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यह अनाग्रह की बात है। यह बहुत विचारणीय है कि जितना ज्यादा असत्य हमारे मन पर होता है, उतने हमारे वक्तव्य आग्रहपूर्ण होते हैं। जितना अहंकार होता है, वक्तव्य में उतना आग्रह होता है। हमारे जो विवाद जगत में चलते हैं, वे विवाद सत्य के लिए नहीं होते, आग्रह के लिए होते हैं। जब मैं कहता हूं कि यही ठीक है, तो असली सवाल यह नहीं होता कि यही ठीक है या नहीं, असली सवाल यह होता है कि मैं ठीक हूं और तुम गलत हो। जो विवाद है, कभी प्रकट ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि मैं ठीक हूं और तुम गलत हो; विवाद ऐसा मालूम पड़ता है कि सत्य के लिए चल रहा है। पीछे अगर गौर करेंगे, तो हर सत्य, तथाकथित सत्य के पीछे मैं खड़ा रहता है। मेरा सत्य ठीक होना चाहिए! क्योंकि मेरे सत्य के ठीक होते मैं ठीक होता हूं; मेरे सत्य के गलत होते मैं गलत हो जाता हूं। और मैं ठीक हूं।
यह मेरे ठीक होने का जो आग्रह है, वह अहंकार के साथ ही विलीन हो जाता है। इसलिए जहां-जहां अस्मिता से सत्य पैदा हुए हैं, जैसे बुद्ध या महावीर या कृष्ण या क्राइस्ट या मोहम्मद या लाओत्से - ये सब अस्मिता से निकले हुए वक्तव्य हैं, अहंकार से निकले हुए नहीं-ये सब अनाग्रहपूर्ण हैं। बड़ा अनाग्रह है! कह देने पर जैसे इति है। कोई माने, कोई राजी किया जाए, कोई न माने तो उसे मनवाया जाए, ऐसा कोई भाव नहीं है। जैसे बात कह दी और समाप्त हो गई।
फिर भी सोच-विचार कर, कंसीडर्डली, शायद लगा देना बहुत हिम्मत की बात है। क्योंकि जो मुझे सत्य जैसा लगता हो, उसमें शायद लगाने का स्मरण भी नहीं रहता। हम तो असत्य में भी शायद नहीं लगाते। हम तो असत्य में भी शायद नहीं लगाते, और लाओत्से जैसे लोग सत्य में भी शायद लगाते हैं।
हम असत्य में शायद लगा भी नहीं सकते, क्योंकि असत्य के प्राण ही निकल जाएंगे शायद लगाने से अगर अदालत में पूछा जाए कि क्या आपने चोरी की है? और आप कहें, शायद। असत्य के लिए तो आग्रहपूर्ण होना पड़ेगा कि नहीं की है। सब गवाहियां जुटानी पड़ेंगी, प्रमाण जुटाने पड़ेंगे। दावा ! और जितनी मजबूती से दावा किया जा सके, उतना ही! क्योंकि असत्य में अपने कोई प्राण नहीं होते; कितने आप आग्रह से उसमें प्राण डालते हैं, उतने ही होते हैं। असत्य अपने पैरों पर खड़ा नहीं होता, आपके आग्रह की शक्ति पर ही खड़ा होता है।
लेकिन सत्य तो बिना आपके आग्रह के खड़ा हो सकता है। इसलिए लाओत्से या महावीर जैसे लोग शायद भी लगा सकते हैं। शायद! अगर महावीर से पूछें कि आत्मा है? तो महावीर कहेंगे, शायद । अब महावीर से ज्यादा सुनिश्चित कौन जानता होगा कि आत्मा है ! इतना सुनिश्चित जानने वाला आदमी इतना अनिश्चय से कहेगा, शायद! और उसका कारण यह है कि महावीर मानते हैं कि आत्मा का होना इतना स्वयं-सिद्ध है, सेल्फ-इवीडेंट है, कि मेरे आग्रह की कोई जरूरत नहीं है। मैं अपने को अलग काट सकता हूं, तो भी आत्मा है।
जब वे कह रहे हैं शायद, तो उनका मतलब यह है कि मुझ पर भरोसा मत करना; मेरे बिना भी आत्मा है। मैं अपने पर शायद लगा रहा हूं; मेरा जानना गलत भी हो सकता है। मैं गलत भी हो सकता हूं।
हम असत्य में भी शायद नहीं लगा सकते; लाओत्से जैसे लोग सत्य में भी शायद लगा कर ही बोलते हैं । कारण? हमारे आग्रह में ही सब कुछ है! हम जो बोल रहे हैं, उसमें कोई प्राण नहीं है।
एक बड़े वकील, डाक्टर हरि सिंह गौड़ ने, जिन्होंने वकालत से इतना पैसा कमाया कि हिंदुस्तान में शायद ही किसी आदमी ने कमाया। सागर विश्वविद्यालय उनकी वकालत से कमाए गए पैसे से खड़ा हुआ। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा है कि जब मैं अपने गुरु को छोड़ने लगा, जिनसे मैंने वकालत की शिक्षा पाई और कला सीखी, तो उन्होंने मुझसे आखिरी जो मुझे सलाह दी, वह यह थी कि यदि सत्य तुम्हारे पक्ष में हो, देन हैमर ऑन दि फैक्ट्स; अगर अदालत में सत्य तुम्हारे पक्ष में हो, तो हथौड़े की चोट पर तथ्यों पर चोट करो। अगर सत्य तुम्हारे पक्ष में न हो, देन हैमर ऑन दि लाज; अगर सत्य तुम्हारे पक्ष में न हो, तो कानून पर हथौड़े की चोट करो।
और डाक्टर हरि सिंह ने लिखा है, मैंने उनसे पूछा कि न सत्य का पता हो, न तथ्य का पता हो, और न कानून साफ-साफ समझ में आ रहा हो, तो? तो उसके गुरु ने कहा, देन हैमर ऑन दि टेबल; तब जोर से टेबल पर घूंसेबाजी करो। लेकिन घूंसेबाजी करो। हैमरिंग असली चीज है। तुमने कितने जोर से हिला दिया अदालत को, उतना ही पता लगेगा कि तुम जो कह रहे हो, वह सत्य है।
ये बिलकुल नॉन-हैमरिंग लोग हैं- लाओत्से, महावीर ! ये हथौड़ी लेकर चोट नहीं करते कि यही सत्य है। ये जो बिलकुल सत्य है, उसको भी कहते हैं, यह भी हो सकता है। इनसे विपरीत आदमी आकर कह दे, तो उसको भी सुनते हैं और कहते हैं, यह भी हो सकता है।
महावीर ने सत्य को वक्तव्य देने की जो प्रक्रिया की है तैयार, उसमें सात स्यात हैं, एक नहीं। इसलिए महावीर का वक्तव्य बहुत जटिल हो जाता था। छोटा सा वक्तव्य महावीर को देना हो, तो वे सात वचनों में देंगे। अगर आपने पूछा कि यह घड़ा है? तो महावीर कहेंगे, स्यात है; परहेप्स इट इज़। घड़ा, आप कहेंगे, यह सामने रखा हुआ है। लेकिन महावीर कहते हैं कि कोई यह भी कह सकता है कि यह मिट्टी है, घड़ा नहीं है। तो झगड़ा क्या करोगे! तो महावीर कहेंगे कि एक वक्तव्य तो मैं यह देता हूं कि शायद घड़ा है। दूसरा वक्तव्य तत्काल देता हूं, ताकि कोई भूल चूक न हो जाए, कि शायद घड़ा नहीं है, मिट्टी है।
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