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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free ज्ञानी को धोखा नहीं दिया जा सकता । ज्ञानी से कुछ छीना नहीं जा सकता। ज्ञानी से कुछ चुराया नहीं जा सकता। ज्ञानी का कुछ मिटाया नहीं जा सकता। क्योंकि उस सबका जो मूल सूत्र है, वह कभी उस मूल सूत्र को ही नहीं जमने देता है। वह मालिक ही नहीं बनता है। इसे थोड़ा समझें कि मालकियत हमारे कष्टों का आधार है। और हमें पता ही नहीं चलता। हम इतने चुपचाप मालिक बन जाते हैं जिसका कोई हिसाब नहीं है। नहीं, हम ऐसी चीजों के मालिक तो बन ही जाते हैं, जिन पर हमें मालकियत की सुविधा दिखाई पड़ती है; जहां कोई सुविधा नहीं होती, वहां भी हम मालकियत का भाव पैदा कर लेते हैं। जहां कोई उपाय नहीं होता, वहां भी हम मालकियत का भाव पैदा कर लेते हैं। हमें जरा सा मौका भर मिल जाए कहीं बैठने का कि हम मालिक हो जाते हैं। कई बार तो ऐसी जगह हम मालिक हो जाते हैं, जहां कि कल्पना भी नहीं हो सकती थी मालिक होने की पूरी जिंदगी हमारी ऐसी मालकियतों से भरी है। अगर आप मेरे पास दो क्षण आए हों और मैंने आपको प्रेम से बिठाया है, तो आपको पता हो या न हो, आप मुझ पर भी मालकियत करना शुरू कर देंगे। तत्काल! जब तक मेरी सुविधा होती है, मैं उन्हें उत्तर है, सिर्फ मेरा पत्र पाने को वे कुछ भी लिखे जा रहे हैं। हुआ पत्र आ जाता है। तब मैं थोड़ा हैरान होता हूं। मुझे लोग पत्र लिखते हैं। नियमानुसार मैं उनके पहले पत्र का उत्तर देता हूं। फिर मेरा पत्र पहुंचा कि दूसरा पत्र तत्काल, तीसरा पत्र देता हूं। लेकिन तब शीघ्र ही मैं पाता हूं कि अब उन्हें लिखने को कुछ भी नहीं तब मैं रुकता हूं। मैं दो-चार पत्रों का उत्तर नहीं देता कि उनका गाली-गलौज से सोचता हूं कि क्या, हुआ क्या होगा! भरा मैंने दो पत्रों का उत्तर दिया, मालकियत उन्होंने स्थापित कर ली कि उनके पत्र के उत्तर मिलते हैं। अब अगर मैं नहीं दे रहा हूं पत्र का उत्तर, आठ दिन देरी कर दी है, नहीं दिया, तो उनका उत्तर आ जाता है, जिसमें क्रोध साफ जाहिर होता है कि आपने अभी तक उत्तर क्यों नहीं दिया? वे दुख पा रहे होंगे, इसलिए क्रोध है। वे पीड़ा पा रहे होंगे, इसलिए क्रोध है। लेकिन आपको हक है पत्र लिखने का, लेकिन आपने पत्र लिखा, इससे अनिवार्यता हो गई कि मैं उत्तर दूं? मैं आपको पत्र लिखूं, यह मेरा हक है कि मैं पत्र लिखूं। लेकिन उत्तर आना ही चाहिए, यह तो कोई अनिवार्यता नहीं है। अगर लिखने को मैं स्वतंत्र हूं, तो न लिखने को भी आप स्वतंत्र हैं। नहीं, पर मन ऐसी सूक्ष्म जगह पर भी इंतजाम कर लेता है मालकियत का और फिर बहुत दुख पाता है। लाओत्से कहता है, वे इन समस्त प्रक्रियाओं से गुजरते हैं। जिसे हम जीवन कहें, वह प्रक्रियाओं का एक लंबा फैलाव है। प्रतिपल कोई प्रक्रिया चल रही है चाहे प्रेम की, चाहे घृणा की, चाहे धन की, चाहे मित्रता की कोई न कोई प्रक्रिया प्रतिपल चल रही है। श्वास चल रही है, नींद आ रही है, भोजन कर रहे हैं, आ रहे हैं, जा रहे हैं। लेकिन इस सारी प्रक्रियाओं के जाल में ज्ञानी इनका स्वामी नहीं बनता है। इसलिए उसे कभी कोई च्युत नहीं कर सकता; उसके स्वामित्व से कभी कोई उसे नीचे नहीं उतार सकता। लाओत्से कहता है, “वे कर्तव्य निभाते हैं, पर श्रेय नहीं लेते।' जो करने योग्य मालूम होता है, वह कर देते हैं; लेकिन कभी श्रेय नहीं लेते। वे कभी यह नहीं कहते कि तुम मानो कि हमने ऐसा किया, कि स्वीकार करो कि हमने ऐसा किया था। नसरुद्दीन एक नदी में नहा रहा है। गहरी नदी है। उसे अंदाज नहीं, आगे बढ़ गया और डूबने की हालत हो गई। एक आदमी ने उसे निकाल कर बचाया। फिर वह आदमी जहां भी मिल जाता उसे रास्ते में, बाजार में, मस्जिद में वह कहता, याद है, मैंने ही तुम्हें बचाया था! नसरुद्दीन परेशान आ गया। कोई मौका न चूके वह आदमी। जहां भी मिल जाए, वह कहे, नसरुद्दीन याद है, मैंने तुम्हें नदी में डूबते से बचाया था। एक दिन नसरुद्दीन ने उसका हाथ पकड़ा और उसे कहा कि याद है, जल्दी मेरे साथ आओ। उसने कहा, कहां ले जाते हो? उसने कहा, जल्दी तुम मेरे साथ आओ। नदी के किनारे खड़े होकर नसरुद्दीन कूद पड़ा। जितने गहरे पानी में उसने बचाया था, उसमें खड़े हो कहा कि मेरे भाई, अब तू जा, बचाना मत। वह बहुत मंहगा पड़ गया था। तू जा! अब हम बच सकेंगे तो बच जाएंगे, मरेंगे जाएंगे। बाकी तू मत बचाना। तू देख ले कि अब हम बिलकुल उतने ही पानी में आ गए हैं न, जितने पानी से तूने निकाला था ! अब तू जा। हम जो भी थोड़ा सा कर लेते हैं, तो उसका ढिंढोरा पीटते फिरते हैं। वह ढिंढोरा पीटना ही बताता है कि वह हमारे लिए कर्तव्य नहीं था; वह सौदा था। उस करने में हमने कोई आनंद नहीं पाया था। उसमें भी हमने कोई बार्गेन किया था। उसमें भी हमने कोई सौदा किया था; उसमें भी हम...हम उसमें भी अर्थशास्त्र के बाहर नहीं थे। लाओत्से कह रहा है, कर्तव्य तो वे निभाते हैं, पर श्रेय नहीं लेते। काम पूरा हो जाता है कि चुपचाप हट जाते हैं। बात निपट जाती है, तो चुपचाप विदा हो जाते हैं। इतनी देर भी नहीं रुकते कि आप उन्हें धन्यवाद दे दें। इतनी देर भी नहीं रुकते कि आप उन्हें धन्यवाद दे दें। और अक्सर ऐसा होता है कि ज्ञानी जो करता है, वह इतनी शांति से करता है कि आपको पता ही नहीं चलता कि उसने किया; इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं - देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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