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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free नहीं, लाओत्से तो कहता है, ज्ञानीजन मुक्त होने की भी चेष्टा नहीं करते। ज्ञानीजन चेष्टा ही नहीं करते। क्योंकि सब चेष्टाएं बांध लेने वाली सिद्ध होती हैं। ज्ञानीजन कामना नहीं करते कि ऐसा हो। क्योंकि जो भी ऐसी कामना करेगा कि ऐसा हो, वह दुख में पड़ेगा। क्योंकि यह जगत किसी की कामनाओं को मान कर नहीं चलता, यह जगत अपने नियम से चलता है। कभी आपकी कामना उसके अनुकूल पड़ जाती है, तो आपको भ्रम होता है कि सागर की लहरें आपकी मान कर उठ रही हैं। और कभी जब सागर की लहरें नहीं उठ रही होती हैं, और आप पुरानी कविता दोहराए चले जाते हैं कि उठो लहरो, चलो लहरो। वे नहीं चलतीं, तो आप दुखी होते हैं। सागर न तो आपकी मान कर चलता है, न आपकी सुन कर रुकता है। यह संयोग की बात है कि आपकी कामना कभी सागर की लहरों से मेल खा जाती और कभी मेल नहीं खाती। कभी आप जीतते चले जाते हो, तो आप सोचते हो, मैं जीत रहा हूं। और कभी आप हारते चले जाते हो, तो आप सोचते हो, मैं हार रहा हूं। लेकिन सच्चाई कुल इतनी है कि वस्तुओं का स्वभाव ऐसा है कि कभी संयोग होता है कि आपको जीतने का भ्रम पैदा होता है; और कभी संयोग होता है कि आपको हारने का भ्रम पैदा होता है। कभी आप जो भी पांसा फेंकते हो, वही ठीक पड़ जाता है; और कभी आप जो भी पांसा फेंकते हो, कोई भी ठीक नहीं पड़ता है। कुल सवाल इतना ही है कि वस्तुओं के स्वभाव के अनुकूल हो गया, तो ठीक पड़ जाता है; प्रतिकूल हो गया, तो ठीक नहीं पड़ता है। सुना है मैंने कि एक व्यक्ति वर्षों से बाजार में नुकसान खा रहा है। वह जो भी ढंग से सौदा करता, नुकसान पाता है। अरबपति था। करोड़ रुपए उसने नुकसान में गंवाए। उसके सब मित्र उसके नुकसान होने की इस नियमितता से परिचित हो गए थे। इसलिए जो भी वह करता था, उसके मित्र उससे उलटा कर लेते थे, और सदा फायदे में रहते थे। यह बात इतनी जाहिर हो गई थी कि पूरा मार्केट उसको देख कर चलता था कि वह क्या कर रहा है। वह जो कर रहा है, वह भर भल कर नहीं करना। वर्षों के बाद एक दिन अचानक मामला उलटा हो गया। उसने कुछ किया। उसके मित्र नियमित अनुसार, जैसा सदा करते थे, उससे उलटा किए। और सब हारे। उसने पूरे मार्केट पर कब्जा कर लिया। मित्र उसके पास गए और कहा, चमत्कार कर दिया, बात क्या है? ऐसा कभी नहीं हुआ! उस आदमी ने कहा कि मैं वर्षों से हार रहा हूं। आज अपने वर्षों का हिसाब-किताब देख रहा था, तब मुझे खयाल आया कि अब जो मेरा सिद्धांत कह रहा है, करो, वह न करूं इस बार। जिस सिद्धांत से मैं चलता हूं। तो इस बार मैं अपने खिलाफ चला हूं। जैसा तुम मेरे खिलाफ सदा चलते रहे हो, इस बार मैं अपने खिलाफ चला हूं। मेरा सिद्धांत तो कह रहा था कि खरीद करो, मैंने बेचा। उसको बेचते देख कर सारे लोगों ने खरीद की, क्योंकि वह जो करे, उससे उलटा करने में सदा फायदा था। उस आदमी ने कहा कि मुझे पहली दफे खयाल आया कि मैं चीजों के स्वभाव के बिलकुल प्रतिकूल ही चलता रहा हूं सदा से, अपनी जिद्द ठोकता रहा हूं। मुझे पता नहीं कि सही क्या है। लेकिन एक बात पक्की थी कि मैं गलत होऊंगा-इतने पांच-दस साल का जो अनुभव है। इसलिए अपने से उलटा चल कर देखा। आज मैं कह सकता हूं, उस आदमी ने कहा कि मैं हार रहा था, यह कहना भी गलत है; मैं जीत रहा था, यह कहना भी गलत है। वस्तुओं के स्वभाव के अनुकूल जब आदमी पड़ जाता है, तो जीत जाता है। प्रतिकूल जब पड़ जाता है, तो हार जाता है। और इस सत्य को अगर कोई ठीक से देख ले, तो लाओत्से कहता है, वह विमुख नहीं होता। वह जिंदगी में खड़ा रहता है। जैसी है जिंदगी, वैसे ही खड़ा रहता है। वह भाग कर भी कहीं नहीं जाता, क्योंकि वह यह नहीं मानता कि जिंदगी से भागना संभव है। और अगर भागना आ जाए, तो रुकता भी नहीं है। इसको समझ लेना आप, नहीं तो गलती होगी। नहीं तो गलती होगी। अगर भागना घटित हो जाए, तो वह रुकता भी नहीं है, वह भागने के भी साथ हो जाता है। अपनी तरफ से वह कुछ नहीं करता है, जो घटित होता है उसमें बहता है। ऐसा समझें कि वह तैरता नहीं है, बहता है। वह हाथ-पैर नहीं मारता नदी की धारा में, वह नदी की धारा में अपने को छोड़ देता है। और धारा से कहता है, जहां ले चलो, वही मेरी मंजिल है। निश्चित ही, ऐसी स्थिति में रहने वाले व्यक्ति के जीवन में जो घटित होगा, वह अभूतपूर्व होगा। उस अभूतपूर्व का ब्यौरा दिया है उसने। “उन्हें वे जीवन प्रदान करते हैं, किंतु अधिकृत नहीं करते।' ज्ञानी जिस चीज के संपर्क में आता है, उसी को जीवन प्रदान करता है। किंतु अधिकृत नहीं करता, उसका मालिक नहीं बनता है। जीवन देता है, सब दे देता है जो उसके पास देने को है, लेकिन फिर भी अधिकार स्थापित नहीं करता। क्योंकि लाओत्से कहता है, जिस पर तुमने अधिकार स्थापित किया, उसे तुमने बगावत के लिए भड़काया; जिस पर तुमने मालकियत कायम की, उसको तुमने दुश्मन बनाया; जिसकी तुमने स्वतंत्रता छीनी, उसे तुमने स्वच्छंद होने के लिए उकसाया। अधिकृत नहीं करता ज्ञानी। जो भी है, दे देता है, लेकिन देने के साथ लेने की कोई शर्त नहीं बनाता। अगर प्रेम देता है, तो नहीं कहता कि प्रेम वापस लौटाओ। लौट आता है, तो स्वीकार कर लेता है; नहीं लौट आता, तो स्वीकार कर लेता है। लौट आने पर भिन्नता नहीं है; नहीं लौट आए, तो भेद नहीं है। कोई अधिकार स्थापित नहीं करता। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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