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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free जाते हैं। अगर ऐसा शून्य भीतर बन जाए कि किसी हमले का कोई प्रतिरोध न हो-क्योंकि भीतर कोई प्रतिरोध करने वाला संकल्प ही न रहा-तो उस शून्य में जगत की महानतम शक्ति का आविर्भाव होता है। लाओत्से कहता है, संकल्प क्षीण हो। उसका अर्थ है कि संकल्प शून्य हो। भीतर शून्यवत हो जाओ; कुछ होने की कोशिश मत करो। उस बिल्ली ने कहा कि तुम सब बिल्लियां बिल्ली होने की कोशिश कर रही हो! बिल्ली होने की कोई कोशिश करनी पड़ती है? तुम बिल्ली हो। तुम्हारी कोशिश ही तुम्हें तकलीफ में डाल रही है। तुम हमला बनाने की योजना में पड़ी हो। जूडो का शिक्षक सिखाता है कि हमला मत करना, सिर्फ हमले की प्रतीक्षा करना। और जब हमला आए, तो तुम एक ही बात का ध्यान रखना कि तुम उसे आत्मसात कर जाओ। और अगर कोई गाली दे और आप गाली को आत्मसात कर जाएं, तो जिसने गाली दी है, वह कमजोर हो जाता है। करें और देखें! और जिसने गाली चुपचाप पी ली है-पी ली, दबाई नहीं-दबाना नहीं है, पी ली, जैसे कोई ने प्रेम का उपहार दिया, ऐसा पी ली है, आत्मसात कर ली, समा ली अपने में, एब्जा कर ली, गड्ढा बन गया। तो गाली देने में जितनी शक्ति उस व्यक्ति की व्यय हुई, उतनी शक्ति इस व्यक्ति को मिल गई। और जब गाली देने वाला पाता है कि विरोध में गाली नहीं उठी, तो इतना परेशान हो जाता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। जब आप विरोध में गाली दे देते हैं, तो परेशान नहीं होता। क्योंकि ठीक है, अपेक्षा यही थी कि आप गाली देंगे उत्तर में। लेकिन जब आप गाली नहीं देते हैं, तब परेशान हो जाता है। और दुगुने वजन की गाली खोज कर लाता है, और जोर से हमला करता है। लेकिन अगर आपको कला है पीने की, तो आप उसके हमले को पीते चले जाते हैं और उसे निर्बल करते चले जाते हैं। वह अपनी ही निर्बलता से गिरता है। जूडो कहता है कि दुश्मन अपनी ही निर्बलता से गिर जाता है, तुम्हें गिराने की कोई जरूरत ही नहीं है। लाओत्से के इन्हीं सूत्रों से जूडो का विकास हुआ। और लाओत्से के इन्हीं सूत्रों से और बुद्ध के विचार के सम्मिलन से झेन का जन्म हुआ। बुद्ध का विचार भारत से चीन पहुंचा। और चीन में लाओत्से के विचार की पर्त वातावरण में थी। इन दोनों के संगम से एक बहुत ही नई तरह की चीज दुनिया में पैदा हुई-झेन। बुद्ध ने भी कहा था-बहुत और अर्थों में, किसी और तल पर-कि मैं अपने भीतर के शत्रुओं से लड़-लड़ कर हार गया और न जीत पाया; और जब मैंने भीतर के शत्रुओं से लड़ना ही बंद कर दिया और जीतने का खयाल ही छोड़ दिया, तो मैंने पाया कि मैं जीता ही हुआ हूं। और जब लाओत्से के इन सूत्रों से बुद्ध के इन विचारों का तालमेल बना, तो एक बिलकुल ही नया विज्ञान पैदा हुआ। वह विज्ञान है बिना लड़े जीतने का। वह विज्ञान है: लड़ना ही नहीं और जीत जाना! संघर्ष नहीं और विजय! संकल्प नहीं और सफलता! हम सोच ही नहीं सकते। क्योंकि हम तो सोचते हैं, जहां भी संकल्प होगा, वहीं सफलता है; जहां संघर्ष होगा, वहीं विजय है। जहां युद्ध होगा, वहीं तो पुष्पहार पहनाए जाएंगे जीत के। लाओत्से उलटा मालूम पड़ेगा। वह कहता है, हड्डियां तो मजबूत हों, लेकिन संकल्प शून्य हो। क्यों? हड़ियों और संकल्प में क्यों फर्क कर रहा है? अगर आपके ऊपर मैं हमला करूं, तो हड्डियां इतनी मजबूत होनी चाहिए कि हमले को पी सकें। हड्डियों का मतलब है, आपके पास जो भी पीने की संरचना है, स्ट्रक्चर है, वह इतना मजबूत होना चाहिए कि पी जाए। लेकिन भीतर कोई प्रतिरोध करने वाला अहंकार नहीं होना चाहिए कि लड़ पड़े। ध्यान रहे, लड़ने के लिए उतने मजबूत शरीर की जरूरत नहीं है, जितना लड़ाई पीने के लिए मजबूत शरीर की जरूरत है। कमजोर शरीर वाला भी लड़ सकता है। और अक्सर ऐसा होता है कि कमजोर हो शरीर और दिमाग हो पागल, तो खूब लड़ सकता है। कोई शरीर की कमजोरी से लड़ने में बाधा नहीं पड़ती। शरीर की कमजोरी लड़ने में बाधा नहीं है। बल्कि सचाई तो यह है कि कमजोर शरीर लड़ने को बहुत आतुर होता है। सुना है मैंने कि हांगकांग में पहली दफा जो अमरीकन उतरा, उसने हांगकांग के बंदरगाह पर दो चीनियों को लड़ते देखा। लाओत्से की परंपरा से ही जुड़ी हुई अनेक परंपराएं चीन में विकसित हुई। वह दस मिनट तक खड़ा होकर देखता रहा कि वे बिलकुल एक-दूसरे के मुंह के पास मुंह ले आते हैं, घूसा उठाते हैं, एक-दूसरे की नाक तक घूसा ले जाते हैं, बड़ी गालियां देते हैं, बड़ी चीख-पुकार मचाते हैं; लेकिन हमला नहीं होता। दस मिनट में वह थोड़ा हैरान हआ कि यह किस प्रकार की लड़ाई है! उसने अपने गाइड को पुछा कि यह क्या हो रहा है? क्योंकि उसको समझ में नहीं आया कि यह लड़ाई हो रही है। क्योंकि लड़ाई कैसी? इतने निकट घूसे पहुंच जाते हैं और वापस लौट जाते हैं। यह कोई खेल हो रहा है! उस गाइड ने कहा कि यह चीनी ढंग की लड़ाई है-ए चाइनीज़ वे ऑफ फाइटिंग! उसने कहा कि लेकिन फाइट तो हो ही नहीं रही, लड़ाई तो हो ही नहीं रही। दस मिनट से मैं देख रहा हूं, इतने निकट दुश्मन हो और घुसा इतने करीब आ जाता हो, फिर वापस क्यों लौट जाता है? इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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