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उससे बातचीत भी हुई। और उसने ठग भी लिया और माल भी कम दिया है। पर उसके शिष्य ने कहा, भूल हो सकती है; काम में व्यस्त था।
दूसरे दिन फिर बहाउद्दीन ने कहा कि चल। बहाउद्दीन तो अपनी तरह का आदमी था। तीन सौ पैंसठ दिन, पूरे साल...वह शिष्य घबड़ा गया, वह कहने लगा, अब बस करो, समझ गए, मान गए। पर उसने कहा कि नहीं। तीन सौ पैंसठ दिन पूरे रोज बहाउद्दीन उसकी दूकान पर जाता किसी शक्ल में, कुछ खरीद कर लाता। और वह शिष्य को भी घसीटता। तीन सौ पैंसठ दिन! और इस बीच भी वह आदमी आता रहा दस-पांच दिन में और कहता, तुम सूरज हो! अंधेरे में रोशनी हो जाती है! तुम अमृत हो! तुम्हारी किरण मिल जाती है एक, तो मृत्यु का कहीं पता नहीं चलेगा!
तीन सौ पैंसठ दिन के बाद बहाउद्दीन ने कहा कि बंद कर बकवास! तीन सौ पैंसठ दिन रोज तेरे द्वार पर आया हूं। सूरज तो बहुत दूर, दीया भी दिखाई नहीं पड़ा। तूने इतना भी न कहा कि आप एक टिमटिमाते दीए हैं। कुछ भी तूने नहीं कहा। तू सरासर झूठ बोल रहा है। तझे सिर्फ इतना मतलब है कि बहाउददीन बड़ा आदमी है।
तो अगर आपको महावीर मिल जाएं, तख्ती सहित कि मैं महावीर हं, तब तो आप फौरन झुक कर नमस्कार कर लें कि तीर्थंकर से मिलन हुआ। और नहीं तो पुलिस को आप खबर दे दें कि यह आदमी नग्न खड़ा हुआ है। यह आदमी नग्न खड़ा हुआ है बंबई में, यह बात ठीक नहीं है।
अभी पीछे यहां संन्यासी इकट्ठे थे। तो एक संन्यासी हैं मेरे जो नग्न रहने के शौकीन हैं। फिर भी हमने उनको कहा था कि बंबई में तुम नग्न मत घूमना, तो वे बेचारे एक लंगोटी लगा कर यहां वुडलैंड में आए होंगे। तो मुश्किल हो गई, और एक व्यक्ति ने मुझे आकर शिकायत की कि यह तो बहुत अजीब सी बात है। यह ठीक बात नहीं है कि एक आदमी लंगोटी लगाए यहां चला आए। और चमत्कार तो यह है कि वह आदमी भी दिगंबर जैन हैं, जिन्होंने मुझे शिकायत की। मैंने उनसे कहा, महावीर अगर आ जाएं वुडलैंड में, तो क्या करोगे? यह तो बेचारा कम से कम लंगोटी लगाए था। वह कहने लगे, महावीर की बात और।
पहचानोगे कैसे? कोई तख्ती, बोर्ड लेकर चलेंगे वे? और कितने लोग महावीर के वक्त महावीर को पहचाने?
हम भी करीब से गुजर जाते हैं बहुत बार। पर आंख हमारी बहुत और चीजों पर लगी है। वह जो निकट पड़ता है, वह दिखाई नहीं पड़ता। और कई बार तो ऐसा होता है कि निकट होता है, इसीलिए दिखाई नहीं पड़ता।
लाओत्से कहता है, इच्छादि से मुक्त कर देते हैं ज्ञानी। वह इसीलिए, ताकि जो निकटतम है, निकट से भी निकटतम है, वह जो परमात्मा है, वह दिखाई पड़ जाए। लाओत्से यह नहीं कहता कि मोक्ष नहीं है; लाओत्से कहता है, मोक्ष की इच्छा नहीं हो सकती। लाओत्से यह नहीं कहता कि परमात्मा नहीं है; लाओत्से इतना ही कहता है, परमात्मा को चाहा नहीं जा सकता। जब कोई चाह नहीं होती, तब जो शेष रह जाता है, वह परमात्मा है।
बुद्ध यह नहीं कहते कि मोक्ष नहीं है। बुद्ध इतना ही कहते हैं कि तुम चाहो मत। तुम कुछ न चाहो, मोक्ष भी मत चाहो। फिर तुम मोक्ष में हो।
इस फर्क को समझ लें। मोक्ष को आप अपनी डिजायर का आब्जेक्ट, विषय नहीं बना सकते। मोक्ष आपकी विषय-वासना का आधार नहीं बन सकता। वह आपकी चाह का बिंदु नहीं हो सकता। वह आपका निशान नहीं बन सकता, आपकी चाह का तीर लग जाए उसमें। नहीं, जब आप मय तीर-कमान सब चाह को नीचे गिरा देते हैं, तो आप पाते हैं कि मोक्ष में आप खड़े हैं। असल में, आप सदा से मोक्ष में खड़े थे, लेकिन चाह की वजह से आप दूर-दूर भटकते थे। इच्छा के कारण आप कहीं और भटकते थे। और मोक्ष है यहीं और परमात्मा है यहां निकट, और इच्छा है दूर। इसलिए इच्छा और परमात्मा का मिलन नहीं हो पाता। इच्छा है दूर और परमात्मा है पास। इच्छा है भविष्य में और परमात्मा है वर्तमान में। इच्छा है कल और परमात्मा है आज।
इसलिए लाओत्से कहता है, ज्ञान से और इच्छादि से वे मुक्त करते हैं।
"और जहां ऐसे लोग हैं, जो निपट जानकारी से भरे हैं, उन्हें ऐसी जानकारी के उपयोग से भी बचाने की यथाशक्य चेष्टा करते हैं।'
और जो लोग जानकारी से भरे ही हैं-रोकने की कोशिश करेंगे, लेकिन लोग तो भरे ही हैं-उन जानकारी से भरे हुए लोगों के लिए वे क्या करेंगे? उनको यथाशक्य कोशिश करेंगे कि अपनी जानकारी पर न चल पाएं।
अब यह बहुत अजीब बात है। सभी साधु-संत तो यह कोशिश कर रहे हैं कि देखो, जो हमने समझाया, उस पर चलने की कोशिश करना। साधु अपने प्रवचनों के बाद कहते हैं कि देखो, जो हमने समझाया, उसे यहीं मत छोड़ जाना। ऐसा न हो कि एक कान से जाए और दूसरे कान से निकल जाए। सम्हाल कर रखना और आचरण करना। और कसम खाओ कि जो समझे, उस पर चलोगे।
इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज