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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free ज्ञानी सागर में डूबा है बिलकुल, फिर भी नहीं जान पाता, क्योंकि सागर में डूब कर भी सागर से एक नहीं हो गया है। ज्ञानी के भी पार जो दशा है, वहां तो सागर के साथ एक हो गया है; लेकिन तब जानने वाला नहीं बचता कोई। जानने वाला सबसे ज्यादा होता है अज्ञान में। इतना ज्यादा होता है दिनोअर, इतना घना होता है कि जो नोन है, जिसे जानना है, वह होता ही नहीं। दि नोअर इज़ टू मच। इसलिए जिसे जानना है, वह होता ही नहीं। अस्मिता में नोअर और नोन बिलकुल बराबर हो जाते हैं; जानने वाला और जिसे जानना है, वे दोनों समतुल हो जाते हैं। तराजू बिलकुल ठहर जाता है। लेकिन अभी भी एक रेखा दूर करती है-ज्ञान की, जानने की। इसके आगे फिर जो अवस्था है, उसे हम चाहें तो कहें परम अज्ञान, चाहें तो परम ज्ञान; उसे हम कोई भी नाम दे सकते हैं। उस अवस्था में जानने वाला बचता ही नहीं। वह शून्य ही हो जाता है। अज्ञान में जानने वाला बहुत होता है। परम ज्ञान में जानने वाला होता ही नहीं। ज्ञान में दोनों बराबर होते हैं। लाओत्से जहां से बोल रहा है अभी, नहीं जानता मैं, यह ज्ञान की अवस्था है, जहां अस्मिता बाकी है। इसलिए लाओत्से कहता है, मैं नहीं जानता, किसका पुत्र है यह। यह शून्य कहां से जन्मा? शायद यह बिंब है उसका, जो कि परमात्मा के भी पहले था। परमात्मा के पहले! आदमी की जो कल्पना है, चिंतन है, वह परमात्मा तक गया है। परमात्मा के पार आदमी का चिंतन नहीं गया। आदमी के चिंतन की सीमा-रेखा है परमात्मा। अब तक जो बड़ी से बड़ी उड़ान ली गई है विचार की, वह परमात्मा तक जाती है। और लाओत्से कहता है कि यह जो है, यह बिंब मालूम पड़ता है, रिफ्लेक्शन मालूम पड़ता है उसका, जो कि परमात्मा के भी पहले था। यहां लाओत्से दोतीन बातों की सूचना देता है। एक तो यह कि चिंतन की जो सीमा है, अंतिम, वह सत्य की पहली सीमा भी नहीं है। चिंतन की जो अंतिम रेखा है, वह सत्य का पहला कदम भी नहीं है। दर्शन जहां तक पहुंचाता है, परमात्मा तक, वहां तक सागर शुरू भी नहीं हुआ है। इसलिए शंकर ने-शंकर से यहां लाओत्से को समझना आसान पड़ेगा-शंकर ने ईश्वर को भी माया का हिस्सा कहा है। ईश्वर को भी माया का हिस्सा कहा है, ब्रह्म का हिस्सा नहीं कहा। क्योंकि ईश्वर की जो धारणा है, वह हमारे मन की आखिरी धारणा है। और जहां तक मन जाता है, वहां तक माया चली जाती है। माया का अर्थ है मन का ही फैलाव। तो अगर आदमी ने ईश्वर को खोज लिया, तो आदमी के मन की खोज है वह। और आदमी का मन जो भी खोज लेगा, वह माया की सीमा होगी। इसलिए शंकर ने बहुत हिम्मत की बात कही है कि ईश्वर भी माया का ही हिस्सा है। ब्रह्म तो माया के भी पार है, ईश्वर के भी पार वही लाओत्से कह रहा है। वह कह रहा है, परमात्मा के भी पहले जो था; सृष्टि के तो पहले था ही जो, स्रष्टा के भी पहले जो था; जो बना हुआ दिखाई पड़ रहा है, उसके तो पहले था ही, जिसने बनाया है-ऐसा जैसा हम सोचते हैं कि इसने बनाया है-उस बनाने वाले के भी पहले जो था। लेकिन वह यह नहीं कहता कि यह वही है। यहीं उसकी कला है। लाओत्से कहता है, उसका यह प्रतिबिंब-मानो, जैसे कि यह उसका प्रतिबिंब है। यह नहीं कहता, वही है। क्योंकि मन उसे नहीं जान पाएगा। अहंकार तो जान ही नहीं पाएगा, अस्मिता भी नहीं जान पाएगी। अस्मिता भी ज्यादा से ज्यादा रिफ्लेक्शन को जान सकती है। रिफ्लेक्शन का मतलब यह हुआ कि नदी के किनारे एक वृक्ष खड़ा है और नदी में उस वृक्ष की छाया बन रही है। एक मछली नदी में तैर रही है। उस मछली को तट पर खड़ा वृक्ष तो दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन पानी में बनने वाला प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। ऐसा समझ लें कि उस मछली को पानी में बनने वाले वृक्ष का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। वृक्ष के पास से उड़ते हुए पक्षियों की कतार दिखाई पड़ती है-प्रतिबिंब। वृक्ष के पास उगे हुए चांद की छाया बनती है, वह दिखाई पड़ता है। चांद के ऊपर तैरती हुई बदलियां दिखाई पड़ती हैं। रिफ्लेक्शन में. जल के दर्पण में बन गई ये तस्वीरें उस मछली को दिखाई पड़ती हैं। मन, अस्मिता वाला मन भी ज्यादा से ज्यादा रिफ्लेक्शन को जानने का सामर्थ्य कर सकता है। इसलिए लाओत्से नहीं कहता कि यह वही है, जो परमात्मा के पहले था। लाओत्से कहता है, शायद यह उसका प्रतिबिंब है, जो परमात्मा के भी पहले था। असल में, आदमी जो भी जान सकता है-आदमी ही क्यों, जो भी जाना जा सकता है-वह प्रतिबिंब ही होगा। क्योंकि सत्य को हम तभी जानते हैं, जब हम सत्य के साथ एक हो गए होते हैं, जानने वाला अलग नहीं बचता। जब पतंगा उड़ कर जल जाता है दीए के साथ, तभी दीए को जानता है। जब नमक की डली गल जाती है सागर में, तभी सागर को जानती है। लेकिन तब वह बचती नहीं। और तब इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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