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लाओत्से कहता है, स्वभाव को हम स्वीकार नहीं करते, इससे कठिनाई है। और यह नहीं देखते कि हर चीज के साथ बहुत सी चीजें और जुड़ी हुई हैं। वे साथ ही चली आती हैं। उनको बचाया नहीं जा सकता। कोई मुझे अपमान न करे, हम चाहते हैं। और सब हमें सम्मान करें, यह भी हम चाहते हैं। और जहां सम्मान आया, वहां अपमान अनिवार्य है, इस स्वभाव को हम नहीं देख पाते। यह स्वभाव हमें दिखाई पड़ जाए...। तो लाओत्से कहता है, अपमान नहीं चाहते, तो सम्मान भी मत चाहो। सम्मान चाहते हो, तो अपमान के लिए भी राजी रहो। फिर कोई कठिनाई नहीं है, फिर कोई विग्रह नहीं है। फिर भीतर कोई कांफ्लिक्ट नहीं है, फिर भीतर कोई संघर्ष नहीं है।
और जब एक-एक व्यक्ति के भीतर संघर्ष होता है, तो पूरे समाज में संघर्ष होगा ही। जब एक-एक व्यक्ति चौबीस घंटे लड़ाई में लगा हुआ है...। जिसे हम जीवन कहते हैं, उसे जीवन कहा नहीं जा सकता। क्योंकि हम चौबीस घंटे कर क्या रहे हैं? न मालूम कितनी तरह की लड़ाइयां लड़ रहे हैं! बाजार में आर्थिक लड़ाई लड़ रहे हैं। घर पर पारिवारिक लड़ाई लड़ रहे हैं। मित्रों में लड़ाई चल रही है, पालिटिक्स चल रही है। अगर एक आदमी की हम सुबह से लेकर रात तक, सो जाने तक की पूरी चर्या देखें, तो सिवाय मोर्चे बदलने के और क्या है? इधर मोर्चा बदलता है, उधर मोर्चा। इधर आकर एक दूसरे फ्रंट पर लग जाता है। इधर से किसी तरह छूटता है, तो एक दसरी लड़ाई पर लग जाता है। लड़ाइयां बदलने में थोड़ी राहत जो मिल जाती है, वह मिल जाती होगी। बाकी लड़ाई चल रही है। कहीं कोई उपाय नहीं है जहां लड़ाई के बाहर हो सके। रात सो जाता है, तो भी सपने लड़ाई के हैं। वही संघर्ष सपनों में लौट आता है।
संघर्ष से भरी हई यह चित्त की दशा क्यों है? क्यों है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम आदमी की जड़ें ही विषाक्त कर रहे हैं जिससे यह होगा ही? यही है। हम जड़ें विषाक्त कर रहे हैं। और हमारी जड़ें विषाक्त करने का जो योजनाबद्ध कार्य है, वह इतना पुराना है कि हमारे कलेक्टिव माइंड, हमारे पूरे समूह मन का हिस्सा हो गया है। हम और किसी तरह अब जी नहीं सकते, ऐसा मालूम पड़ता है। यह हमारा जाल है। और अगर चौबीस घंटे आपको शांति मिल जाए और कोई संघर्ष का मौका न मिले, तो आप इतने बेचैन हो जाएंगे, जितने आप संघर्ष से कभी न हुए थे। आपको लगता है, लोग कहते हैं कि शांति चाहिए। क्योंकि उन्हें पता नहीं कि शांति क्या है। अगर उन्हें सच में ही शांति दे दी जाए, तो वे चौबीस घंटे में कहेंगे कि क्षमा करिए, यह शांति नहीं चाहिए; इससे तो अशांति बेहतर थी। क्योंकि शांति के क्षण में आपका अहंकार नहीं बच सकेगा।
अहंकार बचता है कलह में, संघर्ष में, जीत में, हार में। हार भी बेहतर है; उसमें भी अहंकार तो बना ही रहता है। ना-कुछ से हार बेहतर है; उसमें अहंकार तो बना ही रहता है। लेकिन अगर पूरी शांति हो, तो आपका अहंकार नहीं बचेगा, आप नहीं बचोगे। पूरी शांति में शांति ही बचेगी; आप नहीं बचोगे। वह बहुत घबड़ाने वाली होगी! उससे आप निकल कर बाहर आ जाओगे। आप कहोगे, ऐसी शांति नहीं चाहिए; इससे तो नर्क बेहतर है। कुछ कर तो रहे थे! कुछ हो तो रहा था! होता या न होता, होता हुआ मालूम होता था। व्यस्त थे, लगे थे। और मन में एक खयाल था कि बड़े भारी काम में लगे हैं।
जितना बड़ा संघर्ष होता है, उतना लगता है कि बड़े भारी काम में लगे हैं। इसलिए लोग छोटे-मोटे संघर्ष छोड़ कर बड़े संघर्ष खोज लेते हैं; छोटी-मोटी मुसीबतें छोड़ कर बड़ी मुसीबतें खोज लेते हैं। अपने घर की काफी नहीं पड़ती, तो पास-पड़ोस की खोज लेते हैं। समाज की, देश की, राष्ट्र की, मनुष्यता की बड़ी तकलीफें खोज लेते हैं। छोटी तकलीफें उनके काम की नहीं हैं।
एक युवक अभी मेरे पास आया था। वह अमरीकन शांतिवादियों के दल का सदस्य है। और भारत में उनके चार सौ लोग शांति की। कोशिश करते हैं। वह यहां आकर संन्यास लिया, तो मैं उससे पूछा कि तू कहीं अपनी अशांति से बचने के लिए तो दूसरों की शांति के लिए कोशिश नहीं कर रहा है?
वह बहुत चौंका! उसने कहा, क्या आप कहते हैं? बात तो यही है। पर आपको पता कैसे चला? घर में इतनी अशांति है, पिता से बनती नहीं, मां से बनती नहीं, भाई से बनती नहीं। और हालात ऐसे हो गए थे कि अगर मैं रुक जाऊं घर में, तो खून-खराबा हो जाएगा। या तो मैं मार डालूं पिता को, या पिता मुझे मार डालें। इसलिए घर से भागना जरूरी था। यह जब मैंने सुना कि भारत में शांति की जरूरत है, तो मैं यहां आ गया। यहां मैं शांति की उसमें लगा हुआ हूं।
जितने समाज-सेवक हैं, समाज-सुधारक हैं, नेता हैं, उनको छोटी अशांति काफी नहीं पड़ती। थोड़ा बड़ा विस्तार चाहिए, फैलाव चाहिए; और मसले ऐसे चाहिए, जो कभी हल न होते हों। हल हो जाने वाले मसलों पर आप ज्यादा देर नहीं जी सकते। हल हो जाएंगे, फिर नया मसला खोजो। तो स्थायी मसले चाहिए, जो कभी हल नहीं होते। पर ये हम सारे लोग, जिन्हें शांति के कोई सूत्र का ही पता नहीं है, जिनका सारा बनाव अशांति का है, जो उठेंगे, बैठेंगे, चलेंगे, बोलेंगे, तो सबसे अशांति खड़ी करेंगे। जो अगर चुप भी रह जाएं...।
नसरुद्दीन अपनी पत्नी से बात कर रहा है। पत्नी आधा घंटे बोल चुकी है। नसरुद्दीन कहता है, देवी, तुझे आधा घंटा हो गया और मैं हां-हूं भी नहीं कर पा रहा हूं।
उसकी पत्नी कहती है, तुम चुप रहो, लेकिन तुम्हारे चुप बैठने का ढंग इतना खतरनाक है, सो एग्रेसिव! तुम चुप बैठे जरूर हो, लेकिन तुम इस ढंग से बैठे हो कि आई कैन नॉट स्टैंड इट!
आदमी शांत भी इस ढंग से बैठ सकता है कि आक्रामक लगे। आपके चुप होने का ढंग भी ऐसा हो सकता है कि उससे गाली देना भी बेहतर हो। हमारे होने की व्यवस्था कलह की है। उसमें अगर हम चुप भी बैठते हैं...। अब एक आदमी कहता है, मैं तो चुप ही रहता
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