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ताओ उपनिषाद-(भाग-1) प्रवचन-2 रहस्यमय परम स्रोत-ताओ-प्रवचन-दूसरा
अध्याय 1: सूत्र 2 वह अनाम ही पृथ्वी और स्वर्ग का जनक है। वह नामधारी ही सभी पदार्थों की जननी है।
अस्तित्व है अनाम। नाम देते ही वस्तु का जन्म होता है।
जब तक नाम नहीं दिया, तब तक प्रत्येक वस्तु असीम अस्तित्व का अंग होती है। जैसे ही नाम दिया, टूट जाती है, अलग और पृथक हो जाती है। नाम पृथकता की सीमा-रेखा है। नाम का अर्थ है पृथक करना। जब तक नाम नहीं दिया, तब तक सब एक है। जैसे ही नाम दिया, चीजें टूट जाती हैं और अलग हो जाती हैं।
लाओत्से कहता है, वह अनाम स्वर्ग और नर्क का जन्मदाता है, मूल स्रोत है। और यह नाम, या नामी समस्त वस्तुओं की जननी है। पहली बात तो यह समझ लेनी चाहिए कि यदि मनुष्य पृथ्वी पर न हो, तो चीजों में कोई भी फर्क न होगा। गुलाब के फूल में और गुलाब के कांटे में भेद न होगा। भेद है भी नहीं। गुलाब का कांटा गुलाब के फूल से ऐसा जुड़ा है, जैसा आपके हृदय से आपकी आंखें जुड़ी हैं। जमीन में और आसमान में भी कोई भेद न होगा। वह जगह बतानी कठिन है, जहां जमीन समाप्त होती है और आसमान शुरू होता है। वे संयुक्त हैं, एक ही चीज के दो छोर हैं। यह समुद्र कहां शुरू होता है और जमीन कहां शुरू होती है, बताना मुश्किल हैआदमी न हो तो। तो समुद्र के भीतर जमीन का फैलाव है और समुद्र का फैलाव जमीन के भीतर है। इसीलिए तो कहीं भी खोदते हैं कुआं तो पानी निकल आता है। सागर में भी गहरे उतरें तो जमीन मिल जाएगी। सागर में पानी थोड़ा ज्यादा और मिट्टी थोड़ी कम है; और मिट्टी में थोड़ा पानी कम और मिट्टी ज्यादा है। बाकी बिना मिट्टी के पानी नहीं हो सकता; और बिना पानी के मिट्टी नहीं हो सकती है।
आदमी को हम अलग कर दें तो चीजों में कोई भेद नहीं है, सब चीजें जुड़ी हुई और एक हैं। आदमी के आते ही चीजें अलग-अलग हो जाती हैं। होती नहीं, आदमी को अलग-अलग दिखाई पड़ने लगती हैं। अगर मैं आपको देखता हूं, तो आपके हाथ मुझे अलग मालूम पड़ते हैं, आपकी आंख मुझे अलग मालूम पड़ती हैं, आपके कान अलग मालूम पड़ते हैं, आपके पैर अलग मालूम पड़ते हैं। लेकिन आपके भीतर, आपके अस्तित्व में कहीं भी तो कोई भेद नहीं है। आंख और कान और हाथ और पैर, सब संयुक्त हैं, एक ही चीज का फैलाव हैं। हाथ के भीतर बहने वाली ऊर्जा और शक्ति आंख के भीतर देखने वाली ऊर्जा और शक्ति से अलग नहीं है। हाथ ही आंख से देखता है; आंख ही हाथ से छूती है। आपके भीतर, आपके अस्तित्व में जरा भी फासला नहीं है। लेकिन बाहर से देखने पर, नाम दिए जाने पर, फासला शुरू हो जाता है। कहा आंख, और आंख कान से अलग हो गई। कहा हाथ, और हाथ पैर से अलग हो गए। दिया नाम, कि हमने सीमा खींची और चीजों को पृथक किया।
लाओत्से कहता है, वह अनाम-दि नेमलेस-जब तक हम उसे नाम न दें, तब तक वह समस्त अस्तित्व का स्रोत है। और अस्तित्व को दो नाम दिए हैं लाओत्से ने: स्वर्ग का और नर्क का, स्वर्ग का और पथ्वी का।
मनुष्य के अनुभव में, प्रतीति में सुख और दुख दो अनुभूतियां हैं-गहरी से गहरी। अस्तित्व का जो अनुभव है, अगर हम नाम को छोड़ दें, तो या तो सुख की भांति होता है या दुख की भांति होता है। और सुख और दुख भी दो चीजें नहीं हैं। अगर हम नाम बिलकुल छोड़ दें, तो सुख दुख का हिस्सा मालूम होगा और दुख सुख का हिस्सा मालूम होगा। लेकिन हम हर चीज को नाम देकर चलते हैं। मेरे भीतर सुख की प्रतीति हो रही हो, अगर मैं यह न कहूं कि यह सुख है, तो हर सुख की प्रतीति की अपनी पीड़ा होती है। यह थोड़ा कठिन होगा समझना। हर सुख की प्रतीति की अपनी पीड़ा होती है। प्रेम की भी अपनी पीड़ा है। सुख का भी अपना दंश है, सुख की भी अपनी चुभन है, सुख का भी अपना कांटा है-अगर नाम न दें। अगर नाम दे दें, तो हम सुख को अलग कर लेते हैं, दुख को अलग कर देते हैं। फिर सुख में जो दुख होता है, उसे भुला देते हैं-मान कर कि वह सुख का हिस्सा नहीं है। और दुख में जो सुख होता है, उसे भुला देते हैं-मान कर कि वह दुख का हिस्सा नहीं है। क्योंकि हमारे शब्द में दुख में सुख कहीं भी नहीं समाता; और हमारे शब्द सुख में दुख कहीं भी नहीं समाता।
आज ही मैं किसी से बात करता था कि यदि हम अनुभव में उतरें, तो प्रेम और घृणा में अंतर करना बहुत मुश्किल है। शब्द में तो साफ अंतर है। इससे बड़ा अंतर और क्या होगा? कहां प्रेम, कहां घृणा! और जो लोग प्रेम की परिभाषाएं करेंगे, वे कहेंगे, प्रेम वहीं है जहां घृणा नहीं है, और घृणा वहीं है जहां प्रेम नहीं है। लेकिन जीवंत अनुभव में प्रवेश करें, तो घृणा प्रेम में बदल जाती है, प्रेम घृणा में बदल जाता है। असल में, ऐसा कोई भी प्रेम नहीं है, जिसे हमने जाना है, जिसमें घृणा का हिस्सा मौजूद न रहता हो। इसलिए जिसे भी हम प्रेम करते हैं, उसे हम घृणा भी करते हैं। लेकिन शब्द में कठिनाई है। शब्द में, प्रेम में सिर्फ प्रेम आता है, घृणा छूट जाती है। अगर अनुभव में उतरें, भीतर झांक कर देखें, तो जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे हम घृणा भी करते हैं। अनुभव में, शब्द में नहीं। और जिसे हम घृणा करते हैं, उसे हम घृणा इसीलिए कर पाते हैं कि हम उसे प्रेम करते हैं; अन्यथा घृणा करना संभव न होगा। शत्रु से भी एक तरह की मित्रता होती है; शत्रु से भी एक तरह का लगाव होता है। मित्र से भी एक तरह का अलगाव होता है और एक तरह की शत्रुता होती है।
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