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होना बड़ा मुश्किल है। तो एक जगह ईसाइयों के सभी संप्रदाय के लोगों का एक सम्मेलन हो रहा है। तो वहां एक फ्रांसिस का अनुयायी फकीर कहता है कि हम कैथलिकों जैसे परंपरा के धनी नहीं हैं, यह सच है; और हम ट्रैपिस्ट-एक संप्रदाय है ईसाइयों काउसके जैसे बुद्धिसंपन्न नहीं हैं, यह भी सच है; और हम क्वेकर-ईसाइयों का दूसरा संप्रदाय-उसके जैसे प्रार्थना में कुशल नहीं हैं, यह भी सच है; बट इन युमिलिटी वी आर एट दि टॉप! वह कहता है, पर विनम्रता में हम तो सबसे ऊपर हैं।
सब गड़बड़ हो गया। इन युमिलिटी वी आर एट दि टॉप! ह्युमिलिटी का मतलब ही क्या होता है? विनम्रता में तो हम सर्वश्रेष्ठ हैं, सर्वोपरि हैं! उसमें हमारा कोई मुकाबला नहीं! हम फ्रांसिस के अनुयायी हैं।
विनम्रता में सर्वोपरि! विनम्रता का मतलब ही यह होता है कि किसी के ऊपर न होने का भाव-किसी के ऊपर। सबसे पीछे होने का भाव!
जीसस ने कहा है, धन्य हैं वे, जो अंतिम खड़े हैं, क्योंकि मेरे स्वर्ग के राज्य में वे ही प्रथम होंगे।
मगर यह सारी की सारी धारा, यह हवा लाओत्सियन है। श्रेय का दावा मत करना।
मगर अज्ञान में तो दावा होगा ही। यहां तक हो सकता है, जैसा इस फ्रांसिसियन फकीर के साथ हुआ कि इन युमिलिटी वी आर एट दि टॉप। ऐसा भी हो सकता है कि हम श्रेय का दावा बिलकुल नहीं करते। लेकिन तब दावा हो गया। और चित्त की सूक्ष्म जटिलताओं में यही सबसे बड़ा खेल है कि चित्त यह भी कह सकता है कि हम श्रेय का दावा नहीं करते। तब दावा हो गया। और चित्त यह भी कह सकता है कि चूंकि ज्ञानी कहते हैं कि हम अज्ञानी हैं, इसलिए हम भी कहते हैं कि हम अज्ञानी हैं। लेकिन तब कोई बात हाथ न आई। फिर तो हम घूम कर वही करने लगे। और मन घूम कर वही कर लेता है।
लाओत्से की दृष्टि, जीवन का जो जटिलता का चक्र है, उसको ही छिन्न-भिन्न कर देने की है। वह जटिलता का चक्र क्या है? वह चक्र यह है कि जिस बात की हम कोशिश करते हैं, उसी को हम चूक जाते हैं। करीब-करीब ऐसा ही है, जैसे कोई नींद लाने की कोशिश करे और चूक जाए, कोशिश से नींद न आए। और कोई कोशिश न करे और नींद आ जाए!
लाओत्से कहता है, श्रेय का दावा किया, तो वंचित हो जाओगे। दावा न किया, तो श्रेय मिला ही हुआ है। मालकियत जमानी चाही, तो गुलामी में पड़ जाओगे। अन्यथा मालकियत को छीनता कौन है! अगर मांगा, तो दुख पाओगे। क्योंकि मांगने से जगत में कुछ भी नहीं मिलता। नहीं मांगा, तो सब मिला ही हुआ है।
उलटे दिखाई पड़ने वाले ये सूत्र उलटे नहीं हैं। मगर हम उलटे हैं, इसलिए हमें उलटे दिखाई पड़ सकते हैं, हम उलटे हैं। हमें जो भी दिखाई पड़ता है, वह उलटा दिखाई पड़ सकता है। लाओत्से हमें उलटा दिखाई पड़ेगा कि सिर के बल खड़ा है यह आदमी। श्रेय पाना हो, तो सीधा सूत्र है कि श्रेय पाने की कोशिश करो। यश पाना हो, यश पाने की चेष्टा करो। सुख पाना हो, सुख पाने की चेष्टा करो। सीधा सूत्र है। हम जो सब अपने पैर पर खड़े हैं, लाओत्से हमें सिर पर खड़ा हुआ, शीर्षासन करता हुआ मालूम पड़ेगा! कि यह क्या बातें कर रहे हो कि सुख पाना है, तो सुख पाने की चेष्टा मत करो, तो फिर सुख कैसे मिलेगा? हमें तो चेष्टा कर-करके भी नहीं मिल रहा है। तुम कहते हो, चेष्टा मत करो। तब तो गए। तब तो बिलकुल ही नहीं मिलेगा।
ध्यान रखें, हमारे मन का तर्क हमें कहां भटकाता है? वह कहता है, इतनी चेष्टा करके जब नहीं मिल रहा, तो बिना चेष्टा किए कैसे मिलेगा? लेकिन लाओत्से कहेगा कि चेष्टा कर रहे हो इतनी, इसीलिए नहीं मिल रहा। एक बार बिना चेष्टा किए हुए भी देखो!
फिर चेष्टा करके देख चुके हो। जन्मों-जन्मों तक चेष्टा करके आदमी देख चुका है। कुछ मिलता नहीं। फिर भी हमारी चेष्टा जारी रहती है। क्योंकि मन कहता है कि और थोड़ी चेष्टा की कमी रह गई होगी, इसलिए नहीं मिल रहा। और थोड़ी चेष्टा! और थोड़ी चेष्टा! यह मन का तर्क कभी थकता ही नहीं। और युक्तिपूर्ण लगता है कि ठीक है, अगर अभी तक नहीं पहुंच पाए पहाड़ पर, तो थोड़ा और श्रम करना पड़ेगा।
लेकिन लाओत्से कहता है कि तुम्हारी चेष्टा ही तुम्हें रोक रही है। तुम छोड़ दो चेष्टा।
क्या कारण होगा ऐसा? ऐसा लाओत्से क्यों कह पाता है?
ऐसा इसलिए कहता है कि जीवन में जो भी पाने योग्य है, वह हमें सदा से ही मिला हुआ है। चेष्टा की वजह से हम इतने व्यस्त
और परेशान हैं कि हम उसे देख नहीं पाते। कई बार, जो हमारे पास हो चीज, अगर आप बहुत जल्दी में उसे खोजने लग जाएं और बहुत बेचैन हो जाएं, तो खो जाती है। जो बिलकुल मिली हुई थी, वह खो जाती है। बहुत बार ऐसा होता है कि आप किसी का नाम याद कर रहे हैं और कहते हैं, जबान पर रखा है। मगर इतनी जल्दी है याद करने की, वह आदमी सामने खड़ा है। वह पूछता है, पहचाना कि नहीं! अब बड़ी बेचैनी है। जानते हैं कि पहचानते हैं, सो यह भी नहीं कह सकते कि नहीं। सब जाना हुआ आदमी है, चेहरा
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