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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free दिए हुए मूल्य हैं। हमें कठिनाई लगती है कि सिर घुटा कैसे सुंदर होगा? हमें कठिनाई लगती है, क्योंकि हमारा एक मूल्य है, वह हमने बांध कर रखा हुआ है। अफ्रीका में एक कबीला है, जो अपने ओंठ को खींच-खींच कर बड़ा करता है। लकड़ी के टुकड़े ओंठ और दांतों के बीच में फंसा कर ओंठ को लटकाने की कोशिश की जाती है। जितना ओंठ लटक जाता है, उतना सुंदर हो जाता है! तो जो स्त्रियां लटके हुए ओंठ से पैदा होती हैं अफ्रीका में उनका बड़ा मूल्य है। जन्मजात सौंदर्य है! बाकी को कोशिश करके वैसा करना पड़ता है। हमारे मुल्क में अगर कोई लटका हुआ ओंठ पैदा हो जाए, तो कुरूपता है। कुरूपता क्या है और सौंदर्य क्या है? हमारा दिया हुआ मूल्य है। किस चीज को हम मूल्य दे रहे हैं? हम एक पत्थर को मूल्य देते हैं, वह पत्थर मूल्यवान हो जाता है। धातु को मूल्य देते हैं, धातु मूल्यवान हो जाती है। निश्चित ही लेकिन हम उन्हीं चीजों को मूल्य देते हैं, जो न्यून हैं। क्योंकि न्यून नहीं हैं, तो हम कितना ही मूल्य दें, अगर सभी को उपलब्ध हो सकती हैं तो मूल्यवान नहीं हो पाएंगी। न्यूनता मूल्य बनती है। लाओत्से कहता है, यदि दुर्लभ पदार्थों को महत्व न दिया जाए, तो लोग दस्यु-वृत्ति से मुक्त रहें।' फिर कोई चोर न हो, बेईमान न हो। ध्यान रहे, जिंदगी चलाने के लिए बेईमानी जरूरी नहीं, लेकिन ऊंचा उठने के लिए बेईमानी जरूरी है। मात्र जिंदगी चलाने के लिए ईमानदारी पर्याप्त है। और अगर सभी लोग मात्र जीने के लिए श्रम कर रहे हों, तो बेईमानी की जरूरत ही न पड़े। लेकिन अगर मात्र जीने के ऊपर जाना है, रोटी नहीं, कोहनूर भी पाना है, तो फिर ईमानदारी काफी नहीं है। ईमानदारी से कोहनर नहीं पाया जा सकेगा, बेईमान होना पड़ेगा। अब यह मजे की बात है कि जितनी न्यून चीज होगी, उसे पाने के लिए उतना ही ज्यादा बेईमान होना पड़ेगा-जितनी कम! जैसे यहां है, अगर सभी लोगों को अपनी-अपनी जगह बैठना है, तो कोई झगड़े की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर यह मेरी कुर्सी पर ही सभी को बैठना है, तो कलह-उपद्रव हो जाएगा। और उसमें यह आशा रखना कि सीधा-सादा आदमी आकर यहां बैठ जाएगा, गलती खयाल है, बिलकुल गलती खयाल है। वह तो जो इस संघर्ष में ज्यादा उपद्रव मचाएगा, वह प्रवेश कर जाएगा। अगर हम यह तय कर लें कि इसी छोटी सी कुर्सी पर सभी को होना जीवन का लक्ष्य है, तो फिर इस कमरे में कलह और संघर्ष और बेईमानी के सिवाय कुछ भी नहीं होगा। जो यहां बैठा होगा, वह भी बैठ नहीं पाएगा, क्योंकि दस-पच्चीस उसके पांव खींचते रहेंगे। कोई उसे धक्का देता रहेगा। वह भी बैठ नहीं पाएगा यहां, बैठा हुआ मालूम भर होगा। उसको भी लगेगा कि कब गए, कब गए, कुछ पता नहीं है। और जिन रास्तों से वह आया है, उन्हीं रास्तों से दूसरे लोग भी आ रहे होंगे! लाओत्से, बहुत गहरी दृष्टि है उसकी, वह कहता है, दुर्लभ पदार्थों को महत्व न दिया जाए। दुर्लभ पदार्थों में से अर्थ है, जो भी न्यून है, उसे महत्व न दिया जाए, तो लोग बेईमान न हों, चोर न हों। चोरों को दंड देने से चोरी नहीं रुकेगी, और दस्युओं को मार डालने से दस्यु नहीं मरेंगे, और बेईमानों को नर्क में डालने का डर देने से बेईमानी बंद न होगी। वह कहता है, न्यून पदार्थों को मूल्य न दिया जाए, दुनिया से बेईमानी समाप्त हो जाएगी। जरा सोचें। आपने कभी भी, जब भी बेईमानी की है, चोरी की है, करना चाही है, सोची है, तब आपने महज जीने के लिए नहीं। जीने से कुछ ज्यादा! भला आप कहते हों, अपने मन को समझाते हो कि वह जीवन के लिए अनिवार्य है, लेकिन जीने से कुछ ज्यादा! एक अच्छी कमीज मिल जाए, उसके लिए की होगी। तन ढंकने के लिए बेईमानी आवश्यक नहीं है। और जो आदमी तन ढंकने के लिए ही राजी है, वह बेईमानी नहीं करेगा। और वैसा आदमी किसी दिन अगर तन उघाड़ा भी हो, तो उसके लिए भी राजी हो जाएगा, लेकिन बेईमानी के लिए राजी नहीं होगा। लेकिन अगर तन ढंकना पर्याप्त नहीं है, किस कपड़े से ढंकना, वह जरूरी है, तो फिर अकेली ईमानदारी काफी सिद्ध नहीं होगी। लाओत्से के इस सूत्र का अर्थ यह है कि जीवन, मात्र जीवन के लिए बेईमानी आवश्यक नहीं है। मान्यता है, जरूरी नहीं है। लेकिन जीवन में जो हम न्युन चीजों को मुल्य देते हैं, उससे सारी बेईमानी का जाल फैलता है। इसलिए ध्यान रखें, जितना पिछड़ा हुआ समाज जिसे हम कहते हैं, वह उतना कम बेईमान होता है। उसका और कोई कारण नहीं है। उसका कुल कारण इतना है कि जिन चीजों को वह समाज मूल्य देता है, वे सर्वसुलभ हैं। एक आदिवासी समुदाय है। खाना है, एक लंगोटी है, नमक चाहिए, केरोसिन आयल चाहिए, वह सभी को मिल जाता है। कभी इतना फर्क पड़ता है, किसी के घर में दो लालटेन जल जाती हैं, किसी के घर में एक लालटेन जलती है। लेकिन जिसके घर में एक लालटेन जलती है, वह भी कोई इससे परेशान नहीं है। क्योंकि एक लालटेन से उतना ही काम हो जाता है, जितना दो से होता होगा। इससे बड़ी कोई आकांक्षा नहीं है। कुछ ऐसा नहीं है, जिसे पाने के लिए स्वयं को बेचना जरूरी हो। ध्यान रहे, न्यून चीजों को पाने के लिए स्वयं को बेचना पड़ता है। श्रम से नहीं मिलेंगी वे। कोई नहीं सोच सकता कि मैं रोज आठ घंटे ईमानदारी से श्रम करूं, तो किसी दिन मेरी पत्नी के गले में कोहनूर का हीरा होगा। यह बुद्ध भी नहीं सोच सकते, महावीर भी इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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