________________
Download More Osho Books in Hindi
Download Hindi PDF Books For Free
सब अधिकार वापसी की मांग करते हैं। अधिकार का अर्थ ही क्या होता है? अधिकार का अर्थ यह होता है, कुछ मैंने किया है, अब मैं अधिकारी हुआ वापस कुछ पाने का; प्रत्युत्तर पाने का मैं अधिकारी हुआ। अगर नहीं मिलेगा, तो दुख पाऊंगा। और मजे की बात है कि जिस-जिस बात का हम अधिकार कर लेते हैं। मिले तो सुख नहीं मिलता, न मिले तो दुख मिलता है। अगर मैंने समझा कि किसी को मैंने प्रेम दिया है, तो जब मैं मुसीबत में होऊंगा तो मुझे उसकी सहायता मिलेगी। मिले तो मेरे मन में धन्यवाद नहीं उठेगा। क्योंकि अधिकार जब है, तो यह तो होना ही चाहिए, वही हो रहा है। धन्यवाद का कोई सवाल नहीं है। जो होना चाहिए, वही हो रहा है। मुझे कोई सुख भी नहीं मिलेगा, क्योंकि जब टेकेन फार ग्रांटेड, कोई चीज स्वीकृत ही है, तो उससे कभी सुख नहीं मिलता।
मैं राह पर चलता हूं और मेरी पत्नी मुझे, मेरा रूमाल गिर जाए, उठा कर दे दे, तो कोई सुख का सवाल नहीं है। लेकिन अजनबी स्त्री उठा कर दे दे, तो सुखद है। उसे धन्यवाद भी मैं दूंगा। उससे कोई अपेक्षा न थी। मेरी मां रात भर बैठ कर मेरा सिर दबाती रहे, तो कोई सवाल नहीं है। लेकिन कोई और स्त्री सिर दबा दे घड़ी भर, तो शायद जीवन भर उसे मैं न भूलूं। जहां अधिकार है, वहां चीजें जैसी होनी चाहिए, उसकी अपेक्षा है। अगर हों, तो कोई सुख नहीं मिलता; अगर न हों, तो बड़ा दुख मिलता है।
अब यह बड़े मजे की बात है कि अधिकार सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं लाता। सुख तो लाता ही नहीं, क्योंकि सुख स्वीकार कर लिया गया है कि होना ही चाहिए। नहीं हो, तो दुख आता है।
लाओत्से कहता है कि ज्ञानी जीवन प्रदान करते हैं, अधिकृत नहीं करते।
असल में, ज्ञानी सुख का राज जानता है, रहस्य जानता है। जो हम करते हैं, उससे उलटी है उसकी स्थिति। चूंकि वह अधिकार नहीं करता, इसलिए अगर कोई कर जाता है, तो सुख पाता है। अगर कोई नहीं कर जाता, तो दुख का कोई कारण नहीं है, क्योंकि अपेक्षा कोई थी ही नहीं कि कोई करे।
ध्यान रखें, हमसे ठीक उसकी उलटी स्थिति है। अगर कोई उसे खाने के लिए पूछ लेता है, तो वह परम सौभाग्यशाली अनुभव करता है, अनुगृहीत होता है, ग्रेटिटयूड मानता है। क्योंकि यह उसने कभी सोचा ही नहीं था कि कोई दो रोटी के लिए पूछेगा। अन्गृहीत होता है कि परम कृपा है कि किसी ने दो रोटी के लिए पूछा। कोई न पूछे, तो वह दुखी नहीं होता। क्योंकि उसने कभी अपेक्षा न की थी कि कोई पूछेगा। अपेक्षा के पीछे दुख है; अधिकार के पीछे दुख है। मालकियत के पीछे सिवाय नर्क के और कुछ भी नहीं है।
इसलिए जहां-जहां मालकियत है, वहां-वहां नर्क है। वह मालकियत किसी भी शक्ल में हो-वह पति की पत्नी पर हो, पत्नी की पति पर हो, मित्र की मित्र पर हो, बाप की बेटे पर हो, गुरु की शिष्य पर हो-वह मालकियत कहीं भी हो, किसी भी शक्ल और किसी भी रूप में हो, जहां मालकियत है उसी की आड़ में नर्क पनपता है। और जहां मालकियत नहीं है, उसी खुले आकाश में स्वर्ग का जन्म होता है।
तो जहां-जहां आपको नर्क दिखाई पड़े, वहां-वहां तत्काल समझ लेना कि मालकियत खड़ी होगी। उसके बिना नर्क कभी नहीं होता है। जहां-जहां दुख हो, वहां जान लेना कि यह मालकियत दुख दे रही है।
लेकिन हम बहुत अजीब हैं। हम कभी ऐसा अनुभव नहीं करते कि हमारी मालकियत की वजह से दुख आता है। हम समझते हैं, दूसरे की गलतियों की वजह से दुख आता है। और इसलिए इससे उलटा भी हम कभी नहीं समझ पाते कि हमारी गैर-मालकियत की वजह से सुख आता है। वह भी हम नहीं समझ पाते।
लेकिन जहां भी सुख है, वहां गैर-मालकियत है, वहां अधिकार का भाव नहीं है। और जहां भी दुख है, वहां अधिकार का भाव है। और ज्ञानी तो वही है; अगर इतना भी ज्ञान में ज्ञान नहीं है कि वह नर्क से अपने को ऊपर उठा सके, तो ज्ञान का कोई मूल्य ही नहीं है।
लाओत्से कहता है, “वे जीवन प्रदान करते हैं।'
वे जीवन भी दे देते हैं। प्रेम ही नहीं, सब कुछ, जो दे सकते हैं, दे देते हैं। लेकिन लौट कर कोई मांग नहीं करते।
“वे इन समस्त प्रक्रियाओं से गुजरते हैं, परंतु इनके स्वामी नहीं बनते।'
वे जीवन के सब रूपों से गुजरते हैं, सब प्रक्रियाओं से, एवरी प्रोसेस। वे बचपन में बच्चे होते हैं, जवानी में जवान होते हैं, बुढ़ापे में बूढ़े हो जाते हैं। जवानी से गुजरते वक्त वे जवानी के मालिक नहीं बनते। मालिक जो बनेगा जवानी का, बुढ़ापा आने पर रोएगा, पछताएगा, चिल्लाएगा; मालकियत छिनी। वे जवानी से गुजरते हैं ज्ञानी, लेकिन मालकियत नहीं करते। इसलिए जब बुढ़ापा आता है, तो वे उसका भी स्वागत करते हैं। वे जीवन से गुजरते हैं, लेकिन जीवन के मालिक नहीं बनते। इसलिए जब मौत आती है, तो उन्हें दरवाजे पर आलिंगन फैलाए हुए पाती है। वे जीवन की कोई मालकियत नहीं करते, इसलिए मृत्यु उनसे कुछ छीन नहीं सकती।
ध्यान रहे, छीना तभी जा सकता है, जब आप में स्वामित्व का भाव जग जाए। आपकी चोरी तब की जा सकती है, जब स्वामित्व का भाव जग जाए। आपको लूटा तब जा सकता है, जब आप में स्वामित्व का भाव जग जाए। आपको धोखा तब दिया जा सकता है, जब आप में स्वामित्व का भाव जग जाए।
इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज