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यह भी शब्द सोचने जैसा है। क्योंकि संत का कोई शासन नहीं होता। संत की क्या गवर्नमेंट होती? सेजेज इन देयर गवर्नमेंट! संत अपने शासन में! संतों की तो कोई सरकार दिखाई पड़ती नहीं। लेकिन यह बड़ा पुराना शब्द है, बड़ा पुराना शब्द है। और वक्त था ऐसा जब कि संत का ही शासन था। कोई गवर्नमेंट नहीं थी उसकी, कोई शासन-व्यवस्था न थी, कोई स्ट्रक्चर न था। लेकिन शासन उसी का था।
जैन परंपरा में अभी भी, महावीर का शासन, ऐसा ही शब्द प्रयोग किया जाता है। जो शासन दे, उसको शास्ता कहा जाता है। इसलिए महावीर को या बुद्ध को शास्ता कहते हैं। शास्ता, जिसने शासन दिया। और वह शास्ता ने जो कहा, जहां संगृहीत हो, उसको शास्त्र कहा जाता है। शासन का अर्थ है, ऐसे नियम जिनसे आदमी चल सके और पहुंच सके।
तो लाओत्से कहता है, संत अपने शासन में, अपनी सूचनाओं में, मनुष्य को चलाने के लिए जो शास्त्र वे निर्मित करते हैं उसमें, आदमी के मन को तो खाली करने की कोशिश करते हैं, शरीर को भरने की कोशिश करते हैं। संकल्प को तोड़ते हैं, हड्डियों को मजबूत कर देते हैं।
सारे हठयोग की पूरी प्रक्रियाएं हड्डी को मजबूत करने की प्रक्रियाएं हैं। भीतर से संकल्प को हटा कर समर्पण को...। यह खयाल में आ जाए, तो व्यक्तित्व का एक दूसरा ही रूप है; जैसे हम हैं, फिर वैसे नहीं। देखने का और ही ढंग, एक दूसरा गेस्टाल्ट।
और जैसा हम देखना शुरू करते हैं, वैसी ही चीजें दिखाई पड़नी शुरू हो जाती हैं। अगर आपने तय कर रखा है, सजग रहना है हर वक्त, हमला हो तो हमले से उत्तर देना है, हमला न हो तो पहले से तैयारी रखनी है, तो आप रोज दुश्मन को खोज लेंगे। जगत बहुत बड़ा है और हर आदमी की जरूरतें पूरी कर देता है। अगर आप दुश्मन को खोजने निकले हैं, तो आप दश्मन को प्रतिपल खोज लेंगे।
यह खोज करीब-करीब वैसी ही है, जैसे कभी पैर में चोट लग जाए, तो फिर दिन भर पैर में उसी जगह चोट लगती मालम पड़ती है।
और कभी-कभी हैरानी भी होती है कि मामला क्या है? इतना बड़ा शरीर है, कहीं चोट नहीं लगती, वहीं चोट लगती है जहां चोट लगी है! नहीं, चोट तो रोज वहां ही लगती थी, पता नहीं चलती थी। आज वहां चोट लगी है, इसलिए पता चलती है। आपका वह हिस्सा संवेदनशील है, सेंसिटिव है, इसलिए पता चलता है। दूसरे हिस्से पर पता नहीं चल रहा है। वह संवेदनशील नहीं है।
तो हम जिस-जिस चीज के लिए संवेदनशील हो जाते हैं, वही-वही हमें पता चलता है। अगर हम आक्रमण के प्रति संवेदनशील हैं, अगर हमें लग रहा है कि सारा जीवन एक संघर्ष, युद्ध है, तो फिर हम रोज, हर घड़ी उन लोगों को खोज लेंगे जो शत्रु हैं, उन स्थितियों को खोज लेंगे जो संघर्ष में ले जाएं।
लाओत्से दूसरा गेस्टाल्ट, देखने का दूसरा ढंग, दूसरी सेंसिटिविटी दे रहा है। वह दूसरी संवेदनशीलता दे रहा है। वह कह रहा है कि सहयोग को खोजो। और जो आदमी उस भाव से खोजने निकलेगा, उसे मित्र मिलने शुरू हो जाते हैं। उसकी संवेदनशीलता दूसरी हो जाती है। वह मित्र को खोजने लगता है। और हम जो खोजते हैं, वह हमें मिल जाता है। या हम ऐसा कहें कि जो भी हमें मिलता है, वह हमारी ही खोज है। इस जगत में हमें वह नहीं मिलता, जो हमने नहीं खोजा है। इसलिए जब भी आपको कुछ मिले, तो आप समझ लेना कि आपकी अपनी ही खोज है।
लेकिन हम ऐसा कभी नहीं मानते। अगर दुश्मन मिलता है, तो हम सोचते हैं, हमारी क्या खोज है? दुश्मन है, इसलिए मिल गया! नहीं, दुश्मन होने के लिए आप संवेदनशील हैं, आप तैयार हैं। खोज ही रहे हैं।
सहयोग की यह व्यवस्था, कोआपरेशन और कांफ्लिक्ट।
क्रोपाटकिन ने एक किताब लिखी है। और क्रोपाटकिन इस सदी में...कांफ्लिक्ट की सदी है हमारी तो, हमारा तो पूरा युग संघर्ष का है, जहां माक्र्स से लेकर और माओ तक सारा विचार संघर्ष और कलह का है। वहां एक आदमी जरूर-रूस में ही हुआ वह आदमी भी क्रोपाटकिन-वह कोआपरेशन, सहयोग, संघर्ष नहीं। और उसने एक बहुत बड़ी कीमती बात प्रस्तावित की, हालांकि इस सदी में सुनी नहीं गई। क्योंकि यह सदी उसके लिए संवेदनशील नहीं है।
डार्विन ने सिद्ध करने की कोशिश की कि यह सारा जगत जीवन के लिए संघर्ष है, स्ट्रगल है, स्ट्रगल टु सरवाइव। अपने-अपने को बचाने के लिए हर एक लड़ रहा है। और उसने यह भी सिद्ध किया कि इसमें वही बच जाता है, जो फिटेस्ट है। और फिटेस्ट का मतलब यह, जो युद्ध में सर्वाधिक कुशल है वही बच जाता है।
डार्विन से लेकर फिर इन तीन सौ सालों में सारे जगत में संघर्ष का विचार परिपक्व होता चला गया। और मजे की बात है कि इस संघर्ष के परिपक्व विचार ने हमें संघर्ष के लिए और उन्मुख बनाया। और जब इस सिद्धांत को हमने स्वीकार कर लिया कि जीवन एक संघर्ष है, हर एक लड़ रहा है सिर्फ। बाप बेटे से लड़ रहा है, बेटा बाप से लड़ रहा है, पति पत्नी से लड़ रहा है। सब लड़ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि नौकर मालिक से ही लड़ रहा है। संघर्ष ही चल रहा है पूरे समय। यह सारा जीवन एक संघर्ष का ही रूप है। यह
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