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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free ऐसा भी नहीं है कि जीसस जवाब देने में कमजोर थे। क्योंकि इसके पहले उन्होंने बहुत जवाब दिए हैं और बड़े कीमती जवाब दिए हैं। वह उतने कीमती जवाब तो दे ही सकते थे। पर बिलकुल चुप रह गए! थोड़ा सा तो...यह तो मौका भी था। यह तो बहुत बड़ा मौका था कि अगर जीसस का जवाब पाइलट को जंच जाए, तो शायद अभी सूली भी बच जाए। इस मौके पर तो जवाब देना ही था। सब कुछ बदल सकता था। अगर पाइलट को समझ में आ जाए कि जीसस ठीक कहते हैं, तो मुक्त हो सकते थे। शायद इसीलिए जीसस ने जवाब नहीं दिया। क्योंकि सत्य की ओट में अपने को बचाने की कोई संभावना उचित नहीं है। कहीं इस कारण ही बात न बदल जाए! नहीं तो सदा लोग यही कहेंगे कि जीसस ने जवाब दिया, पाइलट को समझा लिया, सूली से बच गए। क्योंकि यह जीसस से सड़क पर लोग रोक कर पूछ लेते थे, यह जवाब देता था। आधी रात में लोग जवाब लेने आ जाते थे और जवाब देता था। इसने कभी जवाब देने से मना नहीं किया। यह पहला ही मौका है कि सूली पर इससे पूछा गया, सत्य क्या है? और यही तो इसकी जिंदगी भर की देशना थी कि सत्य क्या है! यह तो उसे बोल ही देना था। कुछ तो बोल ही देना था। यह चुप रह जाना बहुत हैरानी का है। लेकिन जो लोग जीसस को समझ सकते हैं, जो जीसस को भीतर से समझ सकते हैं, वे कहेंगे, इस मौके पर जीसस का चुप रह जाना केवल इसी कारण से है कि इस वक्त कुछ भी सत्य के लिए बोलना व्यक्ति को बचाने की बात होती। उसमें आग्रह हो जाता; वह सत्य अनाग्रह नहीं हो सकता था। उसमें ऐसा हो जाता कि शायद मैं अपने को बचा लूं इसकी ओट में। इसलिए वह चुप रह गए हैं। लाओत्से कहता है, शायद यह उसका प्रतिबिंब मात्र है। प्रतिबिंब कहने में बड़ी दूर-दृष्टि है। प्रतिबिंब कहने की दूर-दृष्टि यह है कि अगर कुछ भी भूल-चूक हो तो वह लाओत्से की हो जाएगी, सत्य की नहीं होगी। और जब हम कहते हैं, यही सत्य है, तो फिर कुछ भी भूल-चूक हो तो वह सत्य की हो जाएगी। सदा से जानने वालों का यह ढंग रहा कहने का कि जो भी भूल-चूक हो, वह हमारी। अगर सत्य को समझने में आप कहीं विकृत कोई व्याख्या कर लें, तो सत्य को समझाने वाला कहेगा, वह भूल-चूक मेरी है। मेरे कहने में ही कहीं कोई भूल हो गई होगी। मेरे समझाने में ही कहीं कोई भूल हो गई होगी। सत्य में तो भूल नहीं होती, भूल मेरी हो सकती है। लाओत्से यह कह कर कि यह प्रतिबिंब है, प्रतिफलन है, सत्य को मैंने ऐसे देखा जैसे दर्पण में किसी की तस्वीर को हम देखें, उसमें भूल-चूक हो सकती है। दर्पण तस्वीर को लंबा करके बता सकता है, छोटा करके बता सकता है। आपने दर्पण देखे होंगे, जिनमें आप बहुत बड़े हो गए। दर्पण देखे होंगे, जिसमें बहुत छोटे हो गए। और एक बात तो पक्की है कि आपकी बाईं आंख दाईं तरफ दिखती है और दाईं आंख बाईं तरफ दिखती है दर्पण में। चीजें वैसी ही नहीं दिखती जैसी हैं, उससे उलटी हो जाती हैं। वह तो आपको खयाल में नहीं आता, क्योंकि आपको खुद ही पक्का पता नहीं, कौन सी आपकी बाईं आंख है और कौन सी आपकी दाईं आंख है। इसलिए दर्पण में आपको कभी खड़े होकर खयाल नहीं आता कि उलटे दिखाई पड़ रहे होंगे। तो किताब का पन्ना दर्पण के सामने करिएगा, तब आपको पता चलेगा कि अरे ये सब अक्षर उलटे हो गए! आप भी हो गए हैं। पर आपको अपने सीधे होने का पता ही नहीं है, तो उलटे होने का कैसे पता चल सकता है? एक किताब को दर्पण के सामने करिएगा, तब आपको पता चलेगा कि क्या गड़बड़ हुई जा रही है। ये तो सब अक्षर उलटे हो गए। आप भी इतने ही उलटे हो जाते हैं। अभी एक लोगों के चेहरों पर काम करने वाले वैज्ञानिक ने खोज-बीन की है, और सही है बहुत दूर तक, कि आपके चेहरे के दोनों हिस्से एक जैसे नहीं होते हैं। अगर आपकी नाक की बिलकुल सीध में रेखा खींच कर दो हिस्से कर दिए जाएं...। उस वैज्ञानिक ने जो प्रयोग किए हैं, वे ये हैं कि आपकी एक तस्वीर लेगा, उसको ठीक बीच से काट कर दो टुकड़े कर देगा। आपकी एक दूसरी तस्वीर लेगा, ठीक वैसी पहली जैसी। उसको भी काट कर दो टुकड़े कर देगा। फिर इसका बायां टुकड़ा उसके बाएं टुकड़े से जोड़ देगा, इसका दायां टुकड़ा उसके दाएं टुकड़े से जोड़ देगा। और आप हैरान होंगे कि दो अलग आदमियों की तस्वीरें बन जाएंगी, एक आदमी की नहीं। क्योंकि आपका आधा हिस्सा बिलकुल अलग होता है, दूसरा आधा हिस्सा बिलकुल अलग होता है। अगर आपके इस आधे हिस्से को इस आधे हिस्से से अलग कर दिया जाए और इसी जैसा आधा हिस्सा इसमें जोड़ दिया जाए, तो बिलकुल दूसरी, दूसरे आदमी की शक्ल बनती है। और अगर ये दोनों की शक्लें आपके पास रख दी जाएं, तो आप कभी न कहेंगे कि यह एक ही आदमी का चेहरा है। आप कहेंगे, ये दो आदमी हैं। इतना रूपांतरण हो जाता है आईने में! लेकिन आपको पता नहीं चलता। लेकिन प्रतिबिंब कहने का अर्थ यह है कि सत्य जिस माध्यम में प्रतिफलित होगा, वह माध्यम बहुत कुछ कर जाएगा; उसकी जिम्मेवारी सत्य की नहीं है। लेकिन हम माध्यम में ही सत्य को जान सकते हैं। एक माध्यम है अहंकार। अहंकार अंधेरे जैसा माध्यम है। जैसे अंधेरे में कोई सत्य को जाने, कुछ जान नहीं पाता, टटोल भी नहीं पाता; ग्रोपिंग इन दि डार्क-अंधेरे में। फिर भी हम अंधेरे में भी सत्य के बाबत बातें तय कर लेते हैं। कुछ पता नहीं होता, फिर भी हम तय कर लेते हैं। लोग बातें कर रहे हैं: आत्मा है, ईश्वर है, नर्क है, मोक्ष है, स्वर्ग है। वे सब अंधेरे में बातें कर रहे हैं। उन्हें कुछ पता नहीं इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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