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ऐसा है, ऐसा हम नहीं कहते; ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है। यह गलत भी हो सकता है, इससे भिन्न भी हो सकता है। इससे विपरीत दिखाई पड़ने वाले में भी सत्य हो सकता है।
लाओत्से कहता है, शायद यह जो शून्य प्रकट हुआ है, यह प्रतिफलन है उसका, प्रतिबिंब है उसका, वह जो परमात्मा के भी पहले था; जहां से परमात्मा भी पैदा हुआ होगा।
ताओइस्ट परंपरा में ओरिजिनल फेस के बाबत बहुत काम हुआ है। साधक से कहा जाता है कि तुम्हारा मूल चेहरा क्या है, व्हाट इज़ योर ओरिजिनल फेस, उसका पता लगाओ।
आप कहेंगे कि मेरा जो चेहरा है, वही मेरा ओरिजिनल फेस है। लेकिन अगर आप अपने दस साल के चित्र उठा कर देखें, तो आपको पता चल जाएगा कि आपका चेहरा दस दफे बदल गया है।
स्टेनबैक की पत्नी-एक जर्मन लेखक, उसकी पत्नी अपने बेटे को, छोटे बेटे को अपने पति के बचपन से लेकर अभी तक के चित्र दिखा रही है। जब उसका विवाह हुआ अपने पति से, तब वह तीस साल का जवान था। धुंघराले उसके बाल थे; सुंदर उसका चेहरा था।
तो वह छोटा बेटा, स्टेनबैक का बेटा, अपनी मां से पूछने लगा कि यह घंघराले बालों वाला सुंदर जवान कौन है? तो उसकी मां ने कहा, पागल, तू पहचान नहीं पा रहा! ये तेरे पिता हैं। तो उस लड़के ने कहा, अगर ये मेरे पिता हैं, तो वह गंजे सिर का जो आदमी अपने घर में रहता है, वह कौन है? अब तो साठ साल का है स्टेनबैक। तो वह कौन है, वह जो गंजे सिर का आदमी अपने घर में रहता है, अगर ये मेरे पिता हैं तो! मैं तो उन्हीं को अभी तक पिता समझ रहा था। अब उस बच्चे को समझाना जरूर बहुत मुश्किल पड़ा होगा।
कौन सा चेहरा ओरिजिनल है? वह कौन सा चेहरा आपका है? वह जो तीस साल में प्रकट होता है? वह जो तीन महीने में प्रकट होता है? वह जो मां के पेट में, गर्भ में प्रकट होता है? वह जो मरते वक्त, वह जो बुढ़ापे में? कौन सा चेहरा आपका है, आथेंटिक, जिसको आप कह सकें, यह मेरा चेहरा है।
ताओ परंपरा में साधक को वे कहते हैं, ध्यान करो और पता लगाओ, तुम्हारा मूल चेहरा क्या है। साधक थोड़े दिन में परेशान हो जाते हैं और आकर गुरु को पूछते हैं कि मूल से मतलब क्या? तो वे कहते हैं कि जब तुम नहीं पैदा हुए थे, तब तुम्हारा जो चेहरा था, उसका पता लगाओ। या जब तुम मर जाओगे, और तब भी तुम्हारा जो चेहरा होगा, उसका पता लगाओ। प्रकट होने के पहले भी जो तुम्हारे साथ था, अप्रकट हो जाने पर भी जो तुम्हारे साथ होगा, वही आथेंटिक है। बाकी तो बीच के वस्त्र हैं, जो लिए गए, दिए गए, ओढ़े गए, अलग किए गए।
लाओत्से कहता है, परमात्मा के भी पहले जो था! वही ओरिजिनल फेस है सत्य का, जो परमात्मा के भी पहले है। जब कुछ भी न था प्रकट, सब अप्रकट था।
उपनिषदों ने या वेद ने तीन अवस्थाएं मानी हैं अस्तित्व की। एक अवस्था, जब अस्तित्व मैनिफेस्टेशन में अभिव्यक्त हुआ। फूल खिल रहे हैं, पक्षी उड़ रहे हैं, लोग जमीन पर हैं, तारे हैं, सूरज है, जगत है-अभिव्यक्त! प्रकट! प्रकट होता जा रहा है, फैलता जा रहा है। दूसरी अवस्था, उपनिषद कहते हैं, प्रलय की। जब जगत सिकुड़ रहा है, नष्ट हो रहा है। फूल झड़ गए, पक्षी मर गए, वाणियां खो गईं, तारे फीके पड़ गए, सूरज बुझ गए; सब सिकुड़ रहा है। एक, जब अस्तित्व सृजन हो रहा है, युवा हो रहा है; और एक, जब अस्तित्व बूढ़ा हो रहा है, समाप्त हो रहा है।
तो सृजन और प्रलय, जैसे कि श्वास बाहर जाए और भीतर आए, भीतर आए और बाहर जाए, ऐसा हिंदू तत्वचिंतन ने कहा है कि अस्तित्व का सृजन परमात्मा की भीतर आती श्वास है, और अस्तित्व का विनाश परमात्मा की बाहर जाती श्वास है, आउटगोइंग ब्रेथ। और ब्रह्मा की एक श्वास-वह माइथोलॉजी है, पर समझने जैसी है-ब्रह्मा की एक श्वास सृजन है और दूसरी श्वास प्रलय है।
लेकिन इन दोनों के पार भी कोई अवस्था है, जब न श्वास भीतर आती है और न बाहर जाती है। वह तीसरी अवस्था है-न प्रलय है, न सृष्टि है। कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए, जो प्रलय में नष्ट होता है, सृजन में बनता है और दोनों के पार है। वह ओरिजिनल फेस, वह मूल चेहरा होगा।
लाओत्से कहता है, परमात्मा के भी पहले जो था, उसका प्रतिबिंब।
लेकिन बहुत...लाओत्से की अभिव्यक्ति इतनी कदम-कदम विचारणीय है कि वह यह नहीं कहता कि वही। वह कहता है, प्रतिबिंब। क्योंकि जहां देखने वाला है, जहां बोलने वाला है, जहां मैं हूं-अहंकार नहीं, अस्मिता ही भले-जहां मैं हूं, वहां प्रतिबिंब ही होगा। पर इतना क्या कम है, सत्य हमें दर्पण में भी दिखाई पड़ जाए! सत्य हमें दर्पण में भी दिखाई पड़ जाए, इतना भी क्या कम है! लेकिन लाओत्से खयाल रखता है कि वह कहे कि यह दर्पण में देखा गया सत्य है। देखा गया सत्य, दर्पण में देखा गया सत्य ही होगा।
और दूसरी बात वह कहता है, शायद।
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