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शब्द की अड़चन है। शब्द हमारे ठोस हैं और अपने से विपरीत को भीतर नहीं लेते। अस्तित्व बहुत तरल और लिक्विड है; अपने से विपरीत को सदा भीतर लेता है। हमारे जन्म में मृत्यु नहीं समाती; लेकिन अस्तित्व में जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी है, समाई हुई है। हमारी बीमारी में स्वास्थ्य के लिए कोई जगह नहीं है। लेकिन अस्तित्व में सिर्फ स्वस्थ आदमी ही बीमार हो सकता है। अगर आप स्वस्थ नहीं हैं, तो बीमार न हो सकेंगे। मरा हुआ आदमी बीमार नहीं होता। बीमार होने के लिए जिंदा होना जरूरी है, बीमार होने के लिए स्वस्थ होना जरूरी है। स्वास्थ्य के साथ ही बीमारी घटित हो सकती है। और अगर आपको पता चलता है कि मैं बीमार हूं, तो इसीलिए पता चलता है कि आप स्वस्थ हैं। अन्यथा बीमारी का पता किसको चलेगा? पता कैसे चलेगा? मैं यह कह रहा हूं कि जहां अस्तित्व है, वहां हमारे विपरीत भेद गिर जाते हैं और एक का ही विस्तार हो जाता है। जहां हमने नाम दिया, वहीं चीजें टूट कर दो हिस्सों में बंट जाती हैं; एक डिकॉटॉमी, एक वैत निर्मित हो जाता है-तत्काल। यहां दिया नाम, वहां अस्तित्व खंड-खंड हो गया। नाम देना खंड-खंड करने की प्रक्रिया है। और नाम छोड़ देना अखंड को जानने का मार्ग है।
पर हम बिना नाम दिए क्षण भर को नहीं रहते। बिना नाम दिए बड़ी बेचैनी होगी। हम देखते हैं, शायद देखते के साथ ही नाम दे देते हैं। सुनते हैं, सुनते के साथ ही नाम दे देते हैं। एक फूल दिखा, कि मन देखने के साथ ही साथ नाम देता है-गुलाब है, सुंदर है, कि असुंदर है, कि पहले जाना हुआ है, कि नहीं जाना हुआ है, अपरिचित है, कि परिचित है। तत्काल गुलाब का फूल तो छूट जाता है और शब्दों का एक जाल हमारे चित्त के ऊपर निर्मित हो जाता है। फिर हम उस शब्द के जाल में अस्तित्व को जब देखते हैं, तो अस्तित्व टूटा हुआ मालूम पड़ता है।
लाओत्से कह रहा है कि अनाम तो अस्तित्व का जनक है, सारे अस्तित्व का स्रोत है; और नाम सारी वस्तुओं की जननी है।
तो हम परमात्मा को कोई नाम न दे सकेंगे; क्योंकि नाम देते ही परमात्मा वस्तु हो जाएगा। जिस चीज को भी हम नाम देंगे, वह वस्तु हो जाएगी। आत्मा को भी नाम देंगे तो वह वस्तु हो जाएगी। और अगर हम पत्थर को भी नाम न दें तो वह आत्मा हो जाएगा। अगर हम नाम देने से बच जाएं और हमारा मन नाम निर्मित न करे, और हम बिना शब्द और बिना नाम के किसी पत्थर को भी देख लें, तो पत्थर में परमात्मा प्रकट हो जाएगा। और हम किसी प्रेम से धड़कते हुए हृदय को भी नाम देकर देखें-मेरा बेटा, मेरी मां, मेरी पत्नी-कि हृदय जो धड़कता हुआ था जीवन से, वह भी पत्थर का एक टुकड़ा हो जाएगा। दिया नाम, कि चेतना वस्तु बन जाती है। छोड़ा नाम, कि वस्तुएं चैतन्य हो जाती हैं।
तो लाओत्से दो हिस्से करता है-अस्तित्व। अस्तित्व को समझाने के लिए उसने बांटा: हेवन एंड अर्थ, पृथ्वी और स्वर्ग। पृथ्वी से अर्थ है लाओत्से का पदार्थ का, मैटर का। और स्वर्ग से अर्थ है लाओत्से का अनुभव का, अनुभूति का, चैतन्य का, चेतना का। तो समस्त पदार्थ और समस्त चेतना का जनक है अनाम। स्वर्ग है एक अनुभव, पृथ्वी है एक स्थिति। पृथ्वी से प्रयोजन है लाओत्से का-जिन दिनों लाओत्से ने ये शब्द उपयोग किए चीन में, पृथ्वी से वही अर्थ था जो हम पदार्थ से लेते हैं और स्वर्ग से वही अर्थ था जो हम चैतन्य से लेते हैं। क्योंकि स्वर्ग की प्रतीति और अनुभव चेतना को होगी। पदार्थ से अर्थ है जड़ता का और स्वर्ग से अर्थ है चेतना का। समस्त चैतन्य और समस्त पदार्थ का मूल स्रोत है अनाम। और समस्त वस्तुओं की जननी है नाम देने की प्रक्रिया।
हम वस्तुओं के जगत में रहते हैं। न तो हम पदार्थ के जगत में रहते हैं और न हम स्वर्ग के, चेतना के जगत में रहते हैं। हम वस्तुओं के जगत में रहते हैं। इसे ठीक से, अपने आस-पास थोड़ी नजर फेंक कर देखेंगे, तो समझ में आ सकेगा। हम वस्तुओं के जगत में रहते हैं-वी लिव इन थिंग्स। ऐसा नहीं कि आपके घर में फर्नीचर है, इसलिए आप वस्तुओं में रहते हैं; मकान है, इसलिए वस्तुओं में रहते हैं; धन है, इसलिए वस्तुओं में रहते हैं। नहीं; फर्नीचर, मकान और धन और दरवाजे और दीवारें, ये तो वस्तुएं हैं ही। लेकिन इन दीवार-दरवाजों, इस फर्नीचर और वस्तुओं के बीच में जो लोग रहते हैं, वे भी करीब-करीब वस्तुएं हो जाते हैं।
मैं किसी को प्रेम करता हूं, तो चाहता हूं कि कल भी मेरा प्रेम कायम रहे; तो चाहता हूं कि जिसने मुझे आज प्रेम दिया, वह कल भी मुझे प्रेम दे। अब कल का भरोसा सिर्फ वस्तु का किया जा सकता है, व्यक्ति का नहीं किया जा सकता। कल का भरोसा वस्तु का किया जा सकता है। कुर्सी मैंने जहां रखी थी अपने कमरे में, कल भी वहीं मिल सकती है। प्रेडिक्टेबल है, उसकी भविष्यवाणी हो सकती है। और रिलायबल है, उस पर निर्भर रहा जा सकता है। क्योंकि मुर्दा कुर्सी की अपनी कोई चेतना, अपनी कोई स्वतंत्रता नहीं है। लेकिन जिसे मैंने आज प्रेम किया, कल भी उसका प्रेम मुझे ऐसा ही मिलेगा-अगर व्यक्ति जीवंत है और चेतना है, तो पक्का नहीं हुआ जा सकता। हो भी सकता है, न भी हो। लेकिन मैं चाहता हूं कि नहीं, कल भी यही हो जो आज हुआ था। तो फिर मुझे कोशिश करनी पड़ेगी कि यह व्यक्ति को मिटा कर मैं वस्तु बना लूं। तो फिर रिलायबल हो जाएगा।
तो फिर मैं अपने प्रेमी को पति बना लूं या प्रेयसी को पत्नी बना लूं। कानून का, समाज का सहारा ले लूं। और कल सुबह जब मैं प्रेम की मांग करूं, तो वह पत्नी या वह पति इनकार न कर पाएगा। क्योंकि वादे तय हो गए हैं, समझौता हो गया है; सब सुनिश्चित हो गया है। अब मुझे इनकार करना मुझे धोखा देना है; वह कर्तव्य से च्युत होना है। तो जिसे मैंने कल के प्रेम में बांधा, उसे मैंने वस्तु बनाया। और अगर उसने जरा सी भी चेतना दिखाई और व्यक्तित्व दिखाया, तो अड़चन होगी, तो संघर्ष होगा, तो कलह होगी।
इसलिए हमारे सारे संबंध कलह बन जाते हैं। क्योंकि हम व्यक्तियों से वस्तुओं जैसी अपेक्षा करते हैं। बहुत कोशिश करके भी कोई व्यक्ति वस्तु नहीं हो पाता, बहुत कोशिश करके भी नहीं हो पाता। हां, कोशिश करता है, उससे जड़ होता चला जाता है। फिर भी नहीं
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