोला था वह कि सुबह बड़ी सुंदर है।
सांझ को मित्र आया और लाओत्से से कहा, क्षमा करना, उसे तो रोक दिया। लेकिन मैं भी बेचैन रहा हूं। ऐसी ज्यादा बात तो नहीं की थी। इतना ही कहा था कि सुबह बड़ी सुंदर है। लाओत्से ने कहा, दिया नाम कि चीजें नष्ट हो जाती हैं। सुबह बड़ी सुंदर थी, जब तक वह तुम्हारा साथी नहीं बोला था।
कठिन पड़ेगा समझना। लाओत्से कहता है, सुबह बड़ी सुंदर थी, जब तक तुम्हारा साथी नहीं बोला था। तब तक उस सौंदर्य में कोई सीमा न थी। तब तक वह सौंदर्य कहीं समाप्त होता हुआ मालूम नहीं पड़ता था । तब तक उस सौंदर्य का कोई अंत न था । लेकिन जैसे ही तुम्हारे मित्र ने कहा, बड़ी सुंदर है सुबह, सब सिकुड़ कर छोटा हो गया। तुम्हारे मित्र के शब्दों ने सब पर सीमा बांध दी। तुम्हारा मित्र सब पर हावी हो गया। और जब इतना सौंदर्य था, तो बोलना सिर्फ कुरूपता थी। जहां इतना सौंदर्य था, वहां बोलना सिर्फ विघ्न था। तो मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारे मित्र को सौंदर्य का कोई पता नहीं । उसने तो सिर्फ बात चलाई थी, उसे कुछ पता नहीं है सौंदर्य का। क्योंकि सौंदर्य का पता होता तो बोलता हुआ आदमी चुप हो जाता है। चुप आदमी कैसे बोल सकता था? सौंदर्य का इम्पैक्ट है। जब चारों ओर से सौंदर्य घेर लेता है, तो प्राण चुप हो जाते हैं। हृदय धड़कता भी है, तो पता नहीं चलता कि धड़कता है। सब निस्पंद हो जाता है। पर हम चुप थे और तुम्हारा मित्र बोल पड़ा। उसे सौंदर्य का कोई पता न था, उसे सुबह का भी कोई पता न था । वह सिर्फ खूंटी खोज रहा था, बातचीत, चर्चा चलाने को ।
हम सब खोजते हैं। कोई भी मिलता है, आप मौसम की चर्चा शुरू कर देते हैं, कुछ भी बात शुरू कर देते हैं। वह सिर्फ बहाना होता है। असल में, चुप रहना इतना कठिन है कि हम किसी भी बहाने से बोलना शुरू कर देते हैं।
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