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ताओ उपनिषाद (भाग -1) प्रवचन- 13 अहंकार - विसर्जन और रहस्य में प्रवेश - ( प्रवचन - तैरहवां) अध्याय 4: सूत्र 2 इसकी तेज नोकों को घिस दें; इसकी ग्रंथियों को सुलझा दें;
इसकी जगमगाहट मृदु हो जाए;
इसकी उद्वेलित तरंगें जलमग्न हो जाएं;
फिर भी यह अथाह जल की तरह तमोवृत सा रहता है।
धर्म है रिक्त चेतना की अवस्था, खाली घड़े की भांति ।
लेकिन कोई खाली घड़ा कैसे हो पाए ? शून्य कोई होना भी चाहे तो कैसे शून्य हो? मिटना कोई चाहे भी तो मिटने की प्रक्रिया क्या है?
कल हमने समझने की कोशिश की कि पूर्ण होने की चेष्टा से ज्यादा कोई नासमझी की बात नहीं। लेकिन पूर्ण होने का विज्ञान उपलब्ध है। एक-एक कदम पूर्ण होने की सीढ़ियां उपलब्ध हैं। पूर्ण होने का शास्त्र है। और जिन्हें पूर्ण होना है, उनके लिए विद्यापीठ हैं, जहां वे शिक्षित हो सकते हैं कि किसी दिशा में पूर्ण कैसे हों। लेकिन शून्य होने का क्या शास्त्र है? और शून्य होने का विद्यापीठ कहां? और शून्य होने के लिए शिक्षक कहां मिलेगा? और कौन सा अनुशासन है जिससे व्यक्ति शून्य हो?
कुछ भी होना हो, तो प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा। तो पूर्ण होने की प्रक्रियाएं तो मनुष्य ने विकसित की हैं। अहंकार को मजबूत करने के मार्ग बनाए हैं, यात्रा-पथ निर्मित किए हैं, क्रमबद्ध सोच-विचार किया है। लेकिन शून्य शून्य होने के लिए क्या किया जा सकता है?
तो लाओत्से कुछ बातें कहता है। वह कहता है, “तेज नोकों को घिस दें।'
व्यक्तित्व में तेज नोकें हैं बहुत। जहां-जहां आप किसी को चुभते हैं, वहां आप में तेज नोक होती है। लेकिन एक मजा है नोक का ि जब दूसरा आपको चुभता है, तब उसकी नोक आपको पता चलती है; लेकिन जब आप किसी दूसरे को चुभते हैं, तो आपको अपनी नोक पता नहीं चलती। अगर छुरे को मैं आपके शरीर में चुभाऊं, तो आपको पता चलता है, छुरे को पता नहीं चलता। मेरी तेज नोक किसी गड़ती है, तो उसे पता चलता है, मुझे पता नहीं चलता। हां, किसी और की नोक मुझमें गड़ जाए, तो मुझे पता चलता है।
इससे जगत में बड़ी भ्रांति होती है, बहुत कनफ्यूजन है। जगत की सारी कलह इस कारण ही है कि हमें दूसरे की नोक ही पता चलती है, अपनी नोक कभी पता नहीं चलती। आपको कभी अपनी नोक पता चली है? इसलिए जीवन भर हम दूसरों की नोकों को झड़ाने में लगे रहते हैं।
तो पहली बात तो यह खयाल में ले लें कि हमें अपनी नोकों का पता नहीं चलता, दूसरे की नोकों का ही पता चलता है, क्योंकि वे हमें चुभती हैं। हमारी नोकें दूसरों को चुभती हैं, उनका हमें पता नहीं चलता। दूसरी बात, चूंकि उनका हमें पता ही नहीं चलता, इसलिए जाने-अनजाने हम उनकी जड़ों को मजबूत किए चले जाते हैं। और दूसरे की नोक हमें चुभती है, इसलिए दूसरे की नोक को तोड़ने की हम चेष्टा करते हैं।
और एक मजे की बात कि जितना हम दूसरे की नोक को तोड़ने की चेष्टा करते हैं, उतना ही हमें अपनी नोक मजबूत करनी पड़ती है। क्योंकि दूसरे की नोक तोड़नी हो, तो हमारी नोक के अलावा और कोई उपकरण नहीं है, जिससे हम उसे तोड़ें। तो दूसरे की नोक को तोड़ने की कोशिश गहरे में अपनी नोक को बढ़ाने की, चमकाने की, धार देने की कोशिश है। दूसरा भी यही कर रहा है। तब दुष्टचक्र खयाल में आ जाएगा, विसियस सर्किल खयाल में आ जाएगा। प्रत्येक यही कर रहा है: दूसरे की नोकें तोड़ने की कोशिश कर रहा है; दूसरों की नोकें तोड़ने में अपनी नोकों को धार दे रहा है। दूसरा भी यही कर रहा है: इसकी नोकें तोड़ने की कोशिश कर रहा है; इसकी नोकें तोड़ने के लिए अपनी नोकों को जहर पिला रहा है, पायज़न दे रहा है। हम नोकें ही नोकें रह जाते हैं। धीरे-धीरे हम में सिवाय इन नोकों के और कुछ भी नहीं बचता ।
ज्यादा से ज्यादा हमारी नोकें हमें एक तरह से चुभती हैं सिर्फ । वह भी खयाल में ले लेना जरूरी है। अपनी ही नोक हमें सिर्फ एक तरफ से चुभती है। जब हमारी नोक दूसरों को बहुत चुभने लगती है, तब वे सभी हमें नोकें चुभाने को उत्सुक हो जाते हैं। बस, इसी तरह से नोक हमें पता चलती है। तब हम ज्यादा से ज्यादा जो करते हैं, वह यह करते हैं कि अपनी नोकों के ऊपर वस्त्र पहना देते हैं-स्किन डीप। एक पर्त चमड़ी की हमारी नोकों पर हो जाती है। मृदुता और विनम्रता और शिष्टता और सज्जनता, उसका हम अपने चारों तरफ एक लेप कर लेते हैं। लेकिन वह जरा सी ही चोट से उखड़ जाता है। हम करते ही उसे इतना हैं कि जरा सी चोट लगे और हमारी नोक बाहर आ जाए।
लाओत्से कहता है, सब नोकों को झड़ा दें।
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