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और अक्सर कोई और ही उसका श्रेय लेता है। अक्सर कोई और ही उसका श्रेय लेता है। वह इतना चुपचाप करके कोने में सरक जाता है! श्रेय लेने वाला कब बीच में आकर सामने खड़ा हो जाता है!
ज्ञानी अक्सर ही चुपचाप, करते वक्त सामने होता है, श्रेय लेते वक्त पीछे हट जाता है। क्यों? क्योंकि ज्ञानी का मानना यह है कि कर्तव्य में ही इतना आनंद है; कर्तव्य अपने में पूरा आनंद है। श्रेय तो वे लेना चाहते हैं, जिन्हें कर्तव्य में आनंद नहीं मिलता।
एक मां अपने बेटे को बड़ा कर रही है। अगर उसे बड़ा करने में आनंद है, तब वह कहती हई नहीं फिरेगी कि मैंने बेटे को बड़ा किया है। और अगर कभी वह कहती हुई फिरती है कि मैंने बड़ा किया और नौ महीने पेट में रखा और इतना श्रम उठाया, तो जानना चाहिए कि वह मां के आनंद से वंचित रह गई। उसने नर्स का काम किया होगा; वह मां नहीं हो पाई। क्योंकि मां होना तो इतना आनंदपूर्ण था कि सचाई तो यह है कि अगर सच में मां होने का उसे पूरा आनंद आ गया होता, तो अब इस बेटे से कुछ और लेने का सवाल नहीं उठता। जितना आनंद मिल गया है, वह उसके कर्तव्य से बहुत ज्यादा है।
तो अक्सर ऐसा होगा कि ज्ञानी आपको धन्यवाद दे देगा कि आपने अवसर दिया कि उसे थोड़ा सा आनंद मिल सका। आपसे धन्यवाद की अपेक्षा नहीं करेगा।
"चूंकि वे श्रेय का दावा नहीं करते, इसलिए उन्हें श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता।'
लाओत्से आखिरी वचन कहता है कि चूंकि वे श्रेय का दावा नहीं करते, इसलिए उन्हें श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता। वंचित तो उसी को किया जा सकता है, जो दावेदार है। दावे का खंडन हो सकता है। लेकिन जिसने दावा ही नहीं किया, उसका खंडन कैसे होगा? जिसने कहा ही नहीं कि मैंने कुछ किया है, कैसे आप उससे कहिएगा कि तुमने नहीं किया है। जिसने कभी घोषणा ही नहीं की, उसके इनकार करने का सवाल नहीं उठता है।
तो लाओत्से कहता है, जो अपने श्रेय का दावा नहीं करते, उन्हें कभी श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता। वंचित उन्हीं को किया जा सकता है, जो दावा करते हैं। और मजा यह है कि दावा वे ही करते हैं, जो पहले से ही वंचित हैं, जिन्हें कुछ मिला ही नहीं। दावे की इच्छा ही इसलिए पैदा होती है कि कोई आनंद कृत्य में तो उपलब्ध नहीं हुआ, अब श्रेय पाने में उपलब्ध हो जाए। और दावे की इच्छा इसलिए भी पैदा होती है कि वस्तुतः अगर आपने कर्तव्य न किया हो, तो दावे की इच्छा पैदा होती है। क्योंकि कर्तव्य अपने आप में इतना टोटल, इतना संपूर्ण है कि उसके ऊपर कोई दावे का सवाल नहीं उठता। लेकिन जिसने पूरा नहीं किया, उसके भीतर पश्चात्ताप, रिपेंटेंस, उसके पीछे कुछ ग्लानि सरकती रहती है कि मैं नहीं कर पाया। वह यह नहीं कर पाया, इस कीड़े को दबाने के लिए, मैंने किया, इसकी उदघोषणा करता है।
जो मां अपने बेटे के लिए कुछ न कर पाई हो, वह घोषणा करेगी कि उसने क्या-क्या किया। और जो मां अपने बेटे के लिए बहुत कुछ कर पाई हो, वह सदा कहेगी कि वह क्या-क्या नहीं कर पाई। उसको सदा खलेगा वही जो वह नहीं कर पाई, जो कि किया जाना था, नहीं कर पाई। और जब कोई मां इस बात की याद करती है कि वह अपने बेटे के लिए क्या-क्या नहीं कर पाई, तो वह खबर देती है कि वह मां है। और जब कोई मां इस बात की खबर देती है कि उसने अपने बेटे के लिए क्या-क्या किया, तो वह खबर देती है कि वह मां नहीं है।
जीवन में दावा सिर्फ ग्लानि से पैदा होता है।
मनोवैज्ञानिक भी अब इस सत्य से स्वीकृति देते हैं। विशेषकर एडलर, इस युग के तीन बड़े मनोवैज्ञानिकों में एक, वह लाओत्से की इस बात को बहुत गहनता से स्वीकार करता है। एडलर कहता है कि जो आदमी दावा करता है, वह दावा इसीलिए करता है कि उसे भीतर अनुभव होता है कि वह दावे के योग्य नहीं है। और जो आदमी हीन होता है, वह महत्वाकांक्षी हो जाता है। और जो आदमी भीतर भयभीत होता है, वह बाहर से बहादुरी के आवरण बना लेता है। और जो आदमी भीतर निर्बल होता है, वह सबलता की घोषणाएं करता फिरता है। जो आदमी भीतर अज्ञानी होता है, वह बाहर ज्ञान की पर्तों को निर्मित कर लेता है। एडलर कहता है, जो आदमी भीतर होता है, उससे उलटी घोषणा करता है। ठीक उससे उलटी घोषणा करता है! क्योंकि वह जो भीतर है, वह कष्ट देता है। वह अपने ही भीतर को अपनी ही उलटी घोषणा से पोंछना, मिटाना, समाप्त करना चाहता है।
इसमें बहुत दूर तक सचाई है। इसमें बहुत दूर तक सचाई है। जो लोग हीन-ग्रंथि से पीड़ित होते हैं, इनफीरियारिटी कांप्लेक्स से पीड़ित होते हैं, वे ऐसी कोशिश में लग जाते हैं कि दुनिया को दिखा दें कि वे कुछ हैं। जब तक वे दुनिया को न दिखा पाएं कि वे कुछ हैं, तब तक वे अपनी ही हीनता की ग्रंथि के बाहर नहीं हो पाते। जिस दिन दुनिया मान लेती है कि हां, तुम कुछ हो, उस दिन उनको भी मानने में सुविधा हो जाती है कि मैं कुछ हूं। हालांकि वह जो भीतर ना-कुछपन है, वह तो मौजूद ही रहेगा। वह ऐसे मिटने वाला नहीं है। लेकिन फिर भी धोखा, सेल्फ-डिसेप्शन, आत्मवंचना हो जाती है।
लाओत्से की यह बात कि वे श्रेय का दावा नहीं करते...।
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