SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free कैसे सुलझाएंगे इसकी ग्रंथियों को? हम सब सुलझाने की कोशिश करते हैं। एक आदमी आता है, वह कहता है, मैं क्रोध नहीं करना चाहता, खुद नहीं चाहता करना; मुझे कोई बताएं कि मैं कैसे क्रोध न करूं। हैरानी होती है कि अगर आप क्रोध नहीं करना चाहते, तो फिर करने का सवाल ही क्या है? मत करें। वह कहता है कि यह नहीं है सवाल; क्रोध नहीं करना चाहता, लेकिन क्रोध आता है। तो इसका मतलब यह हुआ कि क्रोध तो सिर्फ एक धागा है, और भी धागे जुड़े हैं आस-पास। यह इस धागे से तो मुक्त होना चाहता है, लेकिन इसी धागे से जुड़े किसी दूसरे धागे को जोर से पकड़े हुए है। जैसे इस आदमी से कहें कि ठीक है, अगर क्रोध नहीं करना चाहते, तो अपमान में आनंद लो, सम्मान की चिंता मत करो। तो वह कहेगा, यह कैसे हो सकता है? स्वाभिमान तो होना ही चाहिए। आदमी बड़ा कुशल है। हम अभिमान थोड़े ही करते हैं, स्वाभिमान! अभिमान दूसरे करते हैं। तो सेल्फ रिस्पेक्ट तो होनी ही चाहिए। नहीं तो आदमी क्या कीड़ा-मकोड़ा हो जाएगा! अब वह कहता है, क्रोध मुझे करना नहीं और अभिमान मुझे बचाना है। और अभिमान के साथ क्रोध का धागा सिर्फ जुड़ा ही हुआ हिस्सा है; वह अभिमान से अलग हो नहीं सकता। स्वाभिमान तो दूर, स्व को भी जो बचाएगा, उसका भी क्रोध बच जाएगा। स्व भी खो जाए, सेल्फलेसनेस हो-सेल्फिशलेसनेस नहीं, सेल्फलेसनेस-स्वार्थ का अभाव नहीं, स्व का ही अभाव हो, तो ही क्रोध जाता है। हमारी हालतें कुछ ऐसी हैं कि हम एक डंडे के एक छोर को बचाना चाहते हैं और दूसरे को हटाना चाहते हैं। बड़ी मुश्किल में जिंदगी बीत जाती है; कुछ हटता नहीं। और इस जाल को कभी हम देखते नहीं कि सब चीजें भीतर जुड़ी हैं। अब एक आदमी कहता है कि मुझे, शत्रु तो बिलकुल मुझे चाहिए नहीं; मैं तो सभी से मित्रता चाहता हूं। लेकिन ध्यान रहे, मित्रता बनाने में ही शत्रुताएं पैदा होती हैं। खैर, क्रोध और अभिमान तो खयाल में आ जाता है, लेकिन मित्रता बनाने में ही शत्रुताएं निर्मित होती हैं, यह खयाल में नहीं आता। जो आदमी मित्रता बनाने को उत्सुक है, वह शत्रुता बना ही लेगा। क्योंकि मित्रता बनाने का जो ढंग है, जो प्रक्रिया है, उसी की बाइ-प्रॉडक्ट...। जैसे कि कोई कारखाने में बाइ-प्रॉडक्ट हो जाती है। अब आप लकड़ी जलाएंगे, तो कोयला घर में बच जाएगा, राख घर में बच जाएगी। आप कहेंगे, आग तो हम जलाना चाहते हैं, ईंधन जलाने की तो बहुत जरूरत है, लेकिन राख न बचे घर में। वह राख बाइ-प्रॉडक्ट है, वह बचेगी ही। जिससे भी मित्रता करेंगे, उससे शत्रुता निर्मित हो जाएगी। और मित्रता बनाने के लिए उत्सुक आदमी अनेक तरह की शत्रुताओं के चारों तरफ अड्डे खड़े कर देगा। सच तो यह है कि आप मित्रता बनाना ही क्यों चाहते हैं? अगर गहरे में खोजें, तो आप मित्रता इसलिए बनाना चाहते हैं कि आप शत्रुता से भयभीत हैं। वह भी इंतजाम है। मित्र होने चाहिए। नसरुद्दीन बहुत मुसीबत में है। उसका घाटा लगा है बड़ा। एक मित्र उसे कहता है कि दस हजार मैं तुम्हें देता हूं, ले जाओ। नसरुद्दीन सोच में पड़ जाता है, आंख बंद कर लेता है। वह मित्र कहता है, इसमें सोचने की क्या बात है! ले जाओ; जब हों, तब लौटा देना। नसरुद्दीन सोच ही रहा है। मित्र थोड़ा हैरान हुआ कि वह इतनी तकलीफ में है कि दस हजार उसके काम पड़ेंगे। नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं, रहने दो। उसने कहा, लेकिन बात क्या है? नसरुद्दीन ने कहा कि ये रुपए ले-लेकर ही मैंने बाकी मित्र खोए। तुमसे लिया कि तुम भी गए। और तुम्हीं अकेले बचे हो। और मित्रता तुम्हारी कीमती है, और दस हजार में न खोना चाहूंगा। दस हजार में न खोना चाहूंगा! मित्र और शत्रु एक ही, एक ही चीज के छोर हैं। जो मित्र है, वह कभी भी शत्रु हो सकता है। जो शत्रु है, वह कभी भी मित्र हो सकता है। मैंने पीछे कहा कि मैक्यावेली दूसरा छोर है लाओत्से का। दोनों छोरों पर बड़ी बुद्धिमानी है। मैक्यावेली ने अपनी किताब में लिखा है, मित्रों से भी वह बात मत कहना, जो तुम शत्रुओं से न कहना चाहो। क्योंकि कोई भी मित्र कभी भी शत्र हो सकता है। और शत्र के खिलाफ भी वे शब्द मत बोलना, जो तुम मित्र के खिलाफ न बोलना चाहो। क्योंकि कोई भी शत्रु कभी भी मित्र हो सकता है। मैक्यावेली होशियारी की बात कह रहा है। होश से बोलना! मित्र से भी वह बात मत बताना, जो तुम शत्रु को बताने से डरते हो। क्योंकि कोई भरोसा है, मित्र कभी भी शत्रु हो सकता है। और तब मंहगा पड़ जाएगा। और शत्रु के संबंध में भी वे बातें मत कहना, जो तुम मित्र के संबंध में न कहना चाहो। क्योंकि वे कभी भी मंहगी पड़ सकती हैं; शत्रु कभी भी मित्र हो सकता है। हम चाहते हैं, मित्र तो बहुत हों, शत्रु कोई भी न हो। बस, जाल भारी है। लाओत्से कहता है, सब ग्रंथियां सुलझा लो। लेकिन कैसे सुलझेंगी ये ग्रंथियां? जब भी हम सुलझाने चलते हैं, तो एक छोर सुलझाते हैं, दूसरा उलझ जाता है। हमें सिखाया जाता है कि क्रोध मत करो, क्षमा करो। उलझन खड़ी हो जाएगी। हमें कहा जाता है, घृणा मत करो, प्रेम करो। हमें कहा जाता है, हिंसा मत करो, अहिंसा करो। हमें कहा जाता है,झूठ मत बोलो, सच बोलो। लेकिन इन सब में इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy