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अगर आपका पड़ोसी आपको देखता है कि आप दंड-बैठक लगा रहे हैं, तो वह डरता है। वह सोचता है, पता नहीं, क्या करे! वह भी दंडबैठक लगाना शुरू करता है। और जब आप देखते हैं अपनी खिड़की से कि अरे, मामला पक्का है। तो आप एक तलवार ले आते हैं।
और फिर ऐसा चलता है। और ऐसा नहीं कि छोटे-मोटे पड़ोसियों में चलता है। रूस और अमरीका और चीन और हिंदुस्तान और पाकिस्तान, सब में ऐसा चलता है। एक की सेनाएं सीमा पर गश्त लगाने लगती हैं, दूसरे के प्राण कंप जाते हैं। वह दुगुनी सेनाएं गश्त करने के लिए लगा देता है। और जब यह दुगुनी खड़ी करता है, तो निश्चित जो तर्क तुम्हारा है, वही पड़ोस वाले का भी है। वह भी सोचता है, कुछ गड़बड़ हो रही है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अब तक के युद्ध निन्यानबे प्रतिशत मिसइंटरप्रिटेशन से हुए हैं, सिर्फ गलत व्याख्या से कि दूसरा तैयारी कर रहा है हमें मारने की; अगर हमने तैयारी न की, तो मर जाएंगे। और जब आप तैयारी करते हैं, तो यही दूसरे का भी तर्क है कि अब तैयारी यह कर रहा है, किसलिए कर रहा होगा? अगर पाकिस्तान अमरीका से अस्त्र-शस्त्र लाता है, तो किसलिए लाता होगा? हमी को मारने के लिए। और आप अगर एटामिक कमीशन बनाते हैं, तो किसलिए बनाते हैं? पाकिस्तान को मारने के लिए। सब की हमारी बुद्धि इस भांति चलती है कि दूसरा क्या कर रहा है, वही हम और जोर से करें। और दोनों तरफ एक जैसी बुद्धियां हैं। इस प्रतिफलन में, एक-दूसरे के बीच जो बिब-प्रतिबिंब बनते हैं, इनका जो अंतिम परिणाम होता है, उसमें आदमी का कुछ बस ही नहीं रह जाता, ऐसा लगता है कि करीब-करीब सब यांत्रिक घटित हो रहा है।
लाओत्से कहता है कि असुरक्षित हो जाओ। और ऐसे भी सुरक्षा क्या कर पाओगे? अगर यह पृथ्वी आज टूट जाए, तो कौन सा इंतजाम है? और यह सूरज आज ठंडा हो जाए, तो क्या करोगे? और यह सूरज आज दूर निकल जाए इस पृथ्वी से, तो कौन सा उपाय है इसे पास ले आने का? कभी यह पृथ्वी बिलकुल शून्य थी, कोई आदमी न था। कभी यह फिर सूनी हो जाएगी। जिस दिन सूनी हो जाएगी, उस दिन क्या करिएगा? किससे शिकायत करने जाइएगा? अनंत-अनंत ग्रहों पर जीवन रहा है और नष्ट हो गया। यह पृथ्वी भी सदा हरी-भरी नहीं रहेगी; यह नष्ट हो जाएगी। इंतजाम क्या है आपके पास? क्या बचाव कर लेंगे?
लेकिन ऐसा ही है कि एक चींटी है और मुंह में एक शक्कर का दाना लिए वर्षा का इंतजाम करने अपने घर की तरफ लौटी चली जा रही है, और आपका पैर उसके ऊपर पड़ जाता है। आपको तो पता ही नहीं चलता। सब व्यवस्था, सब सुविधा न मालूम कितने सपने होंगे, न मालूम क्या-क्या सोच कर चली होगी, घर न मालूम किन-किन बच्चों को वायदा कर आई होगी कि अभी आती हूं-वह सब नष्ट हो गया! अब चींटी उपाय भी क्या करेगी आपके पैर से बचने का? सोच सकते हैं कुछ उपाय, क्या करेगी?
आप क्या सोचते हैं, आपकी कोई बड़ी हैसियत है? चींटी को दबा लेते हैं, इसलिए सोचते हैं कोई बड़ी हैसियत है? इस विराट जगत में कौन सी स्थिति है मनुष्य की?
एक महासूर्य पास से गुजर जाए, सब राख हो जाए। वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई तीन अरब वर्ष पहले कोई महासूर्य पास से निकलने का मतलब है, कई अरब मील के फासले से निकल गया-उसी वक्त, उसके धक्के में, उसके आकर्षण में चांद जमीन से टूट कर अलग हुआ। ये जो पैसिफिक और हिंद महासागर के जो गड्ढे हैं, यह चांद जो हिस्सा टूट गया जमीन से, उसकी खाली जगह हैं।
कभी भी निकल सकता है। इस विराट जगत में जहां कोई चार अरब सूर्यों का वास है, वहां सब कुछ हो रहा है। वहां कोई हम से पूछने आएगा? कोई आपकी सलाह लेगा? जरा सा कोई अंतर, और जीवन इस पृथ्वी पर विदा हो जाएगा। जीवन! आप नहीं, जीवन ही विदा हो जाएगा। करोड़ों जातियों के पशु मिले हैं, जो कभी थे और अब उनका एक भी वंशज नहीं है। कोई मनुष्य के साथ कोई विशेष नियम लागू नहीं होता।
लेकिन हम बड़ा इंतजाम करते हैं। हमारा इंतजाम चींटी जैसा इंतजाम है। मैं नहीं कहता, इंतजाम न करें। न लाओत्से कहता है, इंतजाम न करें। यह नहीं कहता कि वर्षा के लिए घर में दो दाने न रखें; जरूर रख लें। लेकिन जान लें भलीभांति कि हमारा सब इंतजाम चींटी जैसा इंतजाम है। और जिंदगी के विराट नियम का जो पहिया घूम रहा है, उस पर हमारा कोई वश नहीं है।
यह खयाल में आ जाए, तो फिर सुरक्षा की चिंता छूट जाती है। सुरक्षा जारी रहे, सुरक्षा की चिंता टूट जाए, सुरक्षा का पागलपन छूट जाए, तो फिर नोकें गिराने में कोई कठिनाई नहीं पड़ती; क्योंकि नोकें तो हैं इसलिए कि हम अपने को बचा सकें। बचाने की कोई जरूरत न रही; हम राजी हैं, जो हो जाएगा। मौत आएगी, तो मौत के लिए राजी हो जाएंगे। इस राजीपन में फिर आपको क्रोध की और हिंसा की और घृणा की और शत्रुता की और वैमनस्य की औरर् ईष्या की कोई भी जरूरत नहीं रह जाती। तो ही टूट सकती हैं नोकें।
“उसकी ग्रंथियों को सुलझा दें।'
वह जो हमारा चित्त है, वह जो हमारा व्यक्तित्व है, वह एक ग्रंथि ही हो गया है, एक कांप्लेक्स। जैसे कि धागे उलझ गए हों; और कहीं से भी खींचो, और उलझ जाते हों; ऐसी हमारी चित्त की दशा है। एक तरफ से सुलझाओ, तो दूसरी तरफ से उलझन हो जाती है, ऐसा लगता है। कितना ही सुलझाओ, लगता है, सुलझाना मुश्किल है।
लाओत्से कहता है, “इसकी ग्रंथियों को सुलझा दें।'
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