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ताओ उपनिषाद (भाग-1) प्रवचन-9 महत्वाकांक्षा का जहर व जीवन की व्यवस्था-प्रवचन-नौवां
अध्याय 3: सूत्र 1
निष्क्रिय कर्म यदि योग्यता को पद-मर्यादा न मिले, तो न तो विग्रह हो और न संघर्ष। यदि दुर्लभ पदार्थों को महत्व नहीं दिया जाए,
तो लोग दस्यु-वृति से भी मुक्त रहें। यदि उसकी ओर, जो स्पृहणीय है, उनका ध्यान आकर्षित
न किया जाए, तो उनके हृदय अद्विग्न रहें।
मनुष्य की चिंता क्या है? मनुष्य की पीड़ा क्या है? मनुष्य का संताप क्या है? एक मनुष्य चिंतित हो, थोड़े से लोग परेशान हों, तो समझा जा सकता है, उनकी भूल होगी। लेकिन होता उलटा है। कभी कोई एक मनुष्य निश्चिंत होता है, कभी कोई एक मनुष्य स्वस्थ होता है; बाकी सारे लोग अस्वस्थ, अशांत और पीड़ित होते हैं। बीमारी नियम मालूम पड़ती है; स्वास्थ्य अपवाद मालूम पड़ता है। अज्ञान जीवन की आत्मा मालूम पड़ती है; ज्ञान कोई आकस्मिक घटना, कोई सांयोगिक घटना मालूम पड़ती है। ऐसा लगता है कि मनुष्य होना ही बीमार होना है, चिंतित, परेशान होना है। कभी कोई, न मालूम कैसे, हमारे बीच निश्चिंतता को उपलब्ध हो जाता है। या तो प्रकृति की कोई भूल-चूक है, या परमात्मा का कोई वरदान है। लेकिन नियम यही मालूम पड़ता है जो हम हैं: रुग्ण, पीड़ित, परेशान। लाओत्से का यह सूत्र बड़ा अदभुत है। लाओत्से यह कहता है कि इतने अधिक लोगों की परेशानी का कारण निश्चित ही मनुष्य के मन की बनावट, मनुष्य की संस्कृति के आधार, हमारे सभ्यता के सोचने के ढंग, हमारे समाज का ढांचा है। हम प्रत्येक व्यक्ति को इस भांति खड़ा करते हैं कि बीमार होना अनिवार्य है।
पश्चिम में नवीनतम खोजें यह कहती हैं कि प्रत्येक व्यक्ति जीनियस की तरह पैदा होता है, प्रतिभाशाली पैदा होता है, लेकिन हम सब मिल कर ऐसी व्यवस्था करते हैं कि उसकी प्रतिभा को हम सब तरह से कुंठित और नष्ट कर देते हैं।
स्वामी राम ने संस्मरण लिखा है कि वे जब जापान गए, तो उन्होंने वहां देवदार के आकाश को छूने वाले वृक्षों को एक-एक बालिश्त का देखा, एक-एक बिते का देखा। वह बहुत हैरान हुए। वृक्ष छोटे पौधे नहीं थे, सौ-सौ, डेढ़-डेढ़ सौ वर्ष पुराने थे। लेकिन उनकी ऊंचाई एक बालिश्त थी।
तो उन्होंने मालियों से पूछा कि इसका राज क्या है?
तो मालियों ने गमले उलटा कर बताया। नीचे से गमले टूटे हुए थे। और नियमित रूप से वृक्षों की जड़ें काट दी जाती थीं। नीचे जड़ें नहीं बढ़ पाती थीं, ऊपर वृक्ष नहीं बढ़ पाता था। वृक्ष पुराना होता जाता, बूढ़ा हो जाता, लेकिन बालिश्त से ऊपर न उठ पाता। क्योंकि उठने के लिए जड़ों का नीचे जाना जरूरी है, जमीन में प्रवेश करना जरूरी है। वृक्ष उतना ही ऊपर जाता है, जितना नीचे उसकी जड़ें चली जाती हैं। अब अगर माली यह तय कर ले कि जड़ों को नीचे पहुंचने ही नहीं देना है, काटते चले जाना है, तो वृक्ष बूढ़ा होता जाएगा, लेकिन बड़ा नहीं होगा।
मनुष्य को बड़ा करने की हमारी जो व्यवस्था है, वह जड़ों को काटने वाली है। इसलिए जितने लोग हमें दिखाई पड़ते हैं जमीन पर, वे बालिश्त भर ऊंचे उठ पाए। वे लोग आकाश को भी छू सकते थे। जहर हम जड़ों में डाल देते हैं।
लेकिन इतने जमानों से जहर डाला जा रहा है कि कभी स्मरण नहीं आता। फिर हर पीढ़ी डाल जाती है। आपके बुजुर्ग आपकी जड़ों में जहर डाल जाते हैं। और जो आपके बुजुर्गों ने आपके साथ किया था, वह आप अपने बच्चों के साथ कर देते हैं। स्वभावतः, हर पिता अपने बेटे के साथ वही दुहराता है, जो उसके बाप ने उसके साथ किया था। एक वीसियस सर्किल है, फिर एक दुष्चक्र की भांति बात दुहरती चली जाती है।
इस जहर के लिए ही लाओत्से ने कुछ बातें कही हैं।
इन बातों को समझने के लिए सबसे पहले यह समझ लेना होगा कि मनुष्य के मन में जो जहर सबसे ज्यादा डाला गया है, वह महत्वाकांक्षा का, एंबीशन का है। हमारी सारी समाज की व्यवस्था महत्वाकांक्षा पर खड़ी है। छोटे से बच्चे को भी हम महत्वाकांक्षी बनाते हैं। उसे एक दौड़ में लगाते हैं, एक ऐसी दौड़ में, जहां उसे हर स्थिति में प्रथम आने के लिए उद्विग्न किया जाता है। चाहे वह पढ़ता हो स्कूल में, चाहे खेलता हो, चाहे आचरण सीखता हो, चाहे वस्त्र पहनता हो, वह जो भी कर रहा है या जो भी हम उससे करवाना चाहते हैं, उसके करवाने का एक ही सूत्र है कि हम उसे महत्वाकांक्षा में जकड़ दें, हम उसे प्रतिस्पर्धा में और काम्पिटीशन में बांध दें।
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