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महत्वाकांक्षा का अर्थ है, हम उसके अहंकार को दूसरे लोगों के अहंकार की प्रतियोगिता में खड़ा कर दें। हम उससे कहें कि दूसरे बच्चे आगे न निकल जाएं! तेरा पीछे रह जाना, तेरे अहंकार के लिए फिर कोई गुंजाइश न रहेगी। तो कहीं भी तू हो, तुझे प्रथम होने की कोशिश में लगे रहना है।
यह प्रथम होने की कोशिश हमारा जहर है। वस्त्र पहनते हों तो, व्यवहार करते हों तो, शिक्षित होते हों तो, धन कमाते हों तो कुछ भी करते हों-पूजा और प्रार्थना करते हों तो, त्याग और तप करते हों तो, निरंतर यह खयाल रखना है कि मैं किन्हीं और की तुलना में सोचा जा रहा हूं। सदा मुझे यह देखना है कि दूसरों को देखते हुए मैं कहां खड़ा हूं? पंक्ति में मेरा स्थान क्या है? मैं पीछे तो नहीं हूं?
अगर मैं पीछे खड़ा हूं, तो पीड़ा फलित होगी। अगर मेरे पीछे लोग खड़े हैं, तो मैं प्रफुल्लित हूं। जो प्रफुल्लित होते हैं, वे भी तभी प्रफुल्लित होते हैं, जब वे दूसरों को पीछे करने का दुख दे पाते हैं। अन्यथा उनकी प्रफुल्लता नहीं है। और पृथ्वी इतनी बड़ी है कि कोई कभी बिलकुल आगे नहीं हो पाता। और जीवन इतना जटिल है कि इसमें प्रथम होने का कोई उपाय नहीं है। जटिलता अनेकमुखी है।
एक आदमी धन बहुत कमा लेता है, तब वह पाता है कि स्वास्थ्य में कोई उससे आगे खड़ा है। सड़क पर भीख मांग रहा है आदमी, कपड़े फटे हुए हैं, लेकिन शरीर उसका बेहतर है। एक आदमी स्वास्थ्य बहुत कमा लेता है, तो पाता है, सौंदर्य में कोई दूसरा आगे खड़ा है। एक आदमी धन कमा लेता है, तो पाता है, बुद्धिमानी में कोई आगे है। और एक आदमी बहुत बड़ा बुद्धिमान हो जाता है, तो पाता है कि खाने को रोटी भी नहीं है, किसी ने बहत बड़ा महल बना लिया है।
जीवन है बहुमुखी, मल्टी डायमेंशनल; और हर दिशा में मुझे प्रथम होना है। आदमी अगर पागल न हो जाए और कोई उपाय नहीं है। जो पागल नहीं हो पाते, वे चमत्कार हैं। यह पूरा का पूरा ढांचा पागल करने वाला है। जहां भी हम खड़े हैं, वहीं पीड़ा होगी-आगे किसी को हम पाएंगे कि कोई आगे खड़ा है।
महत्वाकांक्षा का अर्थ है, कभी यह मत सोचना कि तुम कौन हो, सदा यह सोचना कि तुम दूसरे की तुलना में कौन हो। सीधे कभी स्वयं को मत देखना, सदा तुलना में, कंपेरिजन में देखना। कभी यह मत देखना कि तुम कहां खड़े हो; वहां सुख है या नहीं, इसे मत देखना। तुम सदा यह देखना कि तुम दूसरे लोगों के मुकाबले कहां खड़े हो! दूसरे लोग तुमसे ज्यादा सुख में तो नहीं खड़े हैं! यह भी फिक्र मत करना कि तुम दुख में खड़े हो; सदा यह देखना कि दूसरे लोग अगर तुमसे ज्यादा दुख में खड़े हों, तो कोई हर्जा नहीं, तुम प्रसन्न हो सकते हो।
सुना है मैंने, गांव में एक पूर आ गया, बाढ़ आ गई। और एक बूढ़े किसान से उसका पड़ोसी कह रहा है। वह बूढ़ा किसान बहुत चिंतित
और परेशान बैठा है। उसके सब खेत डूब गए, उसके गाय-भैंस खो गए, उसकी बकरियां नदी में बह गईं। और पड़ोसी उससे, बूढ़े से कह रहा है कि बाबा, बहुत चिंतित मालूम पड़ते हो; तुम्हारी सारी बकरियां नदी में बह गईं। वह बूढ़ा पूछता है, गांव में किसी और की तो नहीं बची? वह कहता है, किसी की भी नहीं बचीं। वह बूढ़ा पूछता है, तुम्हारी भी बह गईं? वह युवक कहता है, हमारी भी बह गईं। तो बूढ़ा कहता है, फिर जितना मैं चिंतित हो रहा हूं, उतना चिंतित होने का कारण नहीं है। यह सवाल नहीं है बड़ा कि मेरी बह गईं, अगर सबकी बह गई हैं, तो फिर इतना चिंतित होने का कोई कारण नहीं है।
सुख हो या दुख, विचार सदा करना है कि हम कहां खड़े हैं? पंक्ति में कहां खड़े हैं? पंक्तिबद्ध चिंतन है हमारा। मुक्त व्यक्ति की तरह हम क्या हैं, यह नहीं। पंक्ति में, कतार में हम कहां खड़े हैं? क्यू में हमारी जगह कहां है? और क्यू ऐसा है कि गोल है, वर्तुल है, सरकुलर है। उसमें हम आगे बढ़ते चले जाते हैं। कई दफा हमें लगता है, एक को पार किया, दो को पार किया, तीन को पार किया। आशा बड़ी बंधती है कि तीन को पार कर लिया तो जल्दी ही प्रथम हो जाएंगे, लेकिन हर बार पार करके पाते हैं कि आगे अभी लोग मौजूद हैं।
क्यू गोल है। वह सीधी रेखा में नहीं है कि कोई उसमें आगे पहुंच जाए। और अक्सर तो ऐसा होता है कि बहुत दौड़-दौड़ कर आगे पहुंचने वाला अचानक पाता है कि वह बहुत पीछे पहुंच गया। अगर कोई गोल घेरे में खड़े हुए क्यू में बहुत आगे पहुंचने की कोशिश करेगा, तो किसी दिन पाएगा, जिन्हें वह छोड़ गया था पीछे, वे अचानक आगे आ गए हैं।
इसलिए सफलता के शिखर पर पहुंचे लोग अक्सर विपन्न हो जाते हैं। सफलता के शिखर पर पहुंच गए लोग अक्सर फ्रस्ट्रेटेड हो जाते हैं। वह फ्रस्ट्रेशन क्या है? वह विपन्नता क्या है? वह विपन्नता यह है कि आखिर में वे पाते हैं कि शिखर पर नहीं पहुंचे; जिन्हें पीछे छोड़ गए थे, वे आगे खड़े हैं। क्यू जो है, गोलाकार है।
इसलिए लाओत्से का यह सूत्र इस संदर्भ में समझें।
लाओत्से कहता है, यदि योग्यता की पद-मर्यादा न बढ़े, तो न विग्रह हो, न संघर्ष।'
लाओत्से कहता है, योग्यता को पद क्यों बनाएं हम? योग्यता को स्वभाव क्यों न मानें!
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