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अब दुबारा जब आप किसी से बातचीत शुरू करें, तो खयाल रखना, आपको फौरन पता चल जाएगा कि ये सिर्फ बहाने हैं। न सुबह से मतलब, न सूरज से मतलब, न बादलों से मतलब, न वर्षा से मतलब, कोई मतलब नहीं है। पर कहीं से बात शुरू होनी चाहिए, क्योंकि दो आदमी चुप रहने की कला ही भूल गए हैं, कि दो आदमी साथ हों तो चुप रह सकें।
फ्रायड ने अपने जीवन भर के अनुभवों के बाद लिखा है कि पहले तो मैं सोचता था कि हम बात करते हैं कुछ कहने के लिए, लेकिन अब मेरा अनुभव यह है कि हम बात करते हैं कुछ छिपाने के लिए। कुछ चीजें हैं, जो चुप रहने में उघड़ जाएंगी, उनको हम बातचीत करके छिपा लेते हैं।
एक आदमी के पास घंटे भर मौन से बैठ जाइए तो उस आदमी को जितना आप जान पाएंगे, उतना आप वर्ष भर उससे बात करते रहिए तो न जान पाएंगे। बात जो है, वह आदमी अपने को छिपाने के लिए अपने चारों तरफ एक जाल खड़ा कर रहा है। उसकी आंखों को फिर आप न देख पाएंगे, उसके शब्दों में अटक जाएंगे। उसके उठने को न देख पाएंगे; उसके बैठने को न देख पाएंगे; उसके गेस्चर्स आपके खयाल में न आएंगे। उसके शब्द ही शब्द आपके आस-पास रह जाएंगे।
कभी आपने खयाल किया है, जब आप पीछे किसी आदमी को याद करते हैं, तो सिवाय शब्दों के आपको कुछ और याद आता है? याद आता है, उस आदमी ने कैसे आपको देखा था? याद आता है, उसने कैसे आपके हाथ का स्पर्श किया था? याद आता है, उसके शरीर की गंध कैसी थी? याद आता है, उसकी आंखों का ढंग कैसा था? याद आता है, वह कमरे में कैसा प्रवेश हुआ था? याद आता है, वह कैसा बैठा था, उठा था?
कुछ भी याद नहीं आता है। इतना ही याद आता है कि उसने क्या कहा था। आदमी न हुआ वह, ग्रामोफोन हुआ। आपने उसके बाबत जो स्मृति बनाई है, वह सिर्फ शब्दों की है। उसके पूरे अस्तित्व का आपको कोई भी पता नहीं है। कितनी हैरानी की बात है! अगर आप अपनी मां की शक्ल भी आंख बंद करके गौर से देखना चाहें, तो आप पक्का पता न लगा पाएंगे कि मां की शक्ल कैसी है।
आप शायद एकदम से मेरी बात को इनकार करेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है? आप घर जाकर करना। आंख बंद कर लेना और देखना कि मां की शक्ल कैसी है? और आप पाएंगे कि जब तक गौर नहीं किया था, तब तक तो कुछ-कुछ पता था कि ऐसी है। और जब आप गौर करेंगे, तो बहुत धुंधला हो जाएगा, सब रूप-रेखा खो जाएगी, मां की शक्ल भी आप न पकड़ पाएंगे। क्योंकि किस बेटे ने मां को देखा है?
और अगर याद भी आएगी, तो किसी फोटोग्राफ के कारण याद आएगी, मां की वजह से नहीं आएगी। कोई चित्र की वजह से याद आ सकती है। आपके घर में कोई चित्र लटका है, वह याद आ जाएगा। लेकिन फर्क समझना आप। मां मौजूद थी, वह याद नहीं आती है। उसके खून से बड़े हुए हैं, उसकी गोदी में उठे हैं, उसके साथ दौड़े हैं, बैठे हैं, बात की है, सब किया है, वह याद नहीं आती। एक तस्वीर जो घर में लटकी है, वह याद आती है! तस्वीर एक वस्तु है, मां एक व्यक्ति है। लेकिन व्यक्ति याद नहीं आता और तस्वीर याद आती है। क्या, कारण क्या होगा?
असल में, हम जीवित के संपर्क से बचते रहते हैं खुद भी; और दूसरा भी हमारे जीवित को न जान ले, उसको भी बचाते रहते हैं। यह सारी जिंदगी एक बचाव है। और भाषा बड़ी कुशलता से बचाने का इंतजाम कर देती है।
एक फ्रेंच वैज्ञानिक बारह वर्षों तक साइबेरिया में एस्कीमोज के बीच में रहा। बारह वर्ष लंबा वक्त है। और एस्कीमो इस पृथ्वी पर उन थोड़ी सी कौमों में से एक हैं, जो भाषा के कारण अभी भी पागल नहीं हुए हैं। एस्कीमो दिन में दस-पांच शब्द बोले तो काफी है। अगर एस्कीमो को भूख लगी है, तो वह इतना नहीं कहता कि मुझे भूख लगी है, वह इतना ही कहता है-भूख! और कहने पर जोर कम होता है, उसका हाथ कहता है भूख, उसकी आंख कहती है भूख, उसका पूरा शरीर कहता है भूख!
बड़ी मुश्किल में पड़ गया। उस वैज्ञानिक के संस्मरण मैं पढ़ता था। उसने लिखा है कि मेरे पहले छह महीने तो ऐसे थे, जैसे मैं नर्क में पड़ गया। क्योंकि वे बोलते ही नहीं हैं। और मैं बोलने को उबलता था। लेकिन किससे बोलू? तो उसने लिखा है कि मैं अकेले में जाकर अपने से ही जोर से बोल लेता था।
आप सब भी अपने से अकेले में बोलते हैं। रास्ते पर चलते हुए लोगों को देखो, करीब-करीब सब अपने से बातचीत करते चले जा रहे हैं। कभी-कभी तो बातचीत गर्मा-गर्मी की भी हो जाती है-अकेले में ही। हाथ-पैर तक हिल जाते हैं; सिर झटका दे देता है, इशारे हो जाते हैं। और हर आदमी अपने से भीतर बात करने में लगा है। बाहर आप बात कर रहे हैं; भीतर आप बात कर रहे हैं; एक क्षण का अवकाश नहीं कि नाम से आप हट जाएं, शब्द से आप हट जाएं और अस्तित्व में आपकी गति हो जाए।
लेकिन छह महीने तकलीफ तो बहुत थी उस वैज्ञानिक को, छह महीने के बाद उसे बड़े अनूठे अनुभव होने शुरू हुए। पहली दफे जिंदगी में शब्दहीन गैप, शब्दहीन अंतराल आने लगे। और तब उसे पता चला कि एस्कीमो किसी और ही दुनिया में रह रहे हैं।
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