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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free असल में, हम सब की मनोदशा ऐसी ही है। जिसको हम दबा सकते हैं, हम दबा देते हैं। जिसको हम सता सकते हैं, उसे हम सता देते हैं। जिसको हम चोट पहुंचा सकते हैं, उसे हम चोट पहुंचा ही देते हैं। जिसे हम नहीं पहुंचा सकते, तब हम बड़े सिद्धांतों की बात कर लेते हैं। लाओत्से कह रहा है कि तुम्हारे भीतर वह बिंदु ही न रह जाए, जो छोटे-बड़े को सोचता है। इसके साथ, उसके साथ, सोचता है। इस स्थिति में क्या करूं, उस स्थिति में क्या करूं, सोचता है। वह बिंदु ही न रह जाए। तुम्हारे भीतर संकल्प ही न रह जाए। लाओत्से को अगर एक छोटा बच्चा भी चांटा मार दे, तो भी जवाब नहीं देगा। और एक सम्राट भी हमला बोल दे, तो भी जवाब नहीं देगा। अगर इस सूत्र को ठीक से ले लें, तो साधना का बड़ा सूत्र है। कभी छोटा सा प्रयोग करके देखें एक सात दिन के लिए, अप्रतिरोध का, नान-रेसिस्टेंस का, कि कुछ भी होगा, पी जाएंगे। प्रयोगात्मक, एक सात दिन के लिए, कुछ भी होगा, पी जाएंगे। जिन-जिन चीजों में कल प्रतिरोध किया था, प्रतिरोध नहीं करेंगे। या जिन-जिन चीजों में कल दबाना पड़ा था, दबाएंगे नहीं, पी जाएंगे और एक सात दिन आप पाएंगे कि आप इतनी शक्ति अर्जित कर लेते हैं, जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। आपके पास इतनी ऊर्जा, इतनी इनर्जी इकट्ठी हो जाती है, जिसका हिसाब नहीं। तब मुश्किल हो जाएगा, उसके बाद, इस ऊर्जा को व्यर्थ डिसिपेट करना । हम सब डिसिपेट कर रहे हैं, फेंक रहे हैं। सड़क से गुजर रहे हैं, एक छोटा सा बच्चा सड़क के किनारे खड़े होकर हंस दे, और आपमें प्रतिरोध शुरू हो गया। प्रतिरोध शुरू हो गया। लाओत्से पर किसी ने एक गांव में हमला कर दिया था। लाओत्से ने तो लौट कर भी नहीं देखा कि वह आदमी कौन है। वह चलता ही गया। उस आदमी को बड़ी बेचैनी हुई। उसने लौट कर भी नहीं देखा कि पीछे से लकड़ी किसने मारी है। वह आदमी भागा हुआ आया और उसने लाओत्से को रोका और कहा कि लौट कर तो देख लो ! अन्यथा हमारा मारना बिलकुल बेकार ही गया। कुछ तो कहो! लाओत्से ने कहा, कभी भूल-चूक से अपना ही नाखून हाथ में लग जाता है, तो क्या करते हैं! कभी राह चलते अपनी ही भूल से गिर पड़ते हैं, घुटने टूट जाते हैं, तो क्या करते हैं! लाओत्से ने कहा, एक बार ऐसा हुआ कि मैं नाव में बैठा था और एक खाली नाव आकर मेरी नाव से टकरा गई, तो मैंने क्या किया ! लेकिन अगर उस दूसरी नाव में कोई मल्लाह बैठा होता, तो? तो झगड़ा हो जाता। तो झगड़ा हो जाता। खाली नाव थी, तो कुछ न किया। कोई मल्लाह बैठा होता, तो झगड़ा हो जाता। लेकिन उसी दिन से मैंने समझ लिया कि जब खाली नाव को कुछ नहीं किया, तो मल्लाह भी बैठा हो तो क्या फर्क पड़ता है? तुमने अपना काम कर लिया, तुम जाओ। मुझे मेरा काम करने दो। वह आदमी दूसरे दिन पुनः आया और उसने कहा, मैं रात भर सो नहीं सका। तुम आदमी कैसे हो? तुम कुछ तो करो, तुम कुछ तो कहो, ताकि मैं निश्चिंत हो जाऊं । स्वभावतः, उसके मन में बहुत कुछ कठिनाई चलती रही होगी। हम सब अपेक्षाओं में चलते हैं। अगर मैं गाली देता हूं, तो मैं मान कर चलता हूं कि गाली लौटेगी। लौट आती है, तो नियमानुसार सब हो रहा है। नहीं लौटती है, तो बेचैनी होती है। बेचैनी उतनी हो जाती है कि मैं अगर प्रेम करता हूं, तो मान कर चलता हूं कि प्रेम लौटेगा; नहीं लौटता है, तो जैसी बेचैनी हो जाती है। हम सब के लेन-देन के सिक्के तय हैं। लाओत्से कहता है, ये सिक्कों को बदल डालो। भीतर हो जाओ शून्यवत; संकल्प को हटा दो; और जो होता है, होने दो। हम कहेंगे, तब तो मौत आ जाएगी, बीमारी आ जाएगी, कोई लूट ही लेगा। सब बर्बाद ही हो जाएगा। हम हजार दलीलें खोज लेंगे जरूर। लेकिन हमारी दलीलों का बहुत मूल्य नहीं है। क्योंकि जिन चीजों को बचाने के लिए हम दलीलें खोज रहे हैं, उनमें से हम कुछ भी नहीं बचा पाते, सभी छूट जाता है। न तो मौत रुकती, न बीमारी रुकती, कुछ रुकता नहीं, सभी नष्ट हो जाता है। और उसको बचाने चेष्टा में हम कभी उसे पा ही नहीं पाते, जो ऐसा था कुछ कि मिल जाता, तो कभी नष्ट नहीं होता है। एक बार सात दिन का छोटा सा प्रयोग करके देखें। मेरे लिए तो संन्यास का अर्थ यही है, जो लाओत्से कह रहा है। यही अर्थ है संन्यास का कि ऐसा व्यक्ति, जिसने संकल्प छोड़ दिया, जिसने समर्पण स्वीकार कर लिया, जिसने इस जगत के साथ संघर्ष छोड़ दिया और सहयोगी हो गया। जो कहता है, मेरी शत्रुता नहीं; हवाएं जहां ले जाएं, मैं चला जाऊंगा। जो कहता है, मेरी अपनी कोई आग्रह की बात नहीं कि ऐसा हो; जो हो जाएगा, वही मुझे स्वीकार है। ऐसी कोई मंजिल नहीं, जहां मुझे पहुंचना है; जहां पहुंच जाऊंगा, कहूंगा यही मेरी संन्यास की भाव- दशा में जीवन का जो परम धन है, उसका द्वार, उस खजाने का लाओत्से कहता है, “संत, जो जानते हैं, वे प्रज्ञावान पुरुष अपने शासन में...।' इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं - देखें आखिरी पेज मंजिल है। ऐसा व्यक्ति संन्यासी है। और ऐसी द्वार खुल जाता है।
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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