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लेकिन जितना हम पूर्ण होने की कोशिश करते हैं - यह मैं आपसे कहना चाहूंगा - जितना हम पूर्ण होने की कोशिश करते हैं, उतना हमें अपनी रिक्तता का बोध जाहिर होता है, पूर्ण हम होते नहीं। इसलिए जो सदी पूर्णता के प्रति जितनी आतुर, उत्सुक, अभीप्सु होती है, वह सदी उतनी ही एम्पटीनेस को अनुभव करती है।
पहली दफा पश्चिम पूरी तरह शिक्षित हुआ है। जमीन पर ज्ञात इतिहास में, पश्चिम ने पहली दफे शिक्षा के मामले में बहु विकास किया है। लेकिन साथ ही मजे की बात है कि पश्चिम का मन जितना एम्पटी अनुभव करता है, उतना कोई और मन नहीं करता । जितना खाली अनुभव करता है।
अमरीका ने पहली दफे धन के मामले में उस दूरी को छुआ है, जिसे हम पूर्णता के निकटतम कहें। निकटतम ही कह सकते हैं, पूर्ण तो कभी कुछ होता नहीं। हम अपनी पीछे की दरिद्रता को देखते हैं, तो लगता है अमरीका ने धन को छूने में बड़ी दूर तक कोशिश की है- निकटतम, एप्रॉक्सीमेटली । निकटतम का मतलब आपके खयाल में हो जाना चाहिए। पूर्ण तो हम हो नहीं सकते, सदा बीच में ही होते हैं, कहीं भी हों। लेकिन अतीत से तुलना करें आदमियों के और समाजों की अब जंगल में बसा आदिवासियों का एक समूह है, या बस्तर में बसा हुआ गरीबों का एक गांव है, और न्यूयार्क है। तो इस तुलना में न्यूयार्क करीब-करीब पहुंचता है।
सुना है मैंने, एक दिन एक बच्चा अपने घर आया । बहुत खुशी में स्कूल से वह कुछ पुरस्कार लेकर आया है। और उसने अपनी मां को आकर कहा कि आज मुझे पुरस्कार मिला है, क्योंकि मैंने एक जवाब सही-सही दिया। उसकी मां ने पूछा, क्या सवाल था? उस बेटे ने कहा, सवाल यह था कि गाय के पैर कितने होते हैं? उसकी मां बहुत हैरान हुई । तुमने क्या जवाब दिया? उसने कहा, मैंने कहा तीन। उसने कहा, पागल, गाय के चार पैर होते हैं। उसने कहा, वह तो मुझे भी अब पता चल चुका है। लेकिन बाकी बच्चों ने कहा था दो । सत्य के मैं निकटतम था, इसलिए पुरस्कार मुझे मिल गया है।
बस निकटतम का इतना ही अर्थ है। अगर धन की पूर्णता के कोई निकटतम हो सकता है, तो तीन टांगें अमरीका ने पैदा कर ली हैं। वह चार टांगों के करीब-करीब है। चार टांगें कभी नहीं होंगी। वे हो नहीं सकतीं। ह्यूमन सिचुएशन में वह संभव ही नहीं है। आदमी का होना अधूरा है। इसलिए आदमी जो भी करेगा, वह पूरा नहीं होता। अधूरा करने वाला हो, तो पूरी कोई चीज कैसे हो सकती है ! अगर मैं ही अधूरा हूं, तो मैं जो भी करूंगा, वह अधूरा होगा। वह एप्रॉक्सीमेटली हो सकता है, किसी और की तुलना में।
तो अमरीका, धन के भरने में करीब-करीब अमरीका का घड़ा पूरा का पूरा भर गया, तीन-चौथाई, तीन पैर भर गया। लेकिन आज अमरीका में जितनी दीनता और जितनी हेल्पलेसनेस और असहाय अवस्था मालूम पड़ती है। और आज अमरीका के जितने चिंतक हैं, वे एक ही शब्द के आस-पास चिंतन करते हैं। वह शब्द है एम्पटीनेस, मीनिंगलेसनेस । अर्थहीन है, सब खाली है, कुछ भरा हुआ नहीं है। और भराव के करीब-करीब हैं वे! बात क्या है?
पूर्ण आदमी हो नहीं सकता; अपूर्ण होना उसकी नियति है। आदमी के होने का ढंग ऐसा है कि वह अपूर्ण ही होगा, कहीं भी हो। और अपूर्ण चित्त की आकांक्षा पूरे होने की होती है। वह भी मनुष्य की नियति है, वह भी उसके भाग्य का हिस्सा है कि अपूर्णता चाहती है कि पूर्ण हो जाए। अपूर्णता में पीड़ा मालूम पड़ती है, हीनता मालूम पड़ती है, दीनता मालूम पड़ती है। लगता है, पूरे हो जाएं। तो पूरे होने की कोशिश अपूर्णता से पैदा होती है। और अपूर्णता से जो भी पैदा होगा, वह पूर्ण हो नहीं सकता। वह बाइ-प्रॉडक्ट अपूर्णता की होगी।
मैं ही तो पूर्ण होने की कोशिश करूंगा, जो कि अपूर्ण हूं। मेरी कोशिश अपूर्ण होगी। मैं जो फल लाऊंगा, वह अपूर्ण होगा। क्योंकि फल और प्रयास मुझसे निकलते हैं। मुझसे बड़े नहीं हो सकते मेरे कृत्य । मेरा कर्म मुझसे बड़ा नहीं हो सकता। मेरी उपलब्धि मुझसे पार नहीं जा सकती। मेरी सब उपलब्धियां मेरी सीमा के भीतर होंगी। कोई संगीतज्ञ अपने से अच्छा नहीं गा सकता। और न कोई गणितज्ञ अपने से बेहतर सवाल हल कर सकता है। या कि कर सकता है? हम जो हैं, हमारा कृत्य उससे ही निकलता है। हम अपने से बेहतर नहीं हो सकते; हालांकि हम अपने को अपने से बेहतर करने की सब चेष्टा में लगे होते हैं। इससे विषाद पैदा होता है। चेष्टा बहुत होती है, परिणाम तो कुछ आता नहीं। परिणाम में वही अपूर्णता, वही अपूर्णता खड़ी रहती है। घूम-घूम कर हमारी अपने से ही मुलाकात हो जाती है। दौड़ते हैं इस कोशिश में कि कभी कोई पूर्ण मिल जाएगा। लेकिन खोजने वाला जब अपूर्ण हो, तो जिसे वह पाएगा, वह अपूर्ण ही होने वाला है। हम अपने से ज्यादा कुछ भी नहीं पा सकते।
यह स्थिति है। मध्य में हम हैं- अपूर्ण, अधूरे अधूरे मन की आकांक्षा है कि भर जाऊं, पूरा हो जाऊं। अपूर्णता से वासना पैदा होती है पूर्ण होने की। यह ध्यान रहे, पूर्णता में पूर्ण होने की वासना नहीं पैदा हो सकती, क्योंकि कोई अर्थ न होगा। अपूर्णता में पूर्ण होने की वासना पैदा होती है। वासना हमेशा विपरीत होती है। जो हम होते हैं, वासना उससे विपरीत होती है। हम गरीब होते हैं, तो अमीर होने की वासना होती है। हम रुग्ण होते हैं, तो स्वस्थ होने की वासना होती है। हम अधूरे हैं, तो पूरे होने की वासना होती है।
वासना बिलकुल ही तर्कयुक्त है, क्योंकि अधूरे मन में पूरे होने का खयाल पैदा होगा। बिलकुल तर्कयुक्त है वासना, लेकिन परिणति कभी नहीं होने वाली है। क्योंकि अपूर्ण कभी पूर्ण नहीं हो सकता किसी प्रयास से, किसी चेष्टा से, कैसे ही अभ्यास से, किसी साधना से। क्योंकि सब साधनाएं, सब अभ्यास, सब प्रयास अपूर्ण से ही निकलेंगे। और अपूर्ण की छाप उन पर लगी रहेगी। और अगर अपूर्ण आदमी पूर्ण उपलब्ध को कर ले, तो वह अपूर्ण था ही नहीं। अपूर्ण होने का कोई अर्थ ही नहीं रहा।
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