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तो करना क्या होगा? पहले तो यह जानना होगा कि हम में नोकें कहां-कहां हैं? और कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जन्मों-जन्मों की यात्रा में सिर्फ नोकें ही रह गए हैं? हमने बाकी सब हिस्से काट डाले हैं अपने और सिर्फ उन हिस्सों को बचा लिया है। और हम में नोकें हैं, तब हमें उनका कैसे पता चले?
सदा दूसरे की जगह खड़े होकर देखें, तो पता चल सकता है। जब भी आपसे कोई पीड़ित होता है, तो हमारा मन कहता है कि उसकी भूल है कि वह पीड़ित हो रहा है। और जब हम किसी से पीड़ित होते हैं, तो हमारा मन कहता है कि किसी ने हमें सताया है, इसलिए हम पीड़ित होते हैं। डबल बाइंड है। अगर आप मुझ पर क्रोधित होते हैं, तो मैं कहता हूं, आपका स्वभाव खराब है। और अगर मैं क्रोधित होता हूं, तो मैं कहता हूं, स्थिति ऐसी है; स्थिति ही ऐसी है कि मुझे क्रोध करना पड़ेगा। और दूसरा क्रोध करता है, तो मैं कहता हूं, उसके स्वभाव की विकृति है; परिस्थिति तो जरा भी न थी कि क्रोध किया जाए, लेकिन वे आदमी ही विषाक्त थे। यह हमारा तर्क है। और इस तर्क में हमारी सारी नोकें छिप जाती हैं और उनका हमें कभी पता नहीं चलता।
जीसस ने कहा है, जो तुम चाहते हो कि तुम्हारे साथ किया जाए, वही तुम दूसरे के साथ करना। लेकिन यह तो दूर की बात है। जो तुम दूसरे के साथ सोचते हो, कम से कम उतना अपने साथ सोचना। या जो तर्क तुम अपने लिए देते हो, कम से कम दूसरे के साथ भी न्याय बरतना, उतना तर्क देना। अगर मैं कहता हूं कि जब मैं क्रोधित होता हूं तो परिस्थिति ऐसी होती है, तो कम से कम इतना न्याय करूं कि जब मुझ पर कोई क्रोधित हो तो मैं कहं कि परिस्थिति ऐसी है कि तुम्हें क्रोधित होना पड़ रहा है। डबल बाइंड जो लॉजिक है हमारा, वह तोड़ना पड़ेगा। नहीं तो नोकों का कभी पता नहीं चलेगा।
वह डबल बाइंड लॉजिक जो है, दोहरा तर्क-अपने लिए और, दूसरे के लिए और-वह नोकों को बचाने के लिए है। उसमें हमें कभी पता ही नहीं चलता कि हम कौन हैं। हम क्या हैं, उसका हमें बोध ही नहीं हो पाता। और चीजें इस तरह आगे बढ़ती चली जाती हैं। और इसी एक तर्क के सहारे सारा जीवन नष्ट हो जाता है।
इसलिए अगर समस्त धर्मों का सार किसी वचन में आ जाता हो, तो वह जीसस के इस वचन में आ जाता है: डू अनटू अदर्स एज यू वुड लाइक टु बी डन विद यू। बस सारे धर्म का सार इस एक सूत्र में आ जाता है: दूसरे के साथ वही करो जो तुम चाहोगे कि दूसरे तुम्हारे साथ करें। यह एक वचन काफी है। सारे वेद और सारे शास्त्र और सारे पुराण और सारे कुरान और सारी बाइबिल, इस एक छोटे से वचन में समाहित हो जाते हैं।
इतना कोई कर ले तो और कुछ करने को बाकी नहीं रह जाता। लेकिन यह करना बहुत दुष्कर है। क्योंकि इसको करने के लिए सारी नोकें झड़ा देनी पड़ेंगी। और नोकें हममें हैं।
तो पहले तो यह जो दोहरा तर्क है, इसके प्रति सजग हो जाना चाहिए। एक-एक पल इसके प्रति सजग होना पड़ेगा कि मैं दूसरे को भी उतना ही मौका दूं, वही तर्क का लाभ दूं,जो मैं अपने को देता हूं। और तब आपको अपनी नोकें दिखाई पड़नी शुरू हो जाएंगी। तब बहुत मजेदार स्थिति बनती है। जिस दिन यह तर्क हम छोड़ देते हैं और दूसरे को भी वही मौका देते हैं, उस दिन स्थिति बिलकुल बदल जाती है। अभी हम कहते हैं कि दूसरे का स्वभाव विकृत है, इसलिए वह क्रोधी है; और मेरी तो परिस्थिति ऐसी थी, इसलिए मैंने क्रोध किया। जिस दिन यह तर्क बदल जाता है, उस दिन अनूठा अनुभव होता है। उस दिन पता चलता है कि मेरा स्वभाव ऐसा है कि मैंने क्रोध किया और दूसरे की परिस्थिति ऐसी थी कि उसने क्रोध किया। जिस दिन यह तर्क बदलता है, उस दिन यह पूरी स्थिति उलटी हो जाती है।
और जब आपको यह दिखाई पड़ने लगता है कि मेरा स्वभाव ऐसा है कि मैंने क्रोध किया, मेरी आदत ऐसी है कि मैंने क्रोध किया, दूसरे की परिस्थिति ऐसी थी कि उसने क्रोध किया, तो आप दूसरे को न क्षमा करने में और अपने को क्षमा करने में असमर्थ हो जाते हैं। और जो अपने को क्षमा करने में बहुत सुगमता पाता है, वह नोकों को कभी भी न झड़ा पाएगा।
लेकिन हम बड़े कुशल हैं स्वयं को क्षमा कर देने में। स्वयं के प्रति हमारी क्षमा का कोई अंत ही नहीं है। अगर कभी मैं पूर्वी या कभी हम ऐसा सोचें कि क्या आपके जैसा ही ठीक आदमी आपको साथ रहने के लिए दे दिया जाए, कितने दिन उसके साथ रह पाइएगा? जस्ट ए कॉपी ऑफ यू, ठीक आपकी ही नकल एक आदमी आपको दे दिया जाए, कितने दिन उसके साथ रह पाइएगा? चौबीस घंटे भी रहना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन आप अपने साथ तो कई जन्मों से रह रहे हैं। जरूर कोई तर्क होगा ऐसा, जिससे आप अपने को जानने से बचे रहते हैं। खयाल ही नहीं आता कि मैं क्या हूं; पता ही नहीं चलता कि मैं क्या हूं; होश ही नहीं आता कि मैं क्या हूं।
तो पहले तो नोकों का बोध-वे जो हममें चारों तरफ भाले लगे हैं, भालों के फलक लगे हैं। कहीं से हम निकलें, तो किसी न किसी को जरूर कुछ न कुछ चोट पहुंच जाती है। और अगर आप बिना चोट पहुंचाए निकल जाएं, तो आपको लगता है, आप निकले ही नहीं। ऐसा लगता है कि आपकी तरफ किसी ने कोई ध्यान ही नहीं दिया। ध्यान ही कोई तभी आपको देता हुआ मालूम पड़ता है, जब उसको किसी तरह आप चोट पहुंचाना शुरू करते हैं।
चोटों के बहुत ढंग हैं, उन पर हम बात करेंगे, कि हम कितनी तरह से चोटें पहुंचा सकते हैं, और हम कितने तर्क निकाल सकते हैं।
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