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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free उस चोर ने कहा, आपको पता नहीं, न मालूम कितने मजिस्ट्रेट, न मालूम कितने पुलिस वाले, न मालूम कितने डिटेक्टिव मेरी वजह से एंप्लायड हैं! मेरे कारण चौबीस घंटे काम में लगे हुए हैं। मेरे बिना न मालूम कितने लोग बिलकुल बेकार हो जाएंगे। तुम सड़क पर भीख मांगते नजर आओगे! तुम मेरी वजह से काम पर हो। यह मजाक ही नहीं है। यह सचाई है और गहरी सचाई है। अगर जमीन पर एक चोर न हो, तो मजिस्ट्रेट कैसे होगा? यह इतना बड़ा इंतजाम प्रतिष्ठा का, कानून का, वकीलों का, यह सब का सब चोरों पर, बेईमानों पर, बदमाशों पर निर्भर है। और अगर कभी कोई बहुत गहरे में देख पाए, तो उसे दिखाई पड़ेगा कि यह सारा का सारा व्यवस्थापक वर्ग जो है, लाओत्से की बात सुन कर राजी नहीं होगा। कहेगा, इसका मतलब है कि चोर को स्वीकार कर लो कि चोर चोर है। कुछ मत करो। तो फिर ये जो करने वाले हैं, इनका क्या होगा? और बहुत मजे की बात है कि ऐसा अनुभव है मनोवैज्ञानिकों का, ऐसा निरंतर शोध है, कि आमतौर से कानून को व्यवस्था देने वाले वे ही लोग होते हैं कि अगर कानून न हो तो वे कानून को तोड़ने वाले होंगे। असल में, चोर को डंडा मारने में चोर को ही मजा आता है। सुना है मैंने कि नसरुद्दीन एक दुकान पर काम कर रहा है। लेकिन ग्राहकों से उसका अच्छा व्यवहार नहीं है। तो उसे निकाल दिया गया है। जिस दुकान के मालिक ने उसे निकाल दिया है कह कर कि तुम्हारा ग्राहकों से व्यवहार अच्छा नहीं। ध्यान रखो, कानून, नियम यही है दुकान के चलाने का कि ग्राहक सदा ठीक-दि कस्टमर इज़ ऑलवेज राइट। तो यहां यह नहीं चल सकता कि तुम नौकर होकर दुकान के और तुम अपने को ठीक करने की सिद्ध करो कोशिश और ग्राहक को गलत करने की। पंद्रह दिन बाद उसने देखा कि नसरुद्दीन पुलिस का सिपाही हो गया है, चौरस्ते पर खड़ा है। उसने कहा, नसरुद्दीन, क्या सिपाही की नौकरी पर चले गए? नसरुद्दीन ने कहा, हां, मैंने फिर बहुत सोचा। दिस इज़ दि ओनली जॉब, व्हेयर कस्टमर इज़ आलवेज रांग; जहां ग्राहक सदा गलत होता है। और धंधा अपने को नहीं जमेगा। लाओत्से की बात कठिन मालूम पड़ेगी। कानून की जो नियामक शक्तियां हैं, उनको ही नहीं, साधु-संन्यासियों को भी बहुत अप्रीतिकर लगेगा। क्योंकि साधु अपनी साधुता को स्वभाव नहीं मानता, अपना अर्जित गुण मानता है। साधु कहता है, मैं साधु हूं बड़ी चेष्टा से, बड़ी मुश्किल से; बहुत आईअस था मार्ग, बड़ी तपश्चर्या की है, तब मैं साधु हूं। और तुम साधु नहीं हो, क्योंकि तुमने कुछ नहीं किया। लाओत्से की साधुता परम है। वह कहता है कि अगर मैं साधु हूं, तो इसमें मेरा कोई गुण नहीं। इस परम साधुता को समझें। लाओत्से कहता है, अगर मैं साधु हूं, तो इसमें मेरा कोई गुण नहीं। इसमें सम्मान की कोई बात नहीं। अगर तुम साधु नहीं हो, तो इसमें कोई अपमान नहीं। तुम्हारा न साधु होना स्वाभाविक है, मेरा साधु होना स्वाभाविक है। और जहां स्वभाव आ जाता है, वहां हम क्या करेंगे? तो तुम मुझसे नीचे नहीं, मैं तुमसे ऊपर नहीं। लेकिन हमारे साधु का तो सारा इंतजाम ऊपर होने में है। वह अगर हमसे ऊपर नहीं है, तो उसका सब बेकार है। और ध्यान रहे, अगर हम साधु को ऊपर बिठाना बंद कर दें, तो हमारे सौ में से निन्यानबे साधु तत्काल विदा हो जाएं। उनको रुकाए रखने का कुल एक ही आधार और कारण है: उनकी साधुता उनकी महत्वाकांक्षा के लिए, उनके अहंकार और अस्मिता के लिए भोजन है। साधु होने में भी बड़ा मजा है। और जब समाज बहुत असाधु हो, तब तो साधु होने में बड़ा ही रस है। क्योंकि आप अपनी अस्मिता को, अपने अहंकार को जितना पुष्ट कर पाते हैं, और किसी तरह न कर पाएंगे। लाओत्से से साधु भी राजी न होगा। इसलिए लाओत्से ने जब ये बातें कहीं, तो चीन में बड़ी क्रांतिकारी बातें थीं। अभी भी क्रांतिकारी हैं ढाई हजार साल बाद! और शायद अभी ढाई हजार साल और बीत जाएं, तब भी क्रांतिकारी रहेंगी। क्योंकि लाओत्से से और बड़ी क्रांति क्या होगी? लाओत्से कहता है कि मैं जो हूं, ऐसे ही जैसे कि नीम में कड़वा पत्ता लगता है, इसमें नीम का क्या कसूर? और आम में मीठा फल लगता है, इसमें आम का क्या गुण? नीम क्यों कर पीछे और नीचे हो और आम क्यों कर ऊपर बैठ जाए? भला आपके लिए उपयोगी हो, तो भी। आपकी उपयोगिता ऊंचाई-नीचाई का कोई आधार नहीं है। साधु का, न्यायविद का, नीतिशास्त्री का जो विरोध होगा, वह समझ लेना चाहिए। वह विरोध यह होगा कि समाज तो पतित हो जाएगा। लेकिन कोई भी यह नहीं देखता कि समाज इससे ज्यादा पतित और क्या होगा? समाज पतित है; हो जाएगा नहीं। और जब समाज पतित है, तो नीतिशास्त्री कहता है कि अगर हम लाओत्से जैसे लोगों की बात मान लें, तो और बिगड़ जाएगी हालत। लेकिन लाओत्से का कहना यह है कि तुम्हीं ने बिगाड़ी है यह हालत। चोर को तुम निंदित करके सुधार तो नहीं पाते हो, निंदित करके उसके बदलने की जो संभावना है, उसका द्वार बंद कर देते हो। असल में, जैसे ही हम तय कर लेते हैं निंदा और प्रशंसा, वैसे ही हम सीमाएं बांधना शुरू कर देते हैं। और जैसे ही हम निंदा और प्रशंसा के घेरे बनाने लगते हैं और किन्हीं को बुरा और किन्हीं को अच्छा कहने लगते हैं, तो जिस व्यक्ति को हम बुरा कहते हैं, धीरे-धीरे हम उसे बुरा होने को मजबूर करते हैं; और जिस व्यक्ति को हम अच्छा कहते हैं, धीरे-धीरे हम उसे उसकी अच्छाई में भी पाखंड निर्मित करवा देते हैं। क्यों? क्योंकि जिसे हम अच्छा कहते हैं, उसे हम बुरे होने की सुविधा नहीं छोड़ते। और कोई आदमी इतना अच्छा नहीं है कि उसमें बुराई हो ही नहीं। और कोई आदमी इतना बुरा नहीं है कि उसमें अच्छाई हो ही नहीं। लेकिन हम चीजों को दो टुकड़ों में तोड़ देते हैं। हम कहते हैं, यह आदमी अच्छा है, इसमें बुराई है ही नहीं। और जब उसकी जिंदगी के भीतर की बुराई का कोई हिस्सा प्रकट होना इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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