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डार्विन से लेकर माओ तक सारा खयाल संघर्ष का है। जाती है। फिर एक-एक आदमी अकेला है और सारी
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कलह, वर्ग- कलह, फिर कलह बढ़ती चली जाती है। तो सभी तलों में प्रवेश कर दुनिया से लड़ रहा है।
क्रोपाटकिन ने कहा कि संघर्ष आधार नहीं है, सहयोग आधार है और मजे की बात उसने यह कही कि संघर्ष भी करना हो, तो भी सहयोग जरूरी है। जिससे लड़ना है, उसका भी सहयोग चाहिए - लड़ाई के लिए भी। अगर वह लड़ने में भी असहयोगी हो जाए, नॉनकोआपरेटिव हो जाए और कह दे कि नहीं लड़ते, तो लड़ने का भी कोई उपाय नहीं है। यह बहुत मजे की बात क्रोपाटकिन ने कही संघर्ष के लिए सहयोग अनिवार्य है, लेकिन सहयोग के लिए संघर्ष अनिवार्य नहीं है। फाउंडेशनल, बुनियादी सहयोग है, क्योंकि संघर्ष भी बिना सहयोग के नहीं हो सकता।
अगर मैं आपसे लड़ना भी चाहूं, तो किसी न किसी रूप में आपके सहयोग की जरूरत है। अगर आप बिलकुल कोआपरेट ही न करें, तो लड़ाई भी नहीं चल सकती। लड़ाई भी बड़ा सहयोग है। और दो आदमी जब लड़ते हैं, तो बहुत-बहुत ढंगों से एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। लेकिन सहयोग के लिए किसी संघर्ष की जरूरत नहीं है। इसका अर्थ यह होता है कि सहयोग ज्यादा गहरे में है।
और क्रोपाटकिन ने कहा कि डार्विन ने जाकर देख लिया जंगल में कि शेर इस जानवर को खा रहा है, वह जानवर उस जानवर को खा रहा है। लेकिन क्रोपाटकिन का कहना है कि चौबीस घंटे में अगर एक बार शेर एक जानवर पर हमला करता है, तो बाकी तेईस घंटों में हजारों जानवरों के साथ सहयोग कर रहा है। उसे कभी डार्विन ने देखा नहीं। जंगल के जानवर चौबीस घंटे लड़ नहीं रहे हैं। सच बात यह है कि आदमी से ज्यादा लड़ने वाला कोई भी जानवर जंगल में नहीं है।
एक सूफी फकीर हुआ है, जलालुद्दीन वह अपने ध्यान में बैठा है और उसके एक शिष्य ने आकर उससे कहा कि उठिए, उठिए, बड़ी मुश्किल हो गई! एक बंदर के हाथ में तलवार पड़ गई है; कुछ न कुछ खतरा होकर रहेगा। जलालुद्दीन ने कहा, बहुत परेशान मत हो, आदमी के हाथ में तो नहीं पड़ी है न! फिर कोई फिक्र की बात नहीं है, फिर कोई चिंता की बात नहीं है। आदमी के हाथ में पड़ गई हो, तो फिर उठना पड़े। फिर कुछ उपद्रव होकर रहेगा।
जंगल में इतना संघर्ष नहीं है, जैसा हमें खयाल है और हम सबको खयाल है कि जंगल एक संघर्ष है, कांफ्लिक्ट है, हिंसा है। बड़ा सहयोग है। लेकिन आदमी ने जो जंगल बनाया है, जिसका नाम सभ्यता है, समाज है, वह बिलकुल संघर्ष है। और दिखाई बिलकुल नहीं पड़ता। और पूरे समय एक-दूसरे की दुश्मनी में सारा का सारा जाल फैलता चला जाता है।
क्रोपाटकिन वही कह रहा है, जो लाओत्से ने किसी दूसरे तल पर, और गहरे तल पर कहा था। लाओत्से कहता है, सहयोग। लेकिन सहयोग वे ही लोग कर सकते हैं, जिनके भीतर संकल्प क्षीण हो । कलह वे ही लोग कर सकते हैं, जिनके भीतर संकल्प मजबूत हो । संकल्प जितना ज्यादा होगा, कलह उतनी ज्यादा होगी। संकल्प कलह का सूत्र है। संकल्प क्षीण होगा, शून्य होगा, कलह विदा हो जाएगी। लड़ने वाला तत्व ही नहीं रह जाएगा, जो लड़ सकता था ।
इसे थोड़ा प्रयोग करके देखें और लाओत्से की सारी चीजें प्रयोग करने जैसी हैं और प्रयोग करेंगे, तो खयाल में ज्यादा गहरा आएगा । मुझे सुन लेंगे, उतने से बात बहुत साफ नहीं होगी। मुझे सुन कर लगेगा भी कि समझ गए, तो भी समझ में नहीं आएगा। यह समझ ऐसी ही होगी, जैसे अंधेरे में थोड़ी सी बिजली कौंध जाए। एक क्षण को लगे कि सब दिखाई पड़ने लगा, और फिर क्षण भर बाद अंधेरा हो जाए। क्योंकि आपका जो अपना तर्क है, वह तर्क लंबा है। वह जन्मों-जन्मों का है। जन्मों-जन्मों का जो तर्क है, वह तो कलह का है, संघर्ष का है। इस संघर्ष के तर्क की लंबी यात्रा में जरा सी बिजली कौंध जाए कभी सहयोग की किसी की बात से, तो वह कितनी देर टिकेगी? जब तक कि आप सहयोग के लिए भी कोई प्रयोग न करें, जब तक कि आपके संघर्ष के अनुभव के विपरीत सहयोग का अनुभव भी खड़ा न हो जाए ।
उसे थोड़ा प्रयोग करें। एक सात दिन का नियम । किसी भी सूत्र को समझने के लिए कम से कम सात दिन का नियम ले लें कि कल सुबह से सात दिन तक सहयोग करूंगा, चाहे कुछ भी हो जाए। जहां-जहां संघर्ष की स्थिति बनेगी, वहां-वहां सहयोग करूंगा। और इस सूत्र का राज खुल जाएगा।
इन सब सूत्रों का राज व्याख्या से नहीं, प्रतीति से खुलता है। व्याख्या से समझ में आ जाए इतना ही कि प्रयोग करने जैसा है, उतना काफी है। जिससे लड़े थे, उससे सहयोग कर लें। जिससे लड़े होते, उससे सहयोग कर लें। जिस परिस्थिति में अकड़ कर खड़े हो गए होते, उस परिस्थिति में लेट जाएं, बह जाएं। और देखें, सात दिन में आप मिटे या बने? देखें, सात दिन में आप कमजोर हुए कि शक्तिशाली हुए? देखें, सात दिन में आप खो गए कि बचे? देखें, सात दिन में कि आप बीमार हैं या स्वस्थ?
और एक बिलकुल ही नए तरह के स्वास्थ्य का गुण अनुभव में आना शुरू हो सकता है।
आज इतना ही। फिर कल बात करेंगे।
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